बंटवारा कबूल न करते तो भारत के कई टुकड़े हो जाते – सरदार पटेल

आजादी के साथ-साथ भारत का बंटवारा एक ऐसा दर्द था, जो आज भी देशवासियों के मन में टीसता है। बंटवारा क्यों हुआ, उस समय के हालात कैसे थे, अंग्रेजों ने क्या चाल चली, जिन्ना-नेहरू की क्या भूमिका थी, अनेक सवाल पूछे जाते हैं। यद्यपि बंटवारे को स्वीकार क्यों किया गया, इसका जवाब सरदार पटेल ने खुद ही दे दिया था।

भारत रत्न से सम्मानित सरदार वल्लभ भाई पटेल ने ही रियासतों में बंटे इस देश को एकता के सूत्र में पिरोया था। सरदार पटेल देश के पहले उप-प्रधानमंत्री थे। भारत-पाक युद्ध के दौरान वह देश के गृह मंत्री के तौर पर कामकाज संभाल रहे थे। उनके एक भाषण का यह अंश देखें। इस भाषण में पटेल ने बताया था कि उन्होंने देश के टुकड़े किए जाना क्यों स्वीकार किया?

‘हमने हिंदुस्तान के टुकड़े किए जाना कबूल कर लिया। कई लोग कहते हैं कि हमने ऐसा क्यों किया, यह गलती थी। मैं अभी तक नहीं मानता कि हमने कोई गलती की। साथ ही यह मानता हूं कि अगर हमने हिंदुस्तान के टुकड़े मंजूर नहीं किए होते तो आज जो हालत है, उससे भी बहुत बुरी हालत होने वाली थी। तब हिंदुस्तान के दो टुकड़े नहीं, बल्कि अनेक टुकड़े हो जाने वाले थे। मैं आपको इस बात की गहराई में नहीं ले जाना चाहता हूं, लेकिन यह बात मैं अनुभव के आधार पर बताना चाहता हूं। मेरे सामने वह सारी तस्वीर है कि हम किस तरह एक साल सरकार चला पाए थे और अगर हमने यह चीज कबूल न की होती तो क्या होता? लेकिन वे सारी बातें मैं आपको बताऊंगा तो बहुत वक्त लग जाएगा।

आप इतना भरोसा रखें कि जब मैंने और मेरे भाई पं. नेहरू ने यह कबूल किया कि अच्छा ठीक है, अगर बंटवारा जरूरी है और इसके बिना मुसलमान नहीं मानते, तो हम इसके लिए भी तैयार हैं। जब तक हम परदेशियों को न हटा दें, विदेशी हुकूमत न हटा दें, तब तक रोजाना ऐसी हालत होती जाती थी। हमें साफ तौर से दिखाई पड़ रहा था कि हिंदुस्तान का भविष्य नहीं रहेगा और परिस्थिति काबू से बाहर चली जाएगी। इसलिए हमने सोचा कि अभी दो टुकड़े करने से काम ठीक हो जाता है तो वैसा ही कर लो।

हमने मान लिया कि ठीक है, अलग घर लेकर अगर अपना भाई शांत हो जाता है और अपना घर संभाल लेता है तो हम भी अपना घर संभाल लेंगे। लेकिन हमने यह बात इसी उम्मीद से मानी थी कि हम शांति से अपना काम करेंगे। उसमें हमारी गलती हुई। मैं यह नहीं कहता कि टुकड़े करने में हमारी गलती हुई, गलती इसमें हुई कि टुकड़े करने के बाद हमने वह काम किया, जो नहीं करना था। आजादी के बाद दुनिया में हमारी इज्जत बढ़ी थी और 15 अगस्त के बाद दुनिया में हमारी एक जगह बन गई थी। हम उससे बहुत नीचे गिर गए।

दूसरे देशों के लोग यह शक करने लगे कि हम लोग हुकूमत करने के लायक भी हैं या नहीं? कई अंग्रेज ऐसे भी थे, जो समझते थे कि जब हिंदुस्तान का किनारा छोड़कर जाएंगे तो मुंबई (तब बंबई) के बंदरगाह पर लोग आएंगे और कहेंगे कि तुम इस देश से मत जाओ, यहीं रहो। वे मानते थे कि हम अपना राज नहीं चला सकेंगे। अब वहां तक तो हम नहीं गिरे और हमने एक तरह से तो हिंदुस्तान को ठीक कर लिया।

जब बंगाल अलग हुआ तो बंगाल में गांधी जी बैठे थे, इसलिए उन्होंने वहां की हालत को संभाल लिया। उम्मीद से भी कहीं अच्छी तरह संभाला। उससे दुनिया पर बहुत असर पड़ा। हम पर भी असर पड़ा। मुल्क पर भी असर पड़ा। लेकिन पंजाब में जो हुआ, वह बहुत ही बुरा हुआ। पंजाब और उत्तर पश्चिम के सरहदी प्रांत में जो अत्याचार हुआ, उसे बयान करने में दिल फटा जाता है। पंजाब तो हिंदुस्तान का सिर है। इस तरह जख्मी देश को उठाने के लिए हम सबने बहुत कोशिश की। बाकी हिंदुस्तान को हमने संगठित कर लिया, वह होश में आ गया और सावधान हो गया।


जब तक हिंदुस्तान का पूरी तरह से हृदय परिवर्तन न हो जाए और जैसे देश को काम करना चाहिए, वैसे वह न करे तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा। तब तक गांधी जी को चैन नहीं आएगा, वह बेचैन हैं। उनको दिल्ली में छोड़कर आया हूं तो मुझे भी बहुत दर्द हुआ है। (उन दिनों गांधी जी दिल्ली में अपने जीवन का अंतिम उपवास कर रहे थे।) लेकिन यहां न आता तो भी मुसीबत थी। जो बात दिल से निकलनी चाहिए, जल्दी से वह निकलती भी नहीं, उसमें इतना दर्द भरा है।

हमने हिंदुस्तान को एक तरह से बांध तो लिया। अब हमारी कोशिश हैं कि हिंदुस्तान को उठाओ। इसमें हमें आपका साथ मिल जाए तो लगेगा कि बहुत कुछ नहीं गंवाया है। करीब एक हजार साल के बाद हमारे पास यह मौका आया है कि 80 फीसदी हिंदुस्तान हमने एक कर लिया है। मौके का सही इस्तेमाल करें तो हम दुनिया के दूसरे बड़े-बड़े मुल्कों के साथ बैठ सकते हैं और सारे एशिया की नेतागिरी कर सकते हैं।

15 अगस्त के बाद हमने बहुत काम किया। उस काम से हमारी गिरी हुई प्रतिष्ठा फिर से हमें मिलने लगी क्योंकि दुनिया देख रही थी कि इन लोगों पर क्या बोझ पड़ा है। हिंदुस्तान की मौजूदा सरकार की जगह दूसरी कोई सरकार होती तो क्या करती, यह भी दुनिया जानती थी। बहुत से मुल्क अब यह सोचने लगे हैं कि जितना वे हमें समझते थे, हम लोग उतने बुरे नहीं हैं। हिंदुस्तान की जड़ें बहुत मजबूत होती जा रही हैं और उनको वे हिला नहीं सकेंगे।

4 महीने में दो प्रांतों के टुकड़े किए और कई प्रांतों में जनमत लिया। असम में से एक टुकड़ा निकाल लेने का हौसला भी कर लिया गया। बंगाल और पंजाब के टुकड़े किए। इन्हीं चार महीनों में पाकिस्तान और हिंदुस्तान के बीच सारी पुरानी मिल्कियत का भी हमने हिस्सा-बांट कर लिया। अब एक कुटुम्ब में भी दो भाइयों के बीच अगर मिल्कियत का हिस्सा करना हो तो वह काम एक दिन में नहीं हो जाता और उसका हिसाब-किताब करना पड़ता है, जायदाद का माप निकालना पड़ता है, कभी पंचों की भी जरूरत पड़ती है, कभी झगड़ा भी होता है। यह सब निपटाने में वक्त लगता है तो हिंदुस्तान की मिल्कियत का, जमीन-जायदाद का, जितनी हमारी दौलत थी, जितना हमारा कर्ज था, जितनी लोगों की सिक्योरिटीज थीं, सब का हिसाब करना था। इन सब चीजों का हमने फैसला किया और आपस में बांट लिया। इस काम में हमने किसी पंच को नहीं बुलाया।

पिछले 4 महीनों में हमने न केवल यह सब किया, बल्कि इसके साथ-साथ लाखों आदमी पंजाब में एक तरफ से दूसरी तरफ गए और दूसरी तरफ से इस तरफ ले आए गए। अभी तक यह काम पूरा नहीं हो पाया, लेकिन करीब-करीब पूरा कर लिया है। समय आया है कि इस काम में जो मुसीबत आई थी, आपको उसके बारे में बताऊं। एक लंबा-सा, 60-60 मील का लंबा पैदल चलता जुलूस एक तरफ से दूसरी तरफ के लिए चला, तो दूसरा उस तरफ से इस तरफ के लिए। 10-10 लाख आदमी एक साथ, जिनमें लाखों बच्चे और औरतें थीं, एक तरफ से दूसरी तरफ गए या आए। जो जिंदा थे, वे गाड़ी, बैल, भैंस सभी कुछ लेकर चलते-चलते निकले। साथ में थोड़ी-सी पुलिस या थोड़ी-सी फौज ही होती थी। ऊपर से मूसलाधार बारिश, नीचे भी पानी ही पानी भरा था। बच्चों और औरतों तक के पास का कपड़ा नहीं, खाने का इंतजाम नहीं।

दो-दो महीनों तक इस तरह से लोग चलते ही रहे। तभी हैजा फैला और सैकड़ों हजारों लोग मरने लगे। इसी हालत में अमृतसर शहर के बीच में से मुसलमानों का जुलूस उधर जाने को हुआ। अमृतसर हिंदुओं और सिखों से भरा हुआ था। सिखों ने इनकार किया कि इधर से ये मुसलमान लोग नहीं जा सकते। वह 60 मील का लंबा जुलूस अब वहीं पड़ा था। इधर इन लोगों ने जिद पकड़ी कि नहीं जाने देंगे। उधर दूसरी तरफ हमारे जुलूसों को भी रोक लिया गया। लोग गुस्से में भरे हुए थे। अपने मकान जले हैं, बीवी-बच्चे कत्ल हो गए हैं, खाने-पीने की भी कोई चीज नहीं बची। आंखें लाल हैं और तलवार लेकर निकल आए कि नहीं जाने देंगे। तब फौज से भी यह काम नहीं होता। फौज आखिर बंदूक चलाकर कितने हिंदुओं को मारे? कितने सिखों को मारे? तब मैं अमृतसर गया। सिख लीडरों को बुलाया और बातचीत की।

मैंने कहा, ‘यह क्या कर रहे हो आप? आप 10 लाख मुसलमानों को इधर रोक लोगे। 10 लाख हिंदू और सिख वहां रुके पड़े हैं। उन अभागों के ऊपर पानी बरस रहा है, नीचे भी सब पानी है। कपड़े भींगे हैं, नींद नहीं है, खाना नहीं है और हैजा शुरू हो गया है। इस तरह जुलूस को रोककर क्या फायदा?’ मैंने अनुरोध किया कि मेरी बात मान लो। अगर हमें लड़ना ही है तो दुनिया के लोग भी देखें कि यह लड़ने वाले बहादुर लोग हैं। आपकी तलवार कमजोरों पर चलेगी तो उससे क्या फायदा होगा? पटियाला महाराज ने भी मेरा साथ दिया। सिख नेता मान गए। अमृतसर में मेरी एक नोटिस पर 1.5 लाख आदमी जमा हो गए। मैंने कहा, ‘आपका काम यह है कि आप सरकार की मदद करें, ताकि हमें पुलिस और फौज का इस्तेमाल न करना पड़े। आप वालंटियर बनकर मुसलमानों को इधर से निकल जाने दें और उधर जो हमारे हिंदू और सिख भाई पड़े हैं, उनको इधर लाने में मदद दें। 50 लाख आदमी हमें वहां से इधर लाने हैं, 40 लाख आपको इधर से वहां भेजने हैं। वहां कई आरएसएस वाले लोग थे। मैंने उन्हें भी समझाया। मुझे खुशी हुई कि बाद में हमारे सिखों और हिंदू भाइयों ने बहुत अच्छी तरह से काम किया।’

(‘भारत की एकता का निर्माण’ पुस्तक से)

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