धरती पर पड़ने लगी है जलवायु परिवर्तन की काली छाया

जलवायु परिवर्तन की काली छाया सिर्फ भारत में ही नहीं मंडरा रही है, यह समस्या वैश्विक समस्या बन चुकी है। वैश्विक सम्मेलनों में भी यह मुद्दा छाया रहता है. वर्ष 2011 के नवम्बर माह में डरबन में सम्पन हुए अंतराष्ट्रीय वैश्विक सम्मेलन में भी जमकर मंथन हुआ था। वर्ष 2015 में पोलैंड के कोटवाइस में एक उल्लेखनीय सम्मलेन हुआ था, जिसमें दुनिया के 200 देश जलवायु परिवर्तन समझौतों के नियम-कायदे लागू करने के लिए सर्वसम्मति से सहमत हुए थे।

 

जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण केवल विज्ञान का ही मुद्दा नहीं है, यह ग्लोबल पॉलिटिक्स का हिस्सा भी है। दुनिया भर के ग्लोबल नेता अलग-अलग तरह से जलवायु और पर्यावरण पर औद्योगिकी की भौतिकी को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग बयान देते हैं, जिसके कारण यह गंभीर मुद्दा, चिंता का कारण बना हुआ है। प्रख्यात वैज्ञानिक आइंस्टीन कहा करते थे कि यदि कीट-पतंगे भी केवल तीन वर्षों के लिए विलुप्त हो जाएं तो दुनिया पूरी तरह से समाप्त हो जायेगी। ऐसा भी नहीं है कि इस ओर गंभीरता से चिंतन नहीं हो रहा है, दुनिया भर के वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी लगातार इस ओर चिंता जता रहे हैं। कुदरत ने इस दुनिया को रंग-बिरंगे फूलों से लेकर कई तरह के दरख़्त, पहाड़, नदी, ताल-तलैया, बाग़-बगीचे सब कुछ दिए हैं। सोचने की बात है कि आज हम कहाँ खड़े हैं! कुदरत ने जो हमें बख्शा है, क्या हम उसे सुरक्षित रख पा रहे हैं? यह गंभीर बहस का विषय है। दुनिया भर के साहित्यकारों, कलाकारों, कवियों, शायरों और लेखकों ने भी इस ओर समय-समय पर गंभीरता से ध्यान खींचा है। भले ही इन विद्वानों ने अपने साहित्य में इश्क के गीत गुनगुनाएं हों, लेकिन कुदरत के योगदान को कभी खारिज नहीं किया। वैसे तो कविता और शायरी इशारे की कला है, इसलिए इस विधा के विद्वानों ने इशारों-इशारों में जलवायु और पर्यावरण पर ठोस संदेश दिए हैं। उर्दू के मशहूर शायर राहत इंदौरी ने अपनी शायरी में कहा – मैंने अपनी खुश्क आँखों से लहू छलका दिया, इक समुन्दर कह रहा था मुझको पानी चाहिए। शहर क्या देंखें कि हर मंजिल में जाले पड़ गए, ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए।

जलवायु से प्राकृतिक वनस्पति, मिट्टी, जल, तथा जीव-जंतु प्रभावित होते हैं, साथ ही जलवायु मनुष्य की मानसिक तथा शारीरिक क्रियाओं पर प्रभाव डालती हैं। समझा जाए तो सबसे गहरी राजनीति प्रकृति और इंसानों के बीच ही होती है, पता भी नहीं चलता और प्रकृति इंसानों की हर क्रिया पर चुपचाप प्रतिक्रिया देती रहती है। जलवायु परिवर्तन के मुख्य दो कारण हैं, एक प्राकृतिक तो दूसरा मानवीय। प्राकृतिक परिवर्तनों का प्रभाव बहुत कम करके आंका जाता रहा है। ये प्राकृतिक बदलाव सृष्टि के लिए ज्यादा घातक भी सिद्ध नहीं होते, लेकिन इंसानी करतूतों ने इस मुद्दे पर गंभीर चिंता के लिए विवश कर डाला है।

जलवायु परिवर्तन की काली छाया सिर्फ भारत में ही नहीं मंडरा रही है, यह समस्या वैश्विक समस्या बन चुकी है। वैश्विक सम्मेलनों में भी यह मुद्दा छाया रहता है। वर्ष 2011 के नवम्बर माह में डरबन में सम्पन हुए अंतराष्ट्रीय वैश्विक सम्मेलन में भी जमकर मंथन हुआ था। वर्ष 2015 में पोलैंड के कोटवाइस में एक उल्लेखनीय सम्मलेन हुआ था, जिसमें दुनिया के 200 देश जलवायु परिवर्तन समझौतों के नियम-कायदे लागू करने के लिए सर्वसम्मति से सहमत हुए थे। वर्ष 2020 में पेरिस समझौता लागू करने की घोषणा हुई थी। इसके आलावा, लगभग 2 वर्ष पूर्व, यूनाइटेड नेशन से ताल्लुक रखने वाली एक संस्था ‘इंटरगवर्नमेंटल साइंस पॉलिसी प्लेटफार्म ऑन बायोडायवर्सिटी इकोसिस्टम सर्विस’ (IPBES) ने 1800 पेजों की एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, जिससे पता चलता है कि तकरीबन 80 लाख में से 10 लाख से अधिक पादप और जंतु प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर पहुँच चुकी हैं। इसका मुख्य कारण जंगलों और मैदानी इलाकों का सिकुड़ना है, जिसके कारण जल और जमीन पर रहने वाली प्रजातियां अधिक विलुप्त होती जा रही हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र के पानी का तापमान बढ़ता है, तो ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगते हैं, और फिर समुद्र के पानी का स्तर तेजी से बढ़ने लगता है। समुद्र के पानी का अपना तापमान और ग्लेशियर का तापमान मिलकर समुद्री तूफ़ान को ताकत देता है। यही कारण है कि सर्दी-गर्मी के बदलते मौसम में मानव ही नहीं, अन्य जीवों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जल-जंगल-जमीन को औद्योगिकी की व्यावसायिक होड़ की जद्दोजहद जिस तरह से सिकोड़ती चली आ रही है, उससे गाँव खत्म हो रहे हैं।

हम अपने विकासशील और कृषि-प्रधान देश भारत को ही लें, तो देखते हैं कि गर्मियों में अक्सर आग लग जाती है, बिहार बाढ़ त्रासदी से कभी नहीं निपट सका। उड़ीसा में फैनी तूफ़ान तांडव करता है, तो बंगाल, तमिलनाडु या समुद्री किनारों के नजदीक के दक्षिण भारतीय राज्य जहाँ भयंकर और नए-नए चक्रवातों से जूझते रहते हैं, वहीं वायु प्रदूषण उत्तर भारत के कई क्षेत्रों सहित राजधानी दिल्ली का मुद्दा बना हुआ है, लेकिन सत्ता की पिपासा इतनी ज्वलंत हो रखी है कि इस ओर कोई सोचता तक नहीं, केवल बेबुनियाद बातें उछालकर चर्चा और बहस चलायी जाती है और प्रसार भारती मूक होकर अपने चौथे स्तम्भ की इन करतूतों पर खामोश रहकर समर्थन करता है। प्रकृति मानव जीवन में इतना महत्व रखती है कि उसके बिगड़ जाने से एक दिन मानव जाति के ही विलुप्त हो जाने का खतरा मंडराने लगा है। आज जरूरत है कि इस अभियान को जोरदार-असरदार-धारदार तथा प्रभावशाली ढंग से चलाया जाए। वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कवि, शायर, नाटककार, नुक्कड़नाटक और कठपुतली कलाकार, गीतकार-संगीतकार, फिल्मकार, पत्रकार आदि हर क्षेत्र के लोग गंभीरता से आगे आकर सृष्टि की रक्षा हेतु इस गंभीर समस्या पर अभियान चलायें और इसे राजनैतिक मुद्दा बनाएं, हर नागरिक को जागरूक करने के लिए गंभीरता से जन-जागरण चलायें, तभी हम जलवायु परिवर्तन के खतरों से दुनिया को बचा पाएंगे और पर्यावरण को संरक्षण दे पाएंगे!

-संजय कन्नौजिया

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