यह संस्कृति के विकास की कहानी है। वरुणा के घावों को छूने की हमारी कोशिश, उस पार पड़े कूड़े के ढेर और वरुणा-जल को मल बनाते पॉलीथीनों के पहाड़ में बिला जाती है। आज वह अपने दु:ख पर रोये भी तो आंसू बहाने को पानी नहीं है उसके पास। उसके किनारों पर विकास की दहाड़ गूंजती है। बीच में आते हैं किला कोहना के जंगल। राजघाट की इन जंगली वादियों तक आते-आते कारखानों के रसायनों से मिलकर वरुणा झाग-झाग हो उठती है। अपना बचा-खुचा मन और संवरा चुके पानी की एक क्षीण-सी नाली, गंगा को सौंप कर वरुणा अपना मुंह जंगलों की ओर फेरकर लजाती है, तो संगम की चटखदार दुपहरिया भी काली पड़ जाती है।
मेरे गांव से चलने वाली बस तब 9 रूपये के किराये में बनारस पहुंचा देती थी, जहां से आने में अब 120 रूपये लगते हैं। यह 1984 की बात है। कम्प्यूटर नाम की किसी नयी मशीन का दुनिया में तब बहुत शोर मचा हुआ था, जो लाखों और करोड़ों के जोड़-घटाने पलक झपकते कर देती थी। दुनिया विकास के नये-नये मानदण्ड स्थापित कर रही थी। हमारा देश भी विकसित होने लगा था। अपने गांव के देहाती वातावरण से निकलकर जब हम बनारस पहुंचते थे, तो शहर का चमत्कार और विकास की रफ्तार देखकर चमत्कृत रह जाते थे। बनारस में महमूरगंज नाम की कोई जगह है, ये देहात से आने वाला हर व्यक्ति जानता था, क्योंकि वह रेडियो सुनता था और बनारस का रेडियो स्टेशन महमूरगंज में था। सारनाथ में रेडियो का टॉवर है, यह जान लेने के बाद हम ट्रेन या बस में से ही उसे देख लिया करते थे। बड़े-बड़े, पक्के-पक्के मकान, चारों ओर सड़कें, टैम्पो, रिक्शे… सब अजीब लगता था। पाण्डेयपुर, कचहरी से होते हुए जब हमारी बस वरुणा के पुराने पुल पर पहुंचती थी, तो कोर्स में पढ़ी हुई जयशंकर प्रसाद की कविता- अरी! वरुणा की शान्त कछार, तपस्वी के विराग की प्यार… सहज ही कानों में गूंजने लगती थी।
मन वरुणा जल की कल-कल सुनकर शहर में घुसते ही हरिया उठता था। मुख्य शहर शुरू होने से पहले, इसी पुल पर हमें हमारे देहात का अंतिम वातावरण मिलता था। नीचे वरुणा की किल्लोलें… कल-कल, छल-छल… और दूर-दूर तक दिखते हरी नदी के हरे पाट। स्वच्छता और हरियाली की चादर-सी बिछी दिखती थी। मेरा गांव मुझे इसी जगह छोड़कर वापस चला जाता था। इतने में बस आगे बढ़ जाती और शहर-शहर होते हुए हम गंगा के किनारे राजघाट पहुंच जाते थे। तब हमारे मन में गांव और नदी दोनों साथ-साथ रहते थे। फिर धीरे-धीरे हम भी विकसित होने लगे। गंगा, वरुणा, प्रसाद और कविता… धीरे धीरे सब विकास का शिकार हो गये। कल काफी समय बाद मैं वरुणा के उसी पुराने पुल पर खड़ा था। दोनों पुलों के बीच वरुणा के किनारे शास्त्री घाट का सरकार ने कायाकल्प कर दिया है। सुंदर सीढ़ियां ऊंची होती हुई दूर सड़क तक दिखायी देती हैं। एक मंच भी बना है ‘ओपेन एयर थियेटर’ जैसा। यहां हर साल एक या दो बार कोई बड़ा कार्यक्रम होता है और काफी भीड़ जुटती है। लेकिन यह भीड़ अपनी संस्कृति का केचुल, प्लास्टिक का कचरा घाट पर ही छोड़कर वापस चली जाती है। हम दो घंटे से ज्यादा समय तक वहीं खड़े रहे।
वरुणा काशी की निजी धरोहर है, भौगोलिक रूप से ही नहीं, सांस्कृतिक और पौराणिक रूप से भी। प्रसाद जी की कविता अचानक मन में सिर उठाने लगी। विराग के प्यार की ध्वनि और शांत कछार की बदबू एक साथ मन से टकराये। विषैले हो चुके पानी को अपने गर्भ में समेटे वरुणा के पेट से दुर्गंध आ रही थी। काशी ने अपने मिजाज के हिसाब से कई सारी निजी संस्कृतियां भी विकसित की हैं, बहुत कुछ उसे प्रकृति से भी मिला है। न जाने कितनी संस्कृतियों की गवाह दक्षिणवाहिनी गंगा जब बनारस पहुंचती है तो उत्तरवाहिनी हो जाती है और काशी की विशिष्ट सांस्कृतिक छटा में एक हार की तरह टंग जाती है। लेकिन वरुणा तो काशी की अपनी नदी है, क्योंकि इसका उदय-अस्त दोनों काशी और प्रयाग के बीच ही है। यह सत्य बड़ा भयानक है कि तिल-तिल कर मरती वरुणा बहुत कष्ट में है। वह अपनी झुर्रियायी हथेलियों से अपने माथे पर भिनभिनाती हुई मक्खियों को हटाती है तो दुर्गंध का एक भभूका-सा उठता है। वरुणा दर्द में है, उसके घाव रिस रहे हैं। लेकिन काशी अपनी ही रौ में विकास के रास्ते पर बेतहाशा दौड़ रही है। वरुणा और असी के बीच बसी काशी अपने तटबंध तोड़कर अनियंत्रित फैल रही है।
सड़कों पर विकास का सैलाब आया है, लेकिन असी और वरुणा की धारा में अब सैलाब नहीं आता। लोग भ्रम में हैं कि नदी कल-कल कर रही है, वह तो त्राहि-त्राहि कर रही है। लोग भ्रम में हैं कि नदी बह रही है, वह तो ठहरी हुई है। लोग भ्रम में हैं कि काशी में गंगा भी है, वरुणा भी है, यह तो नदी की देह भर बची है, जो अब शव होने ही वाली है। समाज की संस्कृति समाज के लोगों से ही बनती है-गरीब हो या अमीर, छोटा हो या बड़ा, खुद समाज हो या सरकार। समाज के विकास के लिए सरकार ने जो दिशा पकड़ी, उसने समाज को अमीर और गरीब में बांट कर रख दिया। धीरे-धीरे गरीब आदमी आम आदमी में और अमीर आदमी पूंजीपति में बदल गया। पूंजीपति कारखाने चलाता है, मुनाफा कमाता है और अपने कारखानों का कचरा नदी में फेंकता है। पूंजपति आम आदमी का शोषण करता है। वह नदी का भी शोषण करता है। पूंजीपति नदियों के पेटे में होटल बनाता है और इस तरह नदी की जमीन पर कब्जा करता है। आम आदमी नदी के पेटे में हल चलाता है और नदी के साथ ही जीता-मरता है। नदी की भी अपनी जमीन होती है। यह जमीन नदी को समाज या सरकार नहीं, प्रकृति देती है। लेकिन वरुणा की अपनी कोई जमीन नहीं है। काशी में तो इतनी जमीन गंगा को भी नसीब नहीं है, असी को तो पूरी ही खा गया विकास।
यह संस्कृति के विकास की कहानी है। यह काशी की विकासशील नयी संस्कृति है। हम देख रहे हैं वरुणा का फैलाव, उसके शहरी हो चुके झुकाव, उसका विस्तार और दोनों पाटों पर सिकुड़ती हुई उसकी सीमाएं। वरुणा के घावों को छूने की हमारी कोशिश, उस पार पड़े कूड़े के ढेर और वरुणा-जल को मल बनाते पॉलीथीनों के पहाड़ में बिला जाती है। वरुणा की स्वच्छता में कभी हरियाली समाहित थी, तब वरुणा हंसती थी, इठलाती थी और गंगा से मिलने के लिए दौड़ती हुई जाती थी। आज वह अपने दु:ख पर रोये भी तो आंसू बहाने को पानी नहीं है उसके पास। इस घाट से संगम तक के बीच वरुणा रेंगते हुए चलती है। उसके किनारों पर विकास की दहाड़ गूंजती है। बीच में आते हैं किला कोहना के जंगल। राजघाट की इन जंगली वादियों तक आते-आते कारखानों के रसायनों से मिलकर वरुणा झाग-झाग हो उठती है। अपना बचा-खुचा मन और संवरा चुके पानी की एक क्षीण-सी नाली, गंगा को सौंप कर वरुणा अपना मुंह जंगलों की ओर फेरकर लजाती है। नाली बन चुकी वरुणा, नाला बन चुकी गंगा को भींचकर जब रोती है, तो संगम की चटखदार दुपहरिया भी काली पड़ जाती है। वरुणा के घाट पर खड़ा मैं संगम तक की इस यात्रा में वरुणा के दर्द को महसूस करना चाहता हूं। आज काशी अपनी नदियों का पानी नहीं पी सकती। उधर गंगा लजाती है, इधर वरुणा लजाती है। अपनी नदी की मौत पर काशी को रूदन ठानना चाहिए, पर लगता है गंगा और वरुणा के साथ-साथ काशी की आंखों का पानी भी मर चुका है।
–प्रेम प्रकाश