बीसवीं सदी के इतिहास पर जब भी चर्चा छिड़ेगी, महात्मा गांधी की स्थिति उस कालखंड में सबसे महत्वपूर्ण मानी जायेगी। उनका योगदान भारत के स्वाधीनता संग्राम में तो है ही, पर उनका सबसे बड़ा योगदान है भारत के जनमानस में गहरे पैठ कर उसे मथ देना और उसके साथ खुद को जोड़ देना। राजनीतिक व्यक्तित्व वैसे भी जनता से जुड़ता ही है, पर गांधी की जनता से सम्प्रेषणीयता अद्भुत थी। 1919 से लेकर 1948 तक के भारत के इतिहास, इसे आप गांधी युग भी कह सकते हैं, में हर ऐतिहासिक घटनाक्रम को गांधी ने प्रभावित किया है। गांधी केवल भारतीय स्वाधीनता संग्राम के नायक ही नहीं थे, बल्कि उनके दर्शन ने समाज और बौद्धिकी के हर आयाम को प्रभावित किया है। साहित्य, कला, राजनीतिशास्त्र, दर्शन, आदि मानविकी का शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र बचा हो, जिस पर गांधी के विचारों का प्रभाव न पड़ा हो। जनता से उनकी कनेक्टिविटी इतनी जबरदस्त थी कि वे अपने पास आये हर पत्र का जवाब देते थे औऱ लोक को प्रभावित करने वाले हर बिंदु पर, चाहे वह महत्वपूर्ण हो या नितांत व्यक्तिगत, अपनी राय रखते थे। भारतीय जन के साथ गांधी की इस सम्प्रेषणीयता का मूल कारण था, उनका जनता से निरन्तर संवाद। वे जनता की नब्ज समझते थे और जनता का अटूट विश्वास उन्हें प्राप्त था।
गांधी ने लोक मानस और लोक साहित्य को भी गहराई से प्रभावित किया है। ऐसा भी नही था कि गांधी के पहले देश में जननेता नही उभरे थे, पर जनता से जितना मुखर, विश्वसनीय और दिल को छू लेने वाला संवाद गांधी ने स्थापित किया, उसे कोई छू तक नही सका। गांधी जी की विचारधारा, उनके कुछ कदमों और नीतियों की आलोचना भी खूब हुई, पर इन तमाम आलोचनाओं के बाद भी गांधी ने जनता के दिल पर बेताज बादशाह की तरह राज किया। गांधी ने लेखकों को प्रभावित किया, फिल्मकारों को प्रभावित किया और गांधी ने देश की लोकचेतना औऱ लोकमानस को प्रभावित किया। उन पर बड़े-बड़े शोधग्रंथ लिखे गए, संस्मरण लिखे गए तो लोक ने भी उन पर गीत रचे औऱ वे लोकपरंपरा से फैलते हुए समाज में समा गए। लोकमानस की व्याख्या करते हुए, हिंदी के सुप्रसिद्ध आलोचक, समीक्षक डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी कहते हैं, ‘लोक की वेदना लोक की भाषा में ही ठीक-ठीक व्यक्त होती है। उसी में सुनाई पड़ती है जीवन की प्राकृतिक लय और उसकी भीतरी धड़कन। मनुष्य की सभ्यता और संस्कृति का, उसके संपूर्ण रूप का अंतरंग साक्षात्कार लोक-भाषाओं में ही होता है।’
निश्चित रूप से जब गांधी जी ने लोक वेदना को स्वर दिया, उनकी दुखती रग पर हांथ रखा तो उनकी कथा और उनकी बातें जनमानस में पैठती चली गयीं। गांधी लोकगीतों में उतरने लगे और उनका यह तादात्म्य उन्हें लोकगीतों में भी अमर कर गया। गांधी की भूमिका, देश मे राजनीतिक आज़ादी से इतर थी और समाज को समझने, स्वर देने, उसके साथ खड़े होने की गांधी की नीति ने उन्हें बीसवीं सदी और स्वाधीनता संग्राम के कालखंड का सर्वोच्च नेता बना दिया।
गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से वापस स्वदेश लौट आये और वे अपने साथ दक्षिण अफ्रीका में किये अपने नए प्रयोग सत्याग्रह और असहयोग भी साथ लाये। गांधी जब स्वदेश लौटे, तब देश में कांग्रेस के बड़े नेताओं में गोखले औऱ तिलक थे। गोखले प्रतिवेदनवादी थे, यानी वे सरकार से अपनी बात कहते थे, सरकार की नीति का विरोध करते थे पर उनका रवैया नरम था, जबकि तिलक, स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, कह कर अपना उद्देश्य और इरादा ज़ाहिर कर चुके थे। गांधी, भारतीय राजनीति में गोखले के शिष्य थे। गोखले ने उनसे एक साल तक भारत भ्रमण करने और देश को समझने की सलाह दी थी। गांधी का देश के साथ यह पहला साक्षात्कार था। इसी बीच राजनीति में एक अल्पज्ञात व्यक्ति का उदय होता है, चंपारण के राज कुमार शुक्ल का।
भारत के आज़ादी के आंदोलन में गांधी जी का प्रवेश जिस आंदोलन के जरिये हुआ है, वह इतिहास में ‘चंपारण सत्याग्रह’ के नाम से विख्यात है। यह आंदोलन किसानों का था, जो अंग्रेजों के निलहे जमीदारों के शोषण की व्यथा झेल रहे थे। नील की खेती और किसानों के शोषण का एक लंबा और दुःखद इतिहास है। बांग्ला नाटक ‘नीलदर्पण’ में इसे बेहद संजीदगी के साथ वर्णित किया गया है। कांग्रेस पार्टी के 1916 के लखनऊ अधिवेशन में राजकुमार शुक्ल ने कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं एवं गांधीजी के सामने, चंपारण के किसानों की व्यथा रखी थी। ‘नील के धब्बों’ और ‘तीनकठिया’ जैसी शोषण की प्रथा से पीडि़त चंपारण के किसानों की बात महात्मा गांधी को सुनायी गयी।
गांधी चंपारण के लिये रवाना हुए। 15 अप्रैल 1917 को मोतिहारी पहुंचकर उन्होंने गांव गांव घूमना शुरू कर दिया। दक्षिण अफ़्रीका में वहां की सरकार के खिलाफ आजमाए अपने प्रयोग – सत्य, अहिंसा, असहयोग, सत्याग्रह का उन्होंने यहां भी प्रयोग शुरू किया। चंपारण आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि जनता के मन मे आज़ाद होने की ललक पैदा हुई और गोरे निलहे जमीदारों का भय, जनता के मन से दूर हुआ। निर्भीकता का यह भाव न केवल चंपारण के किसानों के मन में फैला, बल्कि इसका असर दूर-दूर तक हुआ। गांधी ने, इस आंदोलन के माध्यम से किसानों, जमींदारों, मजदूरों की एक अच्छी खासी जमात को जोड़ने में सफलता हासिल की। इस आंदोलन में न तो पुलिस की लाठियाँ, गोलियाँ चलीं और न ही किसी को लंबी जेल यातना झेलनी पड़ी। यह आंदोलन एक युगांतरकारी घटना थी, जिसने एक सुषुप्त ग्रामीण समाज की प्रतिरोध शक्ति को उभार दिया। गांधी दर्शन का मूल तत्व, न तो अन्याय सहन करेंगे और न ही अन्याय करेंगे, का यह एक उदाहरण था। गांधी की ईमानदारी, निष्ठा और समझदारी के प्रति आम जनमानस की पूरी आस्था और समर्पणशीलता भी इस आंदोलन में प्रतिबिम्बित हुई। यह पूरा आंदोलन जाति, संप्रदाय, धर्म आदि की विभाजन की दीवारों को तोड़कर समाज के गरीब, निर्बल, मजदूर, मेहनतकश, किसान, शिक्षित, निरक्षर तबकों को एक साथ लेकर आगे बढ़ा था। उसके बाद तो गांधी स्वाधीनता संग्राम के प्रतीक बन गए ।
चम्पारण प्रवास के दौरान गांधी जी को वहां की जनता का को जो प्यार, श्रद्धा एवं सम्मान प्राप्त हुआ, वह वहां की भाषा भोजपुरी में आज भी विद्यमान है। अब न अंग्रेज़ हैं, न शोषक जमींदारी प्रथा, न नील की खेती, न डरे, दबे कुचले लोग, पर भोजपुरी के वे कर्णप्रिय गीत और धुनें ज़रूर आज भी गांधी की कीर्तिगाथा को दुहरा रही हैं। चंपारण का क्षेत्र भोजपुरी भाषी क्षेत्र है, जो अंगिका और वज्जिका के क्षेत्रों से मिला हुआ है। इन बोलियों में 1857 के बिहार के महानायकों मंगल पांडेय और वीर कुँवर सिंह की वीरता के बखान का समृद्ध इतिहास है। चंपारण सत्याग्रह ही नहीं, उसके बाद होने वाले असहयोग आंदोलन, दांडी यात्रा, सविनय अवज्ञा आंदोलन, भगत सिंह की कीर्तिगाथा, नेताजी सुभाष का बेहद ओजस्वी अभियान आदि महत्वपूर्ण घटनाओं पर भी भोजपुरी सहित अन्य बोलियों में बहुत से गीत रचे गए हैं।
रघुबीर नारायण सिंह ने ‘बटोहिया’ नाम से एक गीत रचा था, जो पूरे पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार में बहुत ही लोकप्रिय हुआ था। डॉ राजेश्वरी शांडिल्य ने अपने लेख, ‘भोजपुरी लोकगीतों में गांधी दर्शन’ में इस गीत की चर्चा करते हुए लिखा है, “इस गीत में भारत-दर्शन के साथ-साथ प्रमुख व्यक्तियों, उनके सिद्धांतों और देश की नदियों, वनस्पतियों तथा पशु-पक्षियों के बारे में भी अत्यंत जीवंत वर्णन प्रस्तुत किया गया है। इस गीत को पढ़कर, गाकर और सुनकर लोगों में अपनी सुंदर मातृभूमि के प्रति न्यौछावर होने की उत्कंठा उत्पन्न हुई।”
सुन्दर सुभूमि भैया भारत के देसवा से मोरा प्रान बसे हिम खोह रे बटोहिया।
एक द्वार घेरे राम हिम-कोतवलवा से, तीन द्वारसिंधु घहरावे रे बटोहिया।
मनोरंजन प्रसाद सिंह ने ‘फिरंगिया’ नामक एक गीत की रचना की, जो अत्यंत लोकप्रिय हुआ। इस गीत में भी उन्होंने अंग्रेज़ों के शासन-काल में भारत की बिगड़ती आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक स्थिति का उल्लेख करते हुए देशवासियों का आह्वान किया कि जैसे भी हो, देश की रक्षा के लिए अंग्रेज़ों को भगाना ही होगा। यह गीत प्रवासी भारतीयों में भी बहुत लोकप्रिय बन गया। इस गीत पर बाद में अंग्रेज़ी शासन ने प्रतिबंध लगा दिया था।
सुन्दर सुघर भूमि भारत के रहे रामा, आज इहे भइल मसान रे फिरंगिया
अन्न, धन, जन, बल, बुद्धि सब नास भइल, कौनौ के ना रहल निसान रे फिरंगिया।
1932 में गोपाल शास्त्री ने असहयोग आंदोलन का अपने इलाके में नेतृत्व किया था औऱ उन्होंने एक ऐसा गीत लिखा, जो अपनी लोकप्रियता और ओजस्विता के कारण ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया।
उठु उठु भारतवासी अबहु ते चेत करू, सुतले में लुटलसि देश रे विदेशिया।
जननी – जनम भूमि जान से अधिक जानि, जनमेले राम अरु कृष्ण रे विदेशिया।
ईस्ट इंडिया कम्पनी का उद्देश्य ही भारत की संगठित लूट करना था। निलहे किसानों का शोषण, उस संगठित लूट की एक बानगी थी। उस दौरान किसानों पर तरह तरह के 46 प्रकार के टैक्स लगाए गए थे। उनका जीना दूभर हो गया था। भोजपुरी के एक गीत की इन पंक्तियों में जुल्मी टैक्स और कानूनों को रद्द करने हेतु लोकमानस की व्यग्रता पूरी तीव्रता में अभिव्यक्त हुई है—
स्वाधीनता हमनी के, नामो के रहल नाहीं। अइसन कानून के बा जाल रे फिरंगिया॥
जुलुमी टिकस अउर कानूनवा के रद्द कइ दे। भारत का दई दे, सुराज रे फिरंगिया॥
‘चरखा’ गांधीजी के स्वावलंबन के सिद्धांत का प्रतीक तो था ही, यह भी लोकगीतों में ढल गया। गांधी और चरखे के प्रति लोकमानस में जो श्रद्धा का भाव पनप रहा था, वह इस गीत में मुखर है –
देखो टूटे न चरखा के तार, चरखवा चालू रहै।
गांधी महात्मा दूल्हा बने हैं, दुलहिन बनी सरकार, सब रे वालंटियर बने बराती, नउवा बने थानेदार।
गांधी महात्मा नेग ला मचले, दहेजे में माँगैं सुराज, ठाड़ी गवरमेंट बिनती सुनावै, जीजा गौने में देबै सुराज।
भोजपुरी कवि चंचरीक के एक ‘कजरी’ लोकगीत में भी ‘चरखे’ के प्रति व्यक्त प्रतिबद्धता के स्वर सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुए हैं—
सावन भदऊवा बरसतवा के दिनवा रामा, हरि हरि बैठि के चरखवा कतबै रे हरि
गांधी के हुकुमवा हम मनबै रे हरि!
अपने नगरिया हम तऽ करबै हो सुरजवा राम,
हरि हरि देसवा के अलखवा हम जगइबे रे हरि!
एक विवाह-गीत में गांधीजी एवं अन्य नेताओं की इंग्लैंड-यात्रा को ससुराल-यात्रा बताते हुए राष्ट्रीय भावना की अभिव्यंजना की गई है—
बान्हि के खद्दर के पगरिया, गांधी ससुररिया चलले ना
गांधी बाबा दुलहा बनले, नेहरू बनले सहबलिया,
भारतवासी बनले बराती, लंदन के नगरिया ना
गांधी ससुररिया चलले ना॥
एक चना बेचने वाले के गीत में ‘सत्याग्रह-आंदोलन’ की मनोभावना को देखा-परखा जा सकता है—
चना जोर गरम बाबू मैं लाया मजेदार चना जोर गरम।
चने को गांधीजी ने खाया
जा के डंडी नमक बनाया
सत्याग्रह संग्राम चलाया, चना जोर गरम।
‘सत्याग्रह-आंदोलन’ के क्रम में जेल गए एक सत्याग्रही के लिए उसकी धर्मपत्नी की चिंता इन पंक्तियों में द्रष्टव्य है—
सत्याग्रह के लड़ाई, सइयाँ, जेहल गइले भाई,
रजऊ कइसे होइहें ना।
ओही जेहल के कोठरिया रजऊ कइसे होइहें ना।
गोड़वा में बेडि़या, हाथे में हथकड़िया
रजऊ कइसे चलिहें ना।
गांधी जी का राजनीतिक आकार जितना विराट और व्यापक है, उससे कहीं अधिक उनकी सामाजिक भूमिका व्यापक है। दक्षिण अफ्रीका में वे सत्ता को बदलने के लिए सड़कों पर नहीं उतरे थे, बल्कि सत्ता को मानवीय और अन्याय मुक्त बनाने के लिए आंदोलन किया था। पर भारत मे वे ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए सड़क पर उतरे। उनका मक़सद था, हर तरह के भेदभाव और अन्याय से जनता को जागरूक करना। यह काम उन्होंने चंपारण से शुरू किया और आज़ादी के आंदोलन के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे। उनके पहले से स्थापित नेता धीरे धीरे नेपथ्य में जाने लगते हैं और वे भारतीय जन के एकमात्र प्रवक्ता और नेता बनकर उभरते हैं। नरेश मेहता उनका मूल्यांकन, इन शब्दों में करते हैं, “धर्म के क्षेत्र में बुद्ध ने, साहित्य के क्षेत्र में तुलसी ने और राजनीति के क्षेत्र में गांधी ने जनता को जितना प्रभावित किया है, वैसा इतिहास में कोई अन्य उदाहरण नही मिलता है।”
-विजयशंकर सिंह