राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति देशी चिकित्सा पद्धितियों की अधिक हिस्सेदारी की जरूरत

वर्तमान भारत में पारम्परिक स्थितियों के अलावा आर्थिक स्तर पर भी नये वर्गों का उदय हुआ है। दुर्योग यह है कि देश की स्वास्थ्य नीति इन नये वर्गों के अनुसार ही तय की जाती है। स्वास्थ्य बजट का सर्वाधिक हिस्सा इन पर ही केन्द्रित होता है। यही कारण है कि प्रति वर्ष इन्सेफेलाइटिस, डायरिया, मलेरिया, लेप्टोस्पाइरोसिस आदि महामारियों से आर्थिक तौर पर कमजोर लोग मरते रहते हैं। कुछ दिन हाय-तौबा के बाद मामला शान्त हो जाता है। इस पर विचार करने की आवश्यकता ही नहीं समझी जाती है। लोक स्वास्थ्य के संसाधनों और कारणों की घोर उपेक्षा की जाती है।

 

आज भारत में एक आयातित स्वास्थ्य नीति है, जिसका लाभ जनता के बजाय बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनियों को होता है। भारत एक विविधतापूर्ण विशाल राष्ट्र है। इसका गठन विविध भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक स्तर, खान-पान, पहनावे और जीवन शैली वाले समूहों से होता है, जिसका प्रभाव उनके स्वास्थ्य और बीमारियों पर पड़ना स्वाभाविक है; अर्थात प्रकृति की संस्कृति और स्वास्थ्य का गहरा संबंध है। इसी के अनुसार यहां स्वस्थ रहने के उपाय और चिकित्सा की विधियां भी भिन्नता लिए हुए होती हैं, जैसे उत्तर भारत में आयुर्वेद, दक्षिण भारत में सिद्ध, हिमालय की पहाड़ियों में रोवारिंग्पा और आदिवासी क्षेत्रों में गुनिया चिकित्सक स्थानीय संसाधनों से लोगों के स्वास्थ्य की देख भाल करते रहे हैं।

वर्तमान भारत में इन पारम्परिक स्थितियों के अलावा आर्थिक स्तर पर भी नये वर्गों का उदय हुआ है। दुर्योग यह है कि देश की स्वास्थ्य नीति इन नये वर्गों के अनुसार ही तय की जाती है। स्वास्थ्य बजट का सर्वाधिक हिस्सा इन पर ही केन्द्रित होता है। यही कारण है कि प्रति वर्ष इन्सेफेलाइटिस, डायरिया, मलेरिया, लेप्टोस्पाइरोसिस आदि महामारियों से आर्थिक तौर पर कमजोर लोग मरते रहते हैं। कुछ दिन हाय-तौबा के बाद मामला शान्त हो जाता है। इस पर विचार करने की आवश्यकता ही नहीं समझी जाती है। लोक स्वास्थ्य के संसाधनों और कारणों की घोर उपेक्षा की जाती है। इन्सेफेलाइटिस पर आयोजित एक गोष्ठी में एक चिकित्सक बता रहे थे कि वे इस महामारी के समय सर्वे के आंकड़ों को सहेजने का दायित्व निभा रहे थे। उनके आंकड़ों के अनुसार यह रोग उन्हीं क्षेत्रों व परिवारों में विशेष रुप से प्रभावी था, जहां कुपोषण की समस्या थी।

कुपोषण का मुख्य कारण गरीबी नहीं है, इसका मौलिक कारण गांवों व दूर-दराज के क्षेत्रों की स्थानीय जीवन शैली व संसाधनों पर शहरीकरण का कब्जा किया जाना है। परम्परागत प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट किया गया, जीवन शैली को भ्रष्ट किया गया और फिर अपना बाजार खड़ा किया गया, जिसको खरीदने के लिए औकात की जरूरत होती है। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात्य स्वास्थ्य को सामाजिक दायित्व व समाज कल्याण के रूप में परिभाषित किया गया। 1952 में इस बारे में भोरे समिति ने निम्न संस्तुतियां प्रस्तुत की थीं।

1- स्वास्थ्य सेवाएं केवल उपचारात्मक नहीं होनी चाहिए, बल्कि स्वास्थ्य संरक्षण व संवर्द्धन के लिए होनी चाहिए।
2- स्वास्थ्य सेवाएं सभी के लिए उपलब्ध होनी चाहिए, चाहे वह उसका भुगतान करने में सक्षम हो या न हो।
3- स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता निकटतम होनी चाहिए।
4- सामुदायिक सहभागिता बढ़ायी जानी चाहिए।
5- वंचित समूहों जैसे महिलाओं, बच्चों, सामाजिक, आर्थिक रूप से वंचित लोगों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
6- स्वास्थ्य को मूलतःराज्य का विषय माना गया है, परन्तु महामारियों या व्यापक दुष्प्रभाव वाले रोगों के लिए राष्ट्रीय दायित्व भी होना चाहिए, जिसके अन्तर्गत मलेरिया उन्मूलन, अंधता निवारण, कुष्ठ, डायरिया, क्षय तथा मानसिक रोगों के लिए टीकाकरण कार्यक्रम राष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए ।
भारत की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का यह पहला ड्राफ्ट था। इसके अन्तर्गत त्रिस्तरीय अस्पतालों की स्थापना की गयी। विशेष अभियानों के लिए पृथक विभाग बनाये गये। पर संसाधनों के अभाव में यह कार्य बहुत धीमी गति से हुआ। 1983 में संसद द्वारा राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का मसौदा तैयार किया गया। इसी क्रम में 2002 और अब 2017 में भी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियां बनीं। अब बात प्रारम्भिक काल की सामुदायिक भागीदारी से होते हुए वैश्वीकरण और गुणवत्ता बढ़ाने के प्रयासों में निजी भागीदारी तक आ पहुंची है।

हालांकि इन नीतियों से मलेरिया, अंधता, पोलियो, डायरिया आदि अनेक महामारियों पर नियंत्रण पाने में सफलता मिली है, परन्तु आज भी देश की 72 प्रतिशत ग्रामीण आबादी तक आधारभूत स्वास्थ्य सुविधाएं नही पहुंच पायी हैं, जबकि सम्पन्न वर्ग के पास विकल्पों की सुविधा है, उसके लिए एम्स, पीजीआई से लेकर वेदान्ता,फोर्टिज, एस्कार्ट तक सब उपलब्ध हैं। सारे आयातित संसाधन, तकनीकें और चिकित्सा विज्ञान की सुविधाएं भारत जैसे भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक विविधता तथा बड़ी आबादी वाले देश में सभी को मिलना असंभव नहीं तो दुरूह और अत्यधिक पूंजी वाला काम अवश्य है। इसलिए इस असफल होती नीति के कारण 2002 में सरकार ने स्वास्थ्य जैसे मौलिक क्षेत्र में निजी क्षेत्र को भी शामिल किया, लेकिन 2018 आते-आते सरकार इससे हाथ झाड़ कर किनारे होने की ओर बढ़ रही है. यानी सवा अरब आबादी वाले देश का स्वास्थ्य सिस्टम अब कुछ सम्पन्न लोगों तक ही सिमटकर रह जायेगा और देश की अधिसंख्य आबादी चमकी, जापानी, इन्सेफेलाइटिस आदि से मरती रहेगी। इसका कारण स्पष्ट है कि निजी क्षेत्र का मुख्य लक्ष्य मुनाफा होता है. जो उसके मुनाफे की आपूर्ति करेगा, वही उसके दायरे मे आयेगा, शेष देश कमजोर व परम्परागत संसाधनों के भरोसे रहने को मजबूर होगा ।

2016 में सरकार की ओर से एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया। भारत की सभी प्रचलित पारम्परिक चिकित्सा विधियों आयुर्वेद, योग, यूनानी, होम्योपैथी, सिद्धा, रोवारिंग्पा को एक साथ जोड़कर आयुष सिस्टम आॅफ मेडिसिन बनाया गया। राष्ट्रीय स्वास्थ्य को लेकर चिंता करने वाले विचारकों के लिए यह उत्साहित करने वाला कदम था। पर पांच सालों में ही यह उत्साह ठंडा पड़ गया, क्योंकि इसका प्रचार तो बहुत शानदार ढंग से किया गया, पर इसमें लोगों की हिस्सेदारी सुनिश्चित नहीं की जा सकी। इसका कारण यह रहा कि यह पद्धति सरकारी चिकित्सा विज्ञान की परिभाषा में फिट नही बैठती है। इसे एक सहायक चिकित्सा विधि की तरह देखा जाता है। वाह्य औषधीय प्रयोगों और जड़ी-बूटियों को एलौपैथी के मानकों पर प्रमाणित कर एलोपैथी को सौंप दिया जाता है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है देश की 60 प्रतिशत आबादी अपने घर में जिस चिकित्सा पद्धति पर आज भी निर्भर है, उसका आधुनिक मानकों पर डाटा मांगा जाता है। इसके तहत शिक्षण संस्थानों के उन्नयन के प्रयास नगण्य हैं,तिस पर भी इसके शिक्षण में निजी क्षेत्र को बेलगाम प्रवेश दे दिया गया, जिसके चलते बिना प्रायोगिक ज्ञान के आयुष चिकित्सक दोयम दर्जे के एलोपैथिक चिकित्सक बनने को मजबूर हो रहे हैं। आयुर्वेद पर शल्य और रासायनिक औषधियों के प्रयोग, प्रसव कराने तक के लिए कानूनी प्रतिबंध लगा हुआ है। योग को ऐसे प्रचारित किया जाता है, जैसे वही सारी स्वास्थ्य समस्याओं की कुंजी हो,जबकि देश की बहुसंख्य, दूरस्थ और कम आयवर्ग की आबादी को योगा नहीं, पोषण और स्वास्थ्यपरक भोजन की आवश्यकता है। इस प्रकार अदूरदर्शिता पूर्ण आयातित स्वास्थ्य नीति के कारण भारत एक बीमार देश बनता जा रहा है। प्रदूषण, प्राकृतिक संसाधनों की कमी, समृद्ध वर्ग का असंयम, कमजोर वर्ग का कुपोषण आदि इसके कारण हैं। समृद्ध वर्ग में जहाँ मधुमेह, हृदय, गुर्दे आदि के रोग महामारी का रूप धारण करते जा रहे हैं, वहीं असमृद्ध आबादी में त्वचा, श्वास, रक्ताल्पता, हड्डियों की कमजोरी, कैंसर, टीबी, इन्सेफेलाइटिस आदि रोग महामारी बनते जा रहे हैं। इधर आधुनिक एलोपैथी की दवाएं निष्प्रभावी होती जा रही हैं। कृत्रिम जीवन शैली के कारण रोग प्रतिरोधक क्षमता दिनोंदिन घटती जा रही है । ऐसे हालात में स्वदेशी स्वास्थ नीति ही देश को बीमार बनने से बचा सकती है। इसके लिए तमाम कानूनों की समीक्षा करते हुए स्वदेशी चिकित्सा विधियों पर विश्वास के साथ खर्च बढ़ाने की आवश्यकता है। इससे अधिक अदूरदर्शिता भला क्या हो सकती है कि पूरे स्वास्थ्य बजट का मात्र 8 प्रतिशत आयुष के लिए रखा जाता है। अब इन नीतियों को बदलने का समय आ चुका है। अब आयुष को राष्ट्रीय स्वास्थ्य में उचित दायित्व और बजट में उचित हिस्सेदारी दी जानी चाहिए।
देश की कुल आबादी का ग्रामीण और शहरी वितरण 68.84% और 31.16% है, वहीं चिकित्सक और रोगी का अनुपात 1: 1668 है। इनमें से भी एलोपैथी के 50% स्नातक स्पेशलिस्ट सुपर स्पेशिलिटी के लिए चले जाते हैं। इन एलोपैथिक स्नातकों के साथ यदि 7.5 लाख आयुष चिकित्सकों को भी जोड़ लिया जाय, तो शहरी रोगी और चिकित्सक का अनुपात 1:7 का हो जाता है तथा ग्राणीण क्षेत्र में यह अनुपात 1:129 का होता है।

सामान्य सरकारी अस्पताल, निजी अस्पताल व क्लीनिक, व्यासायिक उच्चस्तरीय अस्पताल, ये सभी आधुनिक चिकित्सा केन्द्र शहरो में ही स्थित हैं, ग्रामीण क्षेत्र के स्वास्थ्य का दायित्व आज भी पारंपरिक व आयुष चिकित्सकों ही पर निर्भर है।

सामान्यतःआयुष चिकित्सा पद्धति को वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के रूप में देखा जाता है, क्योंकि जनता व शासन की दृष्टि में एलोपैथी पद्धति ही मुख्यधारा की चिकित्सा पद्धति है, जबकि अनेक रोग ऐसे हैं, जिनकी समुचित चिकित्सा एलोपैथी पद्धति में संभव ही नहीं है। ऐसे रोगों की चिकित्सा आयुष पद्धति में ही संभव है, इसलिए इस क्षेत्र में हमें विशेष कौशल प्राप्त करने की आवश्यकता है। वर्तमान जीवन शैली व प्रदूषण के कारण होने वाले रोग पूरी दुनिया में महामारी की तरह फैल रहे हैं, इन रोगों में आयुर्वेद, योग व अन्य आयुष चिकित्सा पद्धतियां वरदान सिद्ध हो रही हैं।

आयुर्वेद में त्वरित प्रभाव देने वाली औषधियां भी हैं, जिनका प्रयोग व अभ्यास आवश्यक है। सामान्य रोगों जैसे ज्वर, वमन, अतिसार आदि की चिकित्सा भी आयुर्वेद द्वारा तात्कालिक तौर पर संभव है। आपातकालीन रोगों में भी आयुर्वेद की भूमिका बढ़ायी जानी चाहिए।

जीवन शैली के कारण होने वाले रोग जैसै- मधुमेह, जराजन्यरोग, रक्तचाप, तनाव, कटिशूल, यकृत, मूत्ररोग, यौनरोग, स्नायुशूल, अनिद्रा, स्त्री रोग आदि में आयुर्वेद, योग एवं अन्य आयुष चिकित्सा पद्धतियां विशेष रूप से लाभदायक पायी जाती रही हैं।

एलौपैथी का प्रभाव घट रहा है। भारत में हर साल लाखों एंटीबायोटिक दवाएं बिना मंजूरी के बिकती हैं, जिससे दुनिया भर में सुपरबग के खिलाफ लड़ी जाने वाली जंग पर खतरा मंड़रा रहा है। ब्रिटेन के हालिया शोध में यह चेतावनी देते हुए बताया गया है कि यहां बिकने वाली 64 फीसदी एंटीबायोटिक दवाएं अवैध हैं।

ब्रिटिश जर्नल ऑफ क्लीनिकल फॉर्मेसी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां बिना मंजूरी के ऐसी दर्जनों दवाएं बेच रही हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक भारत उन देशों में शामिल है, जहां एंटीबायोटिक दवाओं की खपत की दर सबसे ज्यादा है। इससे भारत के दवा नियामक तंत्र की असफलता सामने आती है। इस शोध के लिए भारत में 2007 से 2012 के बीच बिकने वाली एंटीबायोटिक दवाओं और उनकी मंजूरी के स्तर का अध्ययन किया गया। पाया गया कि भारत में 118 तरह की एफडीसी (फिक्स्ड डोज कांबिनेशन) दवाएं बिकती हैं, इनमें से 64 फीसदी को भारतीय नियामक ने मंजूरी नहीं दी है। अमेरिका में इस तरह की चार दवाएं ही बिकती हैं। हालांकि भारत में बिकने वाली 93 प्रतिशत एसडीएफ (सिंगल डोज फार्मुलेशन) वैध हैं। भारत में कुल 86 एसडीएफ दवाएं बिकती हैं।

आयुर्वेद के लिए निर्माण और शोध का व्यापक बाजार है। स्थानीय पारम्परिक भोज्य पदार्थों, जैसे केला, बांस, मदार, मरुअक, जौ, गिलोय आदि एकल औषधियों व योग के अध्ययन से रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ने के साथ चिकित्सा में सुविधा होगी। इसके लिए विज्ञान की अन्य शाखाओं जैसे बायोकेमिस्ट्री, वनस्पति विज्ञान, रसायन विज्ञान, आईटी आदि के साथ मिल कर काम किये जाने की आवश्यकता है।

औषधीय वनस्पतियों के व्यावसायिक उत्पादन में अत्यधिक संभावनाएं हैं। इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों के साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता है, यह कार्य कुछ आयुर्वेदिक संस्थानों में अन्तर्विषयक अध्ययन के रूप में आरंभ किया जा चुका है पर इसे सांकेतिक ही कहा जा सकता है। कई राज्य सरकारों, केन्द्र सरकार, सेना और रेलवे में आयुष चिकित्सकों की नियुक्तियां करने की घोषणा हुए आज पांच साल हो गये, पर सरकारी इच्छाशक्ति और उहापोह के करण यह काम अभी तक नहीं हो पाया है। विदेशों में भी आरोग्य केन्द्र विकसित किये जा रहे हैं। भारत सरकार ने भी ऐसी घोषणाएं की हैं,जो अभी तक मात्र घोषणाएं ही हैं। आयुर्वेद के विकास के लिए जन-विश्वास आवश्यक है। इससे शोध को बढ़ावा मिलने के साथ ही चिकित्सकों में भी आत्मविश्वास बढ़ेगा।

एलोपैथी के जनक हिप्पोक्रेटिज ने केवल स्वास्थ्य दर्शन व सामान्य चिकित्सा को संगठित रूप दिया था, पर समय की आवश्यकताओं के अनुसार विज्ञान के सहयोग से विभिन्न रोगों पर केन्द्रित विशेष इकाइयां स्थापित व विकसित होती गयीं और जनता से जुड़ती गयीं, जन-विश्वास बढ़ता गया, जिसके दबाव में सत्ता को पूर्ण समर्थन व संरक्षण देना पड़ा। इसके लिए हमें विज्ञान की आधुनिक शाखाओं के साथ सामंजस्य स्थापित करना होगा। इसके लिए सरकारों को घोषणाओं के बजाय आयुर्वेद के शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा। देश की स्वास्थ्य नीति में आयुर्वेद की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।

-डॉ आर अचल पुलस्तेय

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