गणेश शंकर विद्यार्थी ने न केवल ‘प्रताप’ वरन स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर की पत्रकारिता के मूल्यों, देश की जनाकांक्षाओं से उसकी प्रतिबद्धता, समाज और जीवन के हर क्षेत्र में अपनी स्वप्नशील भावी दृष्टि का परिचय और संकल्प व्यक्त कर दिया था।
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के ऐतिहासिक जन-संघर्ष में ‘आजाद पत्रकारिता’ और ‘पत्रकारिता की आजादी’ दोनों का बेमिसाल इतिहास छिपा हुआ है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद का औपनिवेशिक चरित्र जैसे-जैसे क्रूर और जन-निरोधी होता गया, भारतीय भाषाओं में हजारों हजार अखबार और पत्र पत्रिकाओं ने ब्रितानियाँ हुकूमत के दमन-चक्र का न केवल संस्थागत प्रतिरोध किया, भारतीय समाज के हर क्षेत्र, वर्ग, समुदाय को उसके खिलाफ संगठित संघर्ष करने की सोच, समझ, रणनीति और उत्प्रेरणा भी दी। किसी विदेशी सत्ता द्वारा किसी देश-समाज को पूरी तरह से लूटने, उसकी जन- एकता और सांस्कृतिक, आर्थिक व भू-राजनीतिक विरासत को विनष्ट करने का ऐसा सुनियोजित व षड्यंत्रकारी उदाहरण दुनिया के दूसरे किसी देश में मिलना कठिन है, जैसा भारतीय प्रायद्वीप के साथ अंग्रेजी हुकूमत ने किया था। फिर भी हमारे गुलाम देश के उन महान जननायकों, स्वतंत्रता सेनानियों, शहीदों, पत्रकारों, लेखकों, कवियों और रंगकर्मियों का यह साझा संघर्ष ही था, जिसने आज़ाद भारत के स्वप्न को आज से पचहत्तर साल पहले साकार किया था। इस दृष्टि से हमारे देश के स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास दरअसल पत्रकारिता की आजादी और आजाद पत्रकारिता के मूल्यों, मानकों व आदर्शो के लिए संघर्ष का भी इतिहास है। हिन्दी पत्रकारिता के युगपुरुष व आत्म-बलिदानी गणेश शंकर विद्यार्थी का समूचा जीवन, कर्म और आचरण आज भी हमारे सामने आजाद पत्रकारिता का एक विरल आदर्श प्रस्तुत करता है।
जब दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ गांधी का संघर्ष चल रहा था और भारतीय जनता अपनी आजादी के लिए करवट ले रही थी, तब कानपुर से सबसे मुखर साप्ताहिक अखबार ‘प्रताप’ का प्रकाशन 9 नवंबर 1913 से प्रारम्भ हुआ। बढ़ती लोकप्रियता से ‘प्रताप’ साप्ताहिक समाचार पत्र बन गया था। इस तरह हिंदी पत्रकारिता जगत में ‘प्रताप’ ने जो युगान्तर उपस्थित किया था, उसमें गणेश शंकर विद्यार्थी की प्रखर वैचारिक दृष्टि, पत्रकारिता को जन-संघर्षों, राजनीतिक-सामाजिक आन्दोलनों से जोड़कर अदम्य साहस के साथ प्रस्तुत करने की उनकी ऐतिहासिक दक्षता और सामर्थ्य का महत्वपूर्ण योगदान था। ‘प्रताप’ के पहले संपादकीय में ही गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप की नीति’ शीर्षक से टिप्पणी लिखी थी कि आज अपने हृदय में नई-नई आशाओं और उद्देश्य पर पूर्ण विश्वास रखकर प्रताप कर्म क्षेत्र में आया है। समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परमोद्देश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और जरूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति को समझते हैं। उन्नति से हमारा अभिप्राय देश की कृषि, व्यापार, विद्या, कला, वैभव, मान, बल, सदाचार और सच्चरित्रता की वृद्धि से है। भारत को इस उन्नतावस्था तक पहुँचाने के लिए असंख्य उद्योगों, कर्मों और क्रियाओं की आवश्यकता है। इनमें से मुख्यतः राष्ट्रीय एकता की स्थापना, सुव्यवस्थित, सार्वजनिक और सर्वांगपूर्ण शिक्षा का प्रचार, प्रजा का हित और भला करने वाले सुप्रबंधन और सुशासन की शुद्ध नीति का राज्य कार्यों में प्रयोग, सामाजिक कुरीतियों और अत्याचारों का निवारण और आत्मावलंबन तथा आत्मशासन में दृढ़ निष्ठा है। हम इन्हीं सिद्धान्तों और साधनों को अपनी लेखनी का लक्ष्य बनायेंगे।
स्पष्ट है कि ‘प्रताप’ के इस प्रथम सम्पादकीय से ही गणेश शंकर विद्यार्थी ने न केवल ‘प्रताप’ वरन स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर की पत्रकारिता के मूल्यों, देश की जनाकांक्षाओं से उसकी प्रतिबद्धता, समाज और जीवन के हर क्षेत्र में अपनी स्वप्नशील भावी दृष्टि का परिचय और संकल्प व्यक्त कर दिया था। साथ ही आजाद पत्रकारिता के उन उच्च आदर्शों की घोषणा भी कर दी थी, जिसके बिना पत्रकारिता की आजादी बचा पाना न तब सम्भव था, न आज आजादी के पचहत्तर साल बाद सम्भव हो पा रहा है, जब आज की पत्रकारिता को बाजारवाद ने पूरी तरह लील लिया है और उसे ‘मीडिया’ में बदल कर बाजारू उत्पाद बना डाला है। आजाद पत्रकारिता की ऐतिहासिक घोषणा करते हुए प्रताप के अगले ही अंक में विद्यार्थी जी के संकल्प की यह बानगी भी देखिये, जो जितनी तब प्रासंगिक और मूल्यवान थी, उतनी ही आज भी यादगार और महत्वपूर्ण है- ‘जिस दिन हमारी आत्मा इतनी निर्बल हो जाय कि हम अपने प्यारे आदर्श से छूट जायें, जान-बूझकर असाधु के पक्षपाती बनने की बेशर्मी करें और उदारता, स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को छोड़ देने की भीरुता दिखायें, वह हमारे जीवन का सबसे बुरा दिन होगा। हम चाहते हैं कि हमारी उस नैतिक मृत्यु के साथ ही साथ हमारे जीवन का भी अंत हो जाये।’
इस तरह ‘प्रताप’ के जरिये गणेशशंकर विद्यार्थी ने पहले ही दिन से आजाद पत्रकारिता के लिए निर्भीकता, स्पष्टवादिता, कलम की ईमानदारी और सच्चाई दिखाने की दृढ़ता व जनपक्षधरता जैसे आवश्यक व उदात्त मूल्यों की घोषणा कर दी थी। प्रताप के अग्रलेखों व अन्य प्रासंगिक व सामयिक विषयों पर लिखे आलेखों, समाचार संकलन व विचार विश्लेषणों आदि में उस समय भारत की आजादी का लक्ष्य और उसे पाने के साथ-साथ अन्यायपूर्ण राज्य सत्ता की जन विरोधी नीतियों का प्रबल विरोध और आजाद पत्रकारिता का एकाग्र संकल्प दीखता था। अपने प्रकाशन के प्रारम्भिक काल से लेकर स्वतंत्रता आन्दोलन के चरम काल तक विद्यार्थी जी ने पत्रकारिता की आजादी के लिए लगातार संघर्ष किया। देश के किसानों, मजदूरों के शोषण-उत्पीड़न, सरकार और प्रशासन द्वारा जन आन्दोलनों को कुचलने की प्रवृत्ति, कुचक्र में फँसाने की साजिशों और प्रेस अधिनियमों के जरिये पत्रकारिता की आजादी को खत्म करने की हर कोशिश का प्रबल विरोध किया। अन्याय के प्रतिरोध में आवाज उठाने के कारण कई बार प्रताप के अंकों की जब्ती, जुर्माना और स्वयं जेल की यातनाएं सहीं, किन्तु कभी न आजाद पत्रकारिता के आदर्शों और मूल्यों से दूर हुए न समझौते किये। कुली प्रथा हो, उपनिवेशों की दुर्दशा हो, प्रवासी भारतीयों की समस्याएं हों या चम्पारण में नील की ज़बरन खेती हो, साहित्य की प्रगतिशील व क्रांतिकारी रचनाओं के प्रकाशन का जोखिम हो या विश्व साहित्य की प्रमुख कृतियों का रचनात्मक लेखन हो, विद्यार्थी जी के ‘प्रताप’ ने हर कोशिश की कि सद्भावयुक्त और हर तरह के शोषण से मुक्त समाज का निर्माण हो सके। यह आजाद पत्रकारिता का ही असर था कि एक ओर उसकी लोकप्रियता और जन समर्थन लगातार बढ़ रहा था, दूसरी ओर सरकार का दमनचक्र भी उतना ही तेज हो रहा था। प्रताप के दफ्तर और सम्पादक व प्रकाशक के घरों में छापे-तलाशी, जमानत और जब्ती की कार्यवाही के साथ मानहानि के मुकदमों और जेल यात्राओं का दौर भी लगातार जारी था।
अब तक के विश्व के राजनीतिक इतिहास ने यह सिद्ध कर दिया है कि सत्ता कैसी भी हो, उसका मूल चरित्र ही शासक का है। सत्ता के तमाम रूप हैं- राजनीतिक के अलावा सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्र की वितीय सत्ता का रूप भी शासक का ही है। यहाँ तक कि बौद्धिक सत्ता ने भी विज्ञान के तकनीकी विकास के जरिये अपना शासक रूप ही प्रकट किया है। आदमी के भीतर, उसके स्वभाव की शासक प्रवृत्ति ने संगठित रूप में जिस राजनीतिक सत्ता की लोकतांत्रिक प्रणाली का विकास किया, आज अन्तत: उसका स्वरूप भी हमारे सामने जन-विरोधी और मानवता विरोधी ही है। सत्ता की जड़ता से ही मनुष्य समाज की जीवन पद्धति, उसके सामान्य नागरिक व्यवहार में क्रूरता आदि का चिंताजनक स्वरूप हमारे सामने है। आज तो लोकतांत्रिक व्यवस्था भी कथित कल्याणकारी राज्य के बावजूद अक्सर जन-विरोधी ही होती है। इसलिए अंततः सत्ता का वास्तविक प्रतिपक्ष भिन्न प्रकार की सत्ता के बजाय जनता ही है। वस्तुतः यही वह विचार है, जिसकी समझ के लिए आजाद पत्रकारिता और पत्रकारिका की आजादी का न कोई शार्टकट है और न ही कोई विकल्प है। पत्रकारिता को मीडिया में तब्दील करने के पीछे कथित वैश्वीकरण और व्यापारिक भूमण्डलीकरण का अब प्रकट हो चुका एजेण्डा ही यही है कि कारपोरेट की ताकत से लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं वाले देशों को भी निजीकरण का उत्पाद बना दिया जाय। आज साहित्य, संस्कृति, बौद्धिक विमर्श, शिक्षा और पत्रकारिता सहित वैचारिक संवाद के सारे माध्यमों पर कब्जे के पीछे का यही सच है।
ऐसे में कथित उदारीकरण के भीतर से पैदा हुए इस नये तरह के साम्राज्यवाद का मुकाबला, जनता के सामने बड़ी चुनौती की तरह दरपेश है। देश की आजादी के हीरक जयंती वर्ष में इसे और शिद्दत से महसूस करने की जरूरत है। लोकतंत्र का कथित चौथा खम्भा जब पूरी तरह मीडिया में बदलकर सत्ता और जनता के बीच संवाद का माध्यम बनने में असफल हो, जनता की आवाज को जिंदा रखने के लिए हमें लगातार अपनी कोशिशें तेज करनी होंगी। बढ़ते वैज्ञानिक तरीकों व संचार माध्यमों के होते हुए भी अन्ततः आम जनता और नागरिक समाज की बैद्धिक चेतना, चरित्र व नैतिक ताकत के बगैर कैसे कारगर हो सकती है! स्पष्ट है कि यदि आजाद पत्रकारिता के सवाल का हम जवाब खोजना चाहें, तो स्वतंत्रता आन्दोलन का पूरा दौर आज भी हमारे सामने प्रकाश-स्तम्भ की तरह खड़ा है।
स्पष्ट है कि स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास हिंदी पत्रकारिता में गणेश शंकर विद्यार्थी को याद किये बगैर अधूरा ही रहेगा। विद्यार्थी जी का उद्देश्य केवल ‘प्रताप’ शीर्षक अखबार प्रकाशित करना भर नहीं, अंतत: आत्म-बलिदान है। विद्यार्थी जी जीवन भर आजादी के समर्पित योद्धा, सेनानी, लेखक, पत्रकार, राजनेता, शिक्षक, वक्ता व संगठनकर्ता के साथ-साथ उस समय की राष्ट्रीय विचार-धाराओं के अद्भुत समन्वयकर्ता भी थे। हमें याद रखना होगा कि समूचे उत्तर भारत में, विशेष रूप से अपने सघन क्षेत्र कानपुर में ‘प्रताप के संपादन के साथ उन्होंने आपसी मतभेदों के बावजूद कांग्रेस, क्रांतिकारी दल व कम्युनिस्ट धाराओं के बीच आज़ादी के लिए समन्वय की यादगार मिसाल कायम की थी। मुख्यत: एक पत्रकार के रूप में ही गणेश शंकर विद्यार्थी ने यह ऐतिहासिक भूमिका ली थी।
विद्यार्थीजी ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से संघर्ष के साथ ही भारतीय समाज के भीतर मौजूद सामंतों, जमीदारों व पूंजीपरस्त ताकतों के खिलाफ़ आम जनता, मजदूरों, किसानों, कामगारों, छात्रों और नौजवानों की एकता मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई थी। उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था। लेखन, पत्रकारिता, अनुवाद, भाषा और शिक्षा जैसे सांस्कृतिक विषयों पर विद्यार्थी जी की साफ समझ, विचारशीलता और व्यावहारिक चिंतन व सरोकार आज भी हमारे लिए पथ प्रदर्शक हो सकते हैं। आज के भारतीय समाज में बढ़ती असहिष्णुता, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, स्त्री हिंसा व मानवीय मूल्यों की चिंताजनक गिरावट और सबसे ऊपर जनता से नेतृत्व हथियाने के बवाजूद राजनीतिक दलों का जन विरोधी रवैया आज क्या हमारी चिंता और चिंतन का उतना ही बड़ा कारण है, जितना आजादी के आन्दोलन के दौर में प्रताप के प्रकाशन काल में था? क्या इन मुद्दों, विषयों व संदर्भों को संज्ञान में लिए और इनका रास्ता निकाले बिना आजादी के कथित अमृत वर्ष में केवल जश्न मनाने के आयोजन करना, जनता से छल तथा आजादी के बलिदानियों के साथ छलावा नहीं है? आजाद पत्रकारिता और पत्रकारिता की आजादी के सवाल का गणेश शंकर विद्यार्थी से रिश्ता हमें बार-बार ललकारता है, इससे टकराने की आवाज लगाता है और रास्ता निकालने का आवाहन करता है।
-कुमार दिनेश प्रियमन