एक मुस्लिम लड़के और एक ईसाई लड़की की आज से 35 साल पहले शादी हुई। अंतर्धार्मिक विवाहों की यह विडम्बना है कि बहू तो मंजूर हो जाती है, पर उसका मजहब मंजूर नहीं होता। इसी द्वंद्व में फंसे एक ससुर और एक बहू, जो प्यार से दिल जीतने में विश्वास करती है, की यह सच्ची कहानी पढ़ें। मजहब के प्रति निष्ठा किस हद तक कट्टरता में बदलती चली जाती है, यह कहानी उसका नायाब नमूना है। यह कट्टरता अंतत: मनुष्य की चेतना को इस हद तक संकीर्ण बना देती है कि प्रेम, सेवा, समर्पण आदि मानवीय सद्गुणों के सामने भी डिगती नहीं है। एक साधारण इंसान भी अपने जीवन के अंतिम क्षणों की अचेतन अवस्था में भी इस कट्टरता से उबर नहीं पाता और जाते-जाते भी प्रेम और सेवा की भावना से भरी अपनी बहू को कलमा पढ़ाकर आंखें मूंद लेता है। मजहब की कट्टरता मानवीय रिश्तों और भावनाओं को रौंदती चली जाती है। कट्टरता की यही व्यक्तिगत चेतना बाद में संस्थागत फासिज्म का रूप ले लेती है।
( एक )
हमारी शादी से किसी को विरोध नहीं था। आशा से किसी को कोई शिकायत नहीं थी। मेरे पिताजी हमेशा उसके गुणों की प्रशंसा करते थे, पर उसे मुसलमान होना चाइए, यह उनकी शर्त थी। हमने एक दूसरे को इंसान होने के नाते पसंद किया था। इसलिए धर्मांतरण का तो सवाल ही नहीं था। शादी करने से वे मुझे रोक नहीं सकते थे। किन्तु आशा को बहू के रूप में स्वीकार करें या नहीं, यह अंततः उन्हीं के हाथ में था। धर्मांतरण के बिना शादी स्वीकार नहीं होगी, यह उन्होंने आखिर कह ही दिया। ईसाई लड़की को धर्मांतरण कराए बिना स्वीकार कर लिया, तो लोग उंगली उठाएंगे, यह उनका डर था। इससे भी ज्यादा परम्पराओं के गहरे उतरे संस्कार उन्हें यह स्वीकार नहीं करने दे रहे थे।
मगरिब की नमाज़ हो चुकी थी। दिन ढलने को था। सुधाकर का दिया मिठाई का डिब्बा लेकर हम अपने घर आये। हमारा पुराना मकान सदर बाजार के इसी इलाके में है। पिताजी जब पहली बार अंबाजोगाई आए, तो उन्होंने इसी मोहल्ले में किराये का मकान लिया था। किराये का खर्च अधिक होगा, इसलिए हमारा परिवार फालोवर्स क्वार्टर में रहने लगा। वह सरकारी मकानों की कॉलोनी थी। मेरा बचपन इसी कॉलोनी में बीता। वहीं रहते हुए मुझे इमरजेंसी के समय गिरफ्तार किया गया था। उसके बाद सरकारी अधिकारियों ने नोटिस जारी करके पिता को भी घर खाली करने को कहा। तब तक सदर बाजार में हमारा मकान बनकर तैयार हो गया था। आपातकालीन कारावास की सजा पूरी करके जब मैं लौटा तो इसी घर में आशा से पहली मुलाक़ात हुई थी।
आज हम शादी का रजिस्ट्रेशन कर लौटे थे। मैं पटना से सीधे बीड पहुंचा। अपने दोस्त के कमरे में कपड़े बदले और शादी में शामिल हुआ। आशा अंबाजोगाई से आई थी। उसने खास क्रिश्चियन स्टाइल की सफेद साड़ी पहनी हुई थी। उसके साथ उसकी बहन और छोटा भाई तथा मेरी ओर से मेरी बहन और बहनोई थे। ये चार रिश्तेदार छोड़ दें तो बाकी सभी मित्र थे। मैंने किसी को शादी का निमंत्रण नहीं दिया था। सुधाकर, बापू कालदाते और डॉक्टर लोहिया को बतौर गवाह आने की गुजारिश की थी। इन तीनों ने भी अंतरजातीय विवाह किया था। बात फैलती गई और संघर्ष वाहिनी के कार्यकर्ताओं व मित्रों का जमावड़ा बढ़ता गया। विवाह पंजीकरण पूरा हुआ। कोई खान साहब विवाह-अधिकारी थे। चेहरे पर बिना कोई भाव लाये, उन्होंने हस्ताक्षर कर दिए। एक दूसरे को हार पहनाने की औपचारिकता पूरी हुई। तस्वीरें ली गयीं। बापू ने मुझे अपनी साढ़े चार सौ रुपये उपहार में दिए। वे और डॉक्टर औरंगाबाद चले गए। बस में काफी भीड़ थी। सारी यात्रा खड़े रहकर करनी पड़ी। मेरी शादी की यही बारात थी। उतरते वक्त, सुधाकर ने मिठाई का डिब्बा देकर कहा, ‘अपने माता-पिता से मिल लो।’
मैं परिवार में सबसे छोटा और माता-पिता का लाड़ला था। घर में घुसते ही माँ का हाथ पकडकर खुद अपने सिर पर रख लिया और इसी तरह आशा के सिर पर रखवा दिया। माँ को नहीं पता था कि मैं क्या कर रहा हूँ। मैंने कहा, ‘हो गया, हमें आपका आशीर्वाद मिल चुका।’ उसने कुछ नहीं कहा। बस हम दोनों को देखती रही। आशा को बहू के रूप में अपनाने में उसे कोई गुरेज नहीं था। लेकिन तभी पिताजी आ गए। जैसे ही उन्होंने हमें देखा, उनके चेहरे पर कठोरता उभर आयी। मैंने उनका ऐसा चेहरा पहले कभी नहीं देखा था। हम दोनों ने खड़े होकर उन्हें सलाम किया। पिताजी केवल एक ही वाक्य बोले कि जब तक यह मुस्लिम नहीं होती, तेरी बीवी नहीं कहलाएगी. यह एक वाक्य बोलकर वे चल दिये। ऐसा लगा, जैसे बिजली गिर पड़ी हो। इस एक वाक्य के पीछे एक भयावह तूफ़ान दिख रहा था। आशा रोने लगी। उसकी आंखों से आंसू रुक ही नहीं रहे थे। मैंने उसे समझाने की बहुत कोशिश की। क्या पता, उसके दिमाग में क्या चल रहा था। वह मेरी बात भी नहीं सुन रही थी। माँ पानी ले आई। उसने पिया और बहुत देर तक चुपके चुपके रोती ही रही.
आशा ईसाई घर से आयी हुई थी। बचपन में ही उसकी माँ का देहांत हो गया था। सबसे बड़ी बेटी होने के नाते उसने अपने छोटे भाई-बहनों को मां की तरह पाला। उसके पिता डाकघर में कार्यरत थे। वे लड़कियों की शिक्षा के पक्ष में थे। उन्होंने जोड़तोड़ करके भी लड़कियों को पढ़ाया। उन्होंने आशा को नर्सिंग का कोर्स करने के लिए औरंगाबाद भेजा। मेरी बहन भी वहीं पढ़ती थी। दोनों में दोस्ती हो गई । मैं आपातकाल के दौरान जेल में था। मेरी बहन के साथ मेरा पत्राचार होता था। मेरे पत्र आशा भी पढ़ती थी। क्रिसमस आया तो उसने बधाई का कार्ड भेजा। मैंने उसे धन्यवाद पत्र भेजा। फिर एक सिलसिला शुरू हो गया। मिलने से पहले ही हमारा परिचय हो चुका था। उसने नर्सिंग का प्रशिक्षण पूरा किया। उसे तुरंत नौकरी मिल गई। वह मेरी बहन की शादी में आई थी। इस मौके पर उसने जिस जिम्मेदारी से सबकुछ संभाला, हमारे परिवार में उसकी प्रशंसा हो रही थी। उसका यह स्वभाव सभी को पसंद आया। सबको पता था कि हम शादी करने वाले हैं। केवल एक समस्या थी। हमारा परिवार चाहता था कि वह इस्लाम स्वीकार कर ले।
उसने जब भी मुझसे इस बारे में पूछा, मैंने यही कहा कि मेरा तुम्हारा यह नाता मनुष्य होने के नाते है, ईसाई या मुसलमान होने के नाते नहीं. उसने हमारी बहन से कहा कि अगर हबीब कहता है तो मैं कुछ भी करने को तैयार हूं। अगर वह कहता है कि सूखे कुएं में कूद जाओ, तो मैं कूद जाऊँगी। आपलोग उससे ही बात कीजिये। काफी दिनों तक किसी ने यह मुद्दा नहीं उठाया।
मेरे पिता रूढ़िग्रस्त नहीं थे। जात पांत तो बिल्कुल नहीं मानते थे। उन्हें आशा से कोई शिकायत नहीं थी। उल्टा वे उसकी तारीफ ही करते थे। एकमात्र समस्या धर्मांतरण की थी। दूसरे धर्म की बहू लाओगे तो लोग क्या कहेंगे? परिजन क्या कहेंगे? उन्हे डर था कि लोग सवाल पूछेंगे। मुझे रिश्तेदारों या लोगों की कोई परवाह नहीं थी कि उन्होंने क्या कहा। मैं बस इतना ही सोच सकता था। लेकिन पिता नहीं सोच सके। यह उनके बचपन के संस्कारों की परीक्षा थी।
शादी का आशीर्वाद लेने आए लाडले बेटे और नेक दिल बहू के सिर पर हाथ रखने के बजाय, उन्होंने जो कहा, उनका वह वाक्य मुझे अखर गया। थोड़ी बहुत सामाजिक जागरूकता के कारण मैं तो इसे इसे पचा गया, लेकिन आशा की संवेदनाओं को चोट लगी।
( दो )
आशा को मेडिकल कॉलेज क्षेत्र में क्वार्टर मिल गया। इसी घर में हमारी नई जिंदगी की शुरुआत हुई। उस समय मैं लगातार घूमता रहता था। आशा घर पर रहती। उसका स्वभाव पूरी तरह पारिवारिक था। वह अपना परिवार त्याग कर आयी हुई थी। उसने सोचा था कि उसे यहाँ एक न्या परिवार मिलेगा। लेकिन यहां तो अलग ही है। पति के अलावा कोई रिश्तेदार नहीं। वह भी घुमंतू। कभी यहाँ तो कभी वहाँ। मेरे दोस्त, मेरी बहन, उसकी नई दोस्त सब उसके साथ थे। लेकिन उसे मनचाही पारिवारिकता नहीं मिल रही थी, क्योंकि उसने धर्म परिवर्तन नहीं किया था।
ड्यूटी के बाद आशा हमारे सदर बाजार के घर आकर बैठती। हमारे घर के लोग इतने बदतमीज़ नहीं थे कि उसे बाहर निकाल देते। वह घंटों बैठी रहती थी। कोई उससे बात नहीं करता। हर कोई अपने काम में व्यस्त। वे आपस में बतियाते, लेकिन उसके साथ कोई बात नहीं करता। वह चार-चार घंटे वहां बैठती थी और सूर्यास्त के समय क्वार्टर लौट आती। कुछ माह बीतते बीतते यह अबोला टूट गया। माँ धीरे-धीरे उससे बात करने लगी। आशा उनके कामों में मदद उनकी करने लगी। इस तरह घर में तो जगह मिल गई, पर मन के दरवाजे अभी भी बंद थे। आशा के पिता धार्मिक आयोजनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। उनके शहर में काफी संख्या में ईसाई हैं। आशा की शादी से उसके मैके वाले भी खुश नहीं थे। उनके मन को यह बात कभी नहीं जंची की आशा ने एक मुस्लिम से शादी की है। उसमें भी मैं नौकरी नहीं करता था। आशा भोली है, वह बेचारी फंस गयी, ऐसी भावना उनके मन में थी। पर एक बात है कि आशा के मैके वालों ने मेरी सराहना भले न की हो, पर मेरा अपमान भी कभी नहीं किया। मेरे लिए इतना ही काफी था। हालांकि आशा को नहीं लगता था कि यह काफी है।
अपने यहाँ पहली जच्चगी के लिए लड़की मैके जाती है। आशा कहाँ जाएगी? मां नहीं है। मैके के लोगों की स्थिति ऐसी नहीं थी कि जच्चगी मैके में कराई जाये। अंत में अंबाजोगाई में ही जच्चगी कराने का फैसला किया। मैंने अपने प्रवास रोक दिए और आशा के साथ रहने का फैसला किया। हम दोनों ही इस मामले में बिलकुल अनजान थे। बच्चे के जन्म की तैयारी दोनों ने साथ में की। इस दौरान मैंने जितना सीखा, उतना किसी किताब से भी नहीं सीख पाया।
आशा को अस्पताल ले जाया गया। उसके साथ मेरी बहन और उसकी एक सहेली भी थी। मैं अस्वस्थ सा वार्ड के बाहर खड़ा था। उतरती रात को मुझे बताया गया कि लड़की हुई है। दौड़ते हुए जाकर मैं हलुवा बनाकर ले आया। एक घंटे बाद आशा से मुलाक़ात हुई।
आशा को दो-तीन दिन बाद घर लाया। एक दिन मैं बाहर से घर आया, तो आशा ने मुझसे कहा कि पिता जी आए थे। उन्होंने लड़की के कान में ‘अज़ान’ कही। रुके नहीं, तुरंत चले गए। आशा ने धर्म परिवर्तन नहीं किया, इसलिए मेरे पिता ने उसे बहू के रूप में स्वीकार नहीं किया, लेकिन उसकी बेटी के कान में ‘अज़ान’ कह दी। यह क्या है?
पिता से बात करने की तो सहूलियत थी ही नहीं। मैंने ही उसे खोलकर बताया कि यह लड़की उनके बेटे की है। दादा के रूप में उन्हें लगा होगा कि उसके कानों में ‘अज़ान’ कहना उनका कर्तव्य है। इसलिए वे बिना किसी हिचकिचाहट के हमारे घर आए और अज़ान बोलकर चले गए। उन्होंने ऐसा किया है, यह मेरी मां को भी नहीं बताया होगा। यह दिखावे का हिस्सा नहीं था। यह एक आम आदमी की धार्मिक मान्यताओं की अभिव्यक्ति थी।
( तीन )
उनकी उम्र हो चुकी थी। पहले की तरह काम नहीं होता था। एक आदमी जो साइकिल पर एक दिन में तीस किलोमीटर प्रवास करता था, एक गाँव से दूसरे गाँव तक पैदल चलने में जिसे हिचकिचाहट महसूस नहीं होती थी, वह अब चल नहीं सकता था। अपना गाँव छोड़ा, प्रदेश छोड़ा, एक अपरिचित प्रदेश में आकर अपने बच्चों को पाला पोसा, पढ़ाया और बड़ा किया, वह आदमी आज बिस्तर पर पड़ा था। भाई पैसे भेजता था, उससे घर चलता था। पिता को यह स्थिति मंजूर नहीं थी। उम्र के साथ उन्हें कई बीमारियों ने घेर रखा था। एक दो बार ऑपरेशन भी हुए थे। पर इस बार स्थिति गंभीर थी।
पिताजी को वार्ड में भर्ती कराया गया, बड़ा ऑपरेशन हुआ। मर्ज लाइलाज है, यह डॉक्टर बता रहे थे। लेकिन गंभीरता पूर्वक इलाज भी कर रहे थे। बाइस दिन हो गए, पिताजी मौत से लड़ रहे थे। मेरी बहन और आशा मेरे पिता की देखभाल कर रहे थे। हमारी मां उनकी हालत नहीं देख सकती थी, इसलिए दिल मसोस कर घर पर ही रही। मेरे बहनोई हमारे साथ रहते थे। मैं पहरा दे रहा था, बाहर की दौड़ भाग कर रहा था। पिताजी की हालत मुझसे बर्दाश्त नहीं होती थी। मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं बगल के कमरे में जाकर उनका हाल देख सकूँ। लेकिन आशा उनकी बच्चों जैसी सेवा कर रही थी। पिताजी आज गये या कल, ऐसी उनकी स्थिति थी। आशा के सिवा कोई उनकी सेवा करे, यह उन्हें सुहाता नहीं था। आशा! पैर उठाकर उधर करा दो। आशा! इस हाथ में झनझनाहट हो गई। आशा यह करो। आशा वह करो।’ भले ही वह बिस्तर के किनारे बैठकर खाना खा रही होती, लेकिन वे उसे ही बुलाते। वह निवाला एक तरफ रख कर उठ जाती थी। अंतिम तीन दिन तो आशा को नींद क्या होती है, यह जैसे पता ही नहीं था। मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने पूछा कि आप अच्छी तरह से जानती हैं कि क्या होने वाला है, फिर भी आप उनकी इतनी सेवा क्यों कर रही है?
उसने मेरी ओर ऐसी नजर से देखा कि इसे इतनी आसान सी बात कैसे नहीं समझ आती। उसने कहा कि भगवान ने इस सुंदर ब्रह्मांड को बनाया है। इसमें एक इंसान कुछ समय और अधिक रह सके, इसके लिए हमें प्रयास करना चाहिए। यह उसकी ईसाई नैतिकता बोल रही थी या उसके भीतर के परिचारक की प्रेरणा थी या सहज मानवता थी, मैं कुछ नहीं समझ पाया, चुपचाप बस उसे देखता रहा।
पिता के निधन के तीन दिन पहले की घटना है। पिता ने आशा को बुलाया। आशा आगे आई। पिता ने कहा कि जैसा मैं कहता हूं, मेरे पीछे-पीछे कहो. आशा ने सिर हिलाकर हामी भरी।
पिताजी ने कहा- लाइल्लाह. आशा बोली- लाइल्लाह!
पिताजी बोले- इल्ललाहु. आशा बोली- इल्ललाहु!
पिताजी बोले- मुहम्मदर्रसूलल्लाह. आशा बोली- मुहम्मदर्रसूलल्लाह!
इसके बाद उन्होंने संतोष की एक सांस ली। सीने पर रखा कोई बड़ा-सा पत्थर हट गया हो जैसे, ऐसा उन्हें महसूस हुआ। बरसों से रुकी हुई जलधारा ज़ोरों से बहने लगी। उनकी आँखों में एक अजीब-सी चमक थी। उन्होंने बस इतना कहा कि अब मैं इतमीनान के साथ मर सकता हूं। और उन्होंने अपनी आँखें बंद कर लीं।
आशा ने मुझे यह सारी घटना बताई। इसका क्या मतलब है, उसने पूछा। यह कलमा है। इस्लाम का मूल विश्वास। ब्रह्म एक है। उसके अलावा कोई भी पूजा के योग्य नहीं है और मुहम्मद ईश्वर द्वारा भेजे गए पैगंबर हैं। कलमा पढ़कर मुसलमान बना जाता है। यह किसी को मुसलमान बनाने का साधारण तरीका है।
मैंने मज़ाक में कहा कि आशा, तूने कलमा पढ़ा, अब तू मुसलमान हो गई। वह त्वरित बोली- इतना ही था बस! तो हम पहले ही मुसलमान क्यों नहीं बन गए?
तीन दिन बाद पिता ने हमेशा के लिए आँखें बंद कर लीं। शादी के बाद जब हम उनसे आशीर्वाद मांगने गए थे, तब के सख्त भावों का उनके चेहरे पर जरा भी असर नहीं था। खूब काम करने के बाद जैसे व्यक्ति गहरी नींद में सो जाता है, वैसी शांति उनके चेहरे पर बिखरी पड़ी थी।
-अमर हबीब