गांधी जी के लिए पत्रकारिता एक मिशन था, वे विज्ञापन करने में विश्वास नहीं रखते थे और जनता को अपने अखबार का पार्टनर समझते थे. मौजूदा दौर में जहाँ मीडिया सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करता हुआ दिखता है, वही गाँधी जी के लिए पत्रकारिता एकता और सांप्रदायिक सौहार्द का माध्यम थी. अखबार […]

आने वाला तंत्रज्ञान सिर्फ आर्थिक सवाल नहीं पैदा कर रहा है, वह पूरी संस्कृति, सभ्यता तथा कुटुम्ब व्यवस्था बदल रहा है। उसका असर नाट्य, शिल्प, चित्र और भाषा जैसे अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों पर होने वाला है। मानव से श्रम और बुद्धि छीनकर उसे सिर्फ उपभोक्ता बनाने का विचार रखकर […]

पहले जब यह उद्योग आयात और मशीन से बचा हुआ था, तो इसमें कॉटेज उद्योग के चरित्र थे, ह्यूमन इंटेंसिविटी ज्यादा थी, तब विकेंद्रीकरण था और अब बड़ी बड़ी पूंजी है, औटोमेशन है, मार्केटिंग के एक से एक इंतजामात हैं। पहले जब यह उद्योग अनऑर्गनाइज्ड था, तब सरकार की जीएसटी, […]

बोधगया आंदोलन में भूमिहीन दलित परिवारों में महिलाओं के बराबरी के सवाल हर घर में प्रवेश पाते चले गए तो इसके पीछे उनकी नेतृत्व दृष्टि थी। बोधगया आंदोलन में जिन एक दर्जन महिला नेत्रियों ने हिस्सा लेकर उसे गढ़ा था; कनक उनमें सतत और प्रखर भागीदार थीं। समाज में बुनियादी […]

अंबेडकर की आर्थिक दूरदृष्टि का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि एमएस स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिश सामने आने के दशकों पहले उन्होंने सुझाव दिया था कि कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) लागत से कम से कम 50 फीसदी ज्यादा होना चाहिए. कृषि क्षेत्र के […]

साबरमती आश्रम की अपनी यात्रा के दौरान बापू के जीवन में गहरी दिलचस्पी लेने वाले ब्रिटिश प्रधानमन्त्री ने जब बापू के दांडी मार्च के बारे में जाना तो एकबारगी संकोच में पड़ गये और चकित रह गये. उन्होंने शर्मिंदा होते हुए अपने साथ आये ब्रिटिश उच्चायुक्त एलेक्स एलिस से पूछा […]

भारतीयों में सुसंस्कारों को कूट-कूटकर भरने, उन्हें सदाचारों से परिपूर्ण करने तथा इस महान देश के गौरव एवं सम्मान में वृद्धि करने के काम में केवल कथित उच्च कुलोत्पन्न महापुरुषों, महात्माओं, ऋषिओं और समाज सुधारकों का ही नहीं, अपितु महर्षि वाल्मीकि व कथित निम्न कुलोत्पन्न सन्त रविदास, महात्मा कबीर, भक्त […]

जन-वितरण प्रणाली, खाद्य सुरक्षा अधिनियम, मुफ्त अनाज का अधिकार आदि से जो सफर शुरू हुआ था, वह आज सरकार एवं सत्ताधारी दल के उपकार और अहसान में बदल गया है। इस तरह से किसी भी जीवंत लोकतंत्र में नागरिक बोध का हरण हो जाना एक खतरनाक मोड़ है और इस […]

बिजनेस की शब्दावली में इसे चावल की खुद्दी का वैल्यू एडीशन कहेंगे. लेकिन इसका लाभ उद्योग को मिल रहा है, न कि खेती किसानी को। किसान तो अपना धान राइस मिल को बेचकर गंगा नहा चुका है। अब धान का छिलका, खुद्दी, ब्रॉन सब कुछ मिल का है। अब मसला […]

देश के मध्यवर्ग, कर्मचारी वर्ग और अन्य उच्च मध्यवर्ग या संपन्न लोगों के खातों में जमा राशि का आंकड़ा निकाला जाये तो एक अनुमान के मुताबिक वह लगभग 4-5 लाख करोड़ रुपये के आसपास होगा। यानी देश के गरीब और मध्यवर्ग की बैंकों में जमा पूंजी प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी से […]

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