आचार्य जी 1974 के आंदोलन में अघोषित लेकिन सर्व स्वीकृत विश्वविद्यालय बन गये थे। वे और उनका खादीग्राम, वैचारिक मंथन का मुख्य केंद्र था। खुद लोकनायक जयप्रकाश मानते थे कि उनके मन की बातों को आचार्य जी बहुत ही बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करते हैं। गांधी विचार के महान व्याख्याकार दादा धर्माधिकारी भी आचार्य जी की व्याख्यान शैली और बुद्धिमत्ता के कायल थे।
जीवन में मैंने जिन चीजों या शख्सियतों को खोया है, आचार्य राममूर्ति का नाम उनमें से एक है। आचार्य जी से परिचय तो 1974 के बिहार आंदोलन के दरम्यान हुआ, लेकिन उनका सान्निध्य आपातकाल के दरम्यान मिला। वह चुनौतीपूर्ण समय था। तब आचार्य जी चेतगंज, वाराणसी की एक गली के एक छोटे से मकान में भूमिगत थे। उनकी एक आंख का आपरेशन हुआ था। इसके बाबजूद वे उस आंख को बंद रख कर दूसरी आंख से अपनी मजबूत कलम के बल पर निर्भीक और निर्वैर भाव से आपातकाल का डटकर विरोध करते रहे।
अगस्त 1978 में मैंने गोवा सर्वोदय मंडल की मदद से बांदोड़ा-रामनाथी, गोवा में वाहिनी का 10 दिवसीय राष्ट्रीय शिविर का आयोजन किया था। आचार्य जी कुछ दिन शिविर में साथ थे। सुबह-शाम उन्हें पैदल घुमाने उनके साथ रहा करता था। तब उनकी मधुर वाणी का भी लाभ मिलता था। हम लोग पैदल चलकर दो ढाई किलोमीटर दूर महालक्ष्मी मंदिर तक आया करते थे। तब मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि इसी मंदिर के पीछे मेरी ससुराल बनेगी। आचार्य जी निसर्ग प्रेमी भी थे। उस समय पैदल घूमते हुए आचार्य जी ने गोवा के बारे में दो पते की बातें कही थीं। एक यह कि कश्मीर की वादियों से बर्फ़ हटा लें तो गोवा उससे ज्यादा खूबसूरत है। दूसरी यह कि उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ था कि गोवा पर 450 साल तक पुर्तगाली शासन के बावजूद बहुत सारे हिंदू मंदिर, वह भी खूबसूरत मंदिर अवस्थित हैं तथा बहुसंख्य आबादी हिंदुओं की है, जबकि हमारी धारणा थी कि बहुसंख्य आबादी ईसाई समाज की होगी।
आचार्य जी 1974 के आंदोलन में अघोषित लेकिन सर्व स्वीकृत विश्वविद्यालय बन गये थे। वे और उनका खादीग्राम, वैचारिक मंथन का मुख्य केंद्र था। खुद लोकनायक जयप्रकाश मानते थे कि उनके मन की बातों को आचार्य जी बहुत ही बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करते हैं। गांधी विचार के महान व्याख्याकार दादा धर्माधिकारी भी आचार्य जी की व्याख्यान शैली और बुद्धिमत्ता के कायल थे। 1977 में सदाकत आश्रम, पटना में संपूर्ण क्रांति पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में आचार्य जी का अविस्मरणीय भाषण हुआ था। उनका भाषण मंत्रमुग्ध करता था, सोचने के लिए प्रेरित करता था।
दादा धर्माधिकारी भी अपने भाषण के कारण ज्यादा पूजनीय बने। जब दादा से बोलने का अनुरोध किया गया, तब उन्होंने प्रारंभ करते हुए कहा कि जब राममूर्ति बोल ले, तब मुझसे बोलने के लिए नहीं कहा करो। उसके कंठ में माता सरस्वती वास करती है। उसके शब्द हवा में नृत्य करते हुए हमारे दिल दिमाग पर छा जाते हैं। राममूर्ति के बोल लेने के बाद मेरे पास अब बोलने के लिए कुछ नहीं बचता है।
आचार्य जी से अंतिम मुलाकात का साल तो ठीक से याद नहीं है, शायद वैशाली बिहार में आयोजित शांति सेना पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के समय हुई थी। उन्होंने अपने जीवन का अंतिम दशक शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन तथा सामाजिक शांति के लिए नागरिकों की शांति सेना खड़ी करने में विनियोग किया था। आज इस वक्त भी उनके ये दोनों कार्य ज्यादा प्रासंगिक हैं।
-कुमार कलानंद मणि