शान्ति: बीज से वृक्ष की ओर!

शान्ति ईश्वरीय वैभव है। सर्वकल्याणकारी मार्ग अथवा माध्यम है। ईश्वर अविभाज्य समग्रता रूप हैं। कुछ भी, कोई भी, उनकी परिधि से बाहर नहीं है। वे स्वयं सार्वभौमिक एकता निर्माता हैं। अतः शान्ति एकांगी नहीं हो सकती।

सामान्य और अति सरल अर्थ में शान्ति को स्थिरता अथवा ठहराव की स्थिति स्वीकारा जाता है; व्यक्तिगत स्तर पर शान्ति को मन-मस्तिष्क के स्थिर होने की अवस्था माना जाता है। लेकिन, स्वभाव में कर्म-निरन्तरता के होने अथवा कर्म-निरन्तरता ही के जीवन की शर्त होने की सत्यता के कारण क्या मन-मस्तिष्क के स्थिर होने का तर्क वास्तविक हो सकता है? नहीं। इसलिए, जब शान्ति के सम्बन्ध में मन-मस्तिष्क की स्थिरता का पक्ष सामने आता है, तो वहाँ उस अवस्था की बात होती है, जो शोक, वैर, प्रतिस्पर्धा, दुख, ईर्ष्या व नकारात्मकता-रहित होती है। मन-मस्तिष्क शाश्वत सत्य में स्थिर होता है तथा सकारात्मकता से भरपूर होता है। प्रेम, मधुरता और सद्भावना के साथ कर्म-संलग्नता का आह्वान इससे अभिन्नतः जुड़ा होता है। यह अवस्था सहयोग-सहकार, सामन्जस्य-सौहार्द का निर्माण करते हुए, वृहद् कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है। शान्ति के समकक्ष प्रयुक्त अन्य शब्दों, विशेषकर अँग्रेजी के प्रसिद्ध शब्द “पीस”, हिब्रू के “शालोम”, लैटिन के “पैक्स”, ग्रीक के “ऐरेने” या अरबी के “सलाम” का भी लगभग वही भाव है, जो “शान्त” से बने “शान्ति” शब्द का है। यह अधीरता, क्रोध-क्षोभ व मनोविकार से मुक्त और शत्रुता व संघर्ष आदि के विपरीत, जो हिंसाजन्य प्रवत्तियाँ हैं, मित्रता और सद्भाव की स्थिति की द्योतक है। इसीलिए, शान्ति का सर्वकालिक और अति उच्च महत्त्व है। शान्ति की सर्वत्र व सदा ही उपादेयता है।

शान्ति के सर्वकालिक और अति उच्च महत्त्व तथा उपादेयता का ही परिणाम है कि यजुर्वेद में सर्वत्र शान्ति मंत्र का उल्लेख है। इस शान्ति मंत्र के माध्यम से चल-अचल व दृश्य-अदृश्य प्रत्येक जीव, तत्त्व, प्रकृति एवं पर्यावरण तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में शान्ति की (जिसका बीज अहिंसा की भाँति ही मानव के भीतर विद्यमान होता है और अविभाज्य समग्रता –ईश्वर स्वयं जिसके मूल स्रोत हैं) प्रबल कामना प्रकट होती है।

उपनिषदों के मंत्रों-श्लोकों के माध्यम से बारम्बार शान्ति के लिए प्रार्थनाएँ की गईं हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि शान्ति से बढ़कर कुछ नहीं हैI शान्ति का कोई विकल्प नहीं हैI शान्ति एक परमावश्यकता है। सार्वभौमिक एकता की सत्यता की अनुभूति और इसके लिए कार्य करने का एक अतिश्रेष्ठ माध्यम है। बाइबिल में शान्ति को एक परम आशीष स्वीकारा गया है। जीवन में शान्ति का उच्च महत्त्व बताया गया है। अशान्ति, वैर-शत्रुता और अकल्याण का कारण है। इसके विपरीत शान्ति, भलाई व परोपकार निर्मात्री है। वृहद् प्रेम और विशुद्ध न्याय, शान्ति के साथ जुड़े हुए हैं। परमेश्वर स्वयं शान्ति के मूल स्रोत तथा द्योतक हैं।
शान्ति शब्द प्रत्येक धर्मग्रन्थ में अपने प्रमुख उल्लेख के साथ ही हर युगपुरुष के मानवता के लिए मूल सन्देश के रूप में भी उभरा है। हर स्थान पर और प्रत्येक युगपुरुष के सन्देश में इसकी मूल भावना भी, न्यूनाधिक, एक समान ही है। उसी प्रकार, जैसे यजुर्वेद में एक प्रबल कामना के रूप में, अथवा उपनिषदों, बाइबिल अथवा श्रीकृष्ण के उद्धृत उल्लेखों में।

धर्मग्रन्थों के सभी उल्लेख और युगपुरुषों के सन्देश शान्ति अवस्था के निरन्तर विकास का मानवाह्वान करते हुए इस सत्यता को भी उजागर करते हैं कि इसका बीज प्रत्येक मानव में विद्यमान है। इसी विद्यमानता के कारण मानव अपनी प्रार्थनाओं में शान्ति की कामना करता है। वह शान्ति अवस्था को प्राप्त करना चाहता है। इसलिए, शान्ति को अंकुरित होने दो। इसे विकसित होने दो। स्वयं के साथ ही जगत-कल्याण के लिए इसे विशाल वृक्ष के समान आकार लेने दो।

मानव में शान्ति के बीज होने की सत्यता के बाद भी इसका वांछित विकास और अपेक्षित अवस्था-प्राप्ति युगों-युगों से मानवता के समक्ष सबसे चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है, आजतक है। शान्ति अवस्था के निर्माणार्थ, हम सभी जानते हैं कि व्यक्तिगत से सामाजिक, राष्ट्रीय व वैश्विक स्तर तक निरन्तर प्रयास हुए हैं, लेकिन अपने समुचित प्रस्फुटन के साथ ही शान्ति वृक्ष आजतक भी कहाँ आकार ले पाया है?

इसका कारण क्या है? कारण है मानव का अविभाज्य समग्रता और सार्वभौमिक एकता की सत्यता से विमुख होना। अटल अविभाज्य समग्रता और सार्वभौमिक एकता की मानव से अपेक्षा की अनदेखी। मनुष्य का अपनी शान्ति के लिए सोचना और उसकी प्राप्ति के लिए व्यक्तिगत व समूहगत प्रयास करना। अपने प्रयासों की प्रक्रिया में न केवल अन्यों की अनदेखी करना, अपितु उन्हें हीन –असमान मानते हुए उनके साथ विभिन्न प्रकार के अन्याय करना। इस स्थिति में, भीतर विद्यमान शान्ति के बीज का (जिसके स्रोत अविभाज्य समग्रता रूप ईश्वर स्वयं हैं), समुचित अंकुरण नहीं हो पाता। इस अभाव में इसके विकास और वृक्ष के रूप में प्रकट होने की बात कहाँ से आएगी?

शान्ति ईश्वरीय वैभव है। सर्वकल्याणकारी मार्ग अथवा माध्यम है। ईश्वर अविभाज्य समग्रता रूप हैं। कुछ भी, कोई भी, उनकी परिधि से बाहर नहीं है। वे स्वयं सार्वभौमिक एकता निर्माता हैं। अतः शान्ति एकांगी नहीं हो सकती। मानव एक ही स्रोत से उत्पन्न सभी सजातियों को अपने समान समझे। सर्वकल्याण में ही अपने कल्याण की सत्यता से साक्षात्कार करे, तदनुसार कर्म करे। ऐसा करने पर ही भीतर विद्यमान शान्ति का बीज समुचित रूप से अंकुरित होगा। वह अतिविशाल वृक्ष का रूप लेगा। सभी के लिए कल्याणकारी सिद्ध हो सकेगा। आइए, अपने भीतर विद्यमान शान्ति के बीज को विशालतम वृक्ष के रूप में विकसित करें!

-डॉ रवीन्द्र कुमार

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