आज के दौर में गांधी जी की पत्रकारिता के मायने

गांधी जी के लिए पत्रकारिता एक मिशन था, वे विज्ञापन करने में विश्वास नहीं रखते थे और जनता को अपने अखबार का पार्टनर समझते थे. मौजूदा दौर में जहाँ मीडिया सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करता हुआ दिखता है, वही गाँधी जी के लिए पत्रकारिता एकता और सांप्रदायिक सौहार्द का माध्यम थी. अखबार के माध्यम से वे आम जनमानस में आजादी के मूल्‍य को जीवन का मूल्‍य बनाना चाहते थे.

 

इंग्लैंड में शुरू हुई गाँधी की पत्रकारिता

वर्ष 1888 में 19 वर्ष की उम्र में, गाँधी वकालत की पढ़ाई के सिलसिले में लंदन गए. इसी दौरान वे ‘लंदन वेजीटेरियन सोसाइटी’ के सदस्य बने. संस्था की पत्रिका ‘द वेजीटेरियन’ के लिए उन्होंने लेख लिखना शुरू किया. उनका पहला लेख ‘इंडियन वेजीटेरियन’ था जो 1891 में प्रकाशित हुआ. पत्रिका में उनके लगभग 12 लेख प्रकाशित हुए. इसमें शाकाहार, भारतीय खान-पान, परंपरा और धार्मिक त्यौहार जैसे विषय शामिल थे. शुरआती लेख से ही तथ्यपरक ढंग से सरल भाषा में विचारों को व्यक्त करने की उनकी कला दिखी. दादा भाई नौरोजी ने 1890 में जब लंदन से ‘इंडिया’ नामक अंग्रेजी पत्र प्रकाशित किया तो उन्होंने गांधी को जोहांसवर्ग, डरबन और दक्षिण अफ्रीका में अपने समाचार पत्र का प्रतिनिधि नियुक्त किया.

दक्षिण अफ्रीका में हुई घटना ने लिखने के लिए किया मजबूर

1893 में गाँधी जी वकालत करने दक्षिण अफ्रीका गये. जहाँ लंदन में गाँधी किसी प्रकार के रंगभेद का शिकार नहीं हुए, वहीं दक्षिण अफ्रीका में उनके साथ घटी नस्लभेद की अनेक घटनाओं ने उन्हें प्रेरित किया कि इस पीड़ा की अभिव्यक्ति पत्रकरिता के माध्यम से किया जाए. दक्षिण अफ्रीका पहुंचने के तीसरे दिन ही उन्हें कोर्ट में अपमानित किया गया. कोर्ट परिसर में उनके पगड़ी पहनने पर पाबंदी लगी. अगले ही दिन उन्होंने स्थानीय संपादक को पत्र लिखकर अपनी आपत्ति जतायी. उनके विरोध के स्वर को अख़बार ने प्रकाशित किया. पहली बार गाँधी जी के लेख को अख़बार में जगह मिली थी. पत्र में उन्होंने लिखा की किसी भी देश में कोई कानून व्यक्तिगत या सांस्कृतिक आज़ादी के खिलाफ नहीं हो सकता. इस घटना से पहली बार दक्षिण अफ्रीका में गाँधी जी चर्चा में आए और अन्याय के प्रति विरोध की अभियक्ति ने उनके अन्दर पत्रकरिता का बिगुल फूका और शुरू हुआ इस क्षेत्र में उनका लंबा सफ़र.

दक्षिण अफ्रीका में 1899 में बोअर युद्ध छिड़ा, जिसने गांधीजी को भारतीय एम्बुलेंस कोर के स्वयंसेवकों के साथ युद्ध के मैदान में जाने और युद्ध को नजदीक से देखने का अनुभव प्रदान किया। इसके बाद उन्होंने युद्ध का अपना अनुभव द टाइम्स ऑफ इंडिया, बॉम्बे को भेजना शुरू किया। युद्ध संवाददाता के तौर पर पूरी मानवीय संवेदना से उन्होंने इस युद्ध की रिपोर्टिंग की.

दक्षिण अफ्रीका में आम भारतीयों के बारे में काफी अपमानजनक लेख प्रकाशित किए जाते थे. ऐसे में गाँधी जी इस दुष्प्रचार का सामना करने के लिए दक्षिण अफ्रीका के शीर्ष अखबारों में लिखने लगे. इसी कड़ी में 1903 में उन्होंने डरबन में इंडियन ओपिनियन नामक पत्रिका में शुरू की. मुख्य रूप से यह चार भाषओं अंग्रेजी, हिंदी, गुजराती और तमिल में प्रकाशित होती थी. पत्रिका के पहले अंक में ही गांधी जी ने पत्रकारिता के उद्देश्यों को बताते हुए स्पष्ट किया कि पत्रकारिता का पहला काम जनभावनाओं को समझना और उन्हें अभिव्यक्ति देना है.

इंडियन ओपिनियन के ज़रिये उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीयों की परेशानियों का उल्लेख किया. वे अखबार के माध्यम से प्रशासन का इन समस्यायों की ओर ध्यान आकर्षित करने लगे. इस पत्रिका में सिर्फ नस्लभेद के मुद्दे ही नहीं उठाये गये, दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीय समाज को स्वच्छता, आत्मानुशासन और अच्छी नागरिकता के बारे में शिक्षित करने का प्रयास भी किया गया. गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा, ‘इस समाचार पत्र की जरूरत के बारे में हमारे मन में कोई संदेह नहीं है. भारतीय समाज दक्षिण अफ्रीका के राजकीय शरीर का निर्जीव अंग नहीं है. उसे जीवित अंग सिद्ध करने के लिए यह पत्र निकाला गया है.’

सत्ता के विरोध में मुखर रहने पर साल 1906 में अफ्रीकी प्रशासन ने उन्हें जोहान्सवर्ग की जेल में कैद कर दिया। लेकिन जेल में रहने के बावजूद गांधी जी ने कोई समझौता नहीं किया, बल्कि जेल से ही अख़बार के संपादन का काम किया. अखबार ने कई बार आर्थिक तंगी झेली, लेकिन गाँधी जी ने खुद की आय का बड़ा हिस्सा इसके प्रकाशन में लगाकर इसकी गति धीमी नहीं होने दी. 1893 से लेकर 1914 तक गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में पत्रकरिता के माध्यम से दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों की वकालत की, भारतीय समाज को एकजुट किया और विभिन्न समूहों में आपसी सौहार्द स्थापित किया.


गांधी जी ने पत्रकारिता को लोगों की सेवा के साधन के रूप में देखा। उन्होंने अपनी आत्मकथा में कहा है, ‘इंडियन ओपिनियन के पहले महीने में ही मैंने महसूस किया कि पत्रकारिता का एकमात्र उद्देश्य सेवा होना चाहिए. समाचार पत्र एक महान शक्ति है, लेकिन जिस तरह पानी की एक अनियंत्रित धारा पूरे देश को डुबो देती है और फसलों को तबाह कर देती है, उसी तरह एक अनियंत्रित कलम नष्ट करने का ही काम करती है।’ दक्षिण अफ्रीका में शुरू हुई गाँधी जी की मिशनरी पत्रकारिता ने बाद में भारत में भी उसी बदलाव की मशाल जलाई.

भारत में जन जागरण के लिए पत्रकारिता बनी सहारा

गाँधी जी के भारत आगमन से पहले भी भारत में अनेक स्वतंत्रता सेनानी अंग्रेजी उपनिवेश के खिलाफ आम जनता को जगाने के लिए पत्रकारिता का प्रयोग कर रहे थे. श्रेत्रीय भाषाओं में अनेक पत्रिकाएं भी यह काम कर रही थीं. इनमें आनंद बाज़ार पत्रिका के शिशिर घोष / मोतीलाल घोष, बालगंगाधर तिलक, रामकृष्ण पिल्लई, सुब्रह्मण्यम अय्यर आदि शामिल थे. भारत में गाँधी जी के आगमन के बाद पत्रिकारिता को नई उर्जा मिली. कह सकते हैं कि 1915 के बाद के कालखंड में गाँधी जी का भारत की पत्रकारिता में ख़ासा प्रभाव रहा.

अंग्रेजों ने प्रथम विश्व युद्ध में समर्थन के बदले भारतीयों से अस्पष्ट रूप से ‘होम रूल’ वादा किया था, इसके उलट ब्रिटिश सरकार ने 1919 में भारतीय जनता पर कठोर रॉलेट एक्ट थोप दिया। इस बिल ने न केवल तथाकथित ‘देशद्रोही’ दस्तावेज के प्रकाशन, बल्कि उसके कब्जे को भी एक दंडनीय अपराध बना दिया। इसके विरोध में गांधीजी ने 7 अप्रैल 1919 में एक अपंजीकृत साप्ताहिक ‘सत्याग्रह’ शुरू किया और उसके संपादक बने । यह हर सोमवार को प्रकाशित होता था और इसके माध्यम से सत्याग्रह के विचार का प्रचार किया जाने लगा. इसमें देश भर में हो रहे नागरिक अवज्ञा आंदोलन की ख़बरें भी रहती थीं. नागरिक अवज्ञा आंदोलन वापस लिए जाने के बाद उन्होंने यह पत्रिका बंद कर दी. गाँधी जी प्रेस की स्वतंत्रता के पक्षधर थे. उन्होंने कहा था कि प्रेस की स्वतंत्रता एक मूल्यवान विशेषाधिकार है, जिसका त्याग कोई देश नहीं कर सकता. वे पश्चिम की तरह पूर्व में भी समाचार पत्रों को जनता की बाइबिल, कुरान, जेंद-अवेस्ता और गीता के रूप में देख रहे थे. उन्होंने कहा कि समाचार पत्र तथ्यों के अध्ययन के लिए पढ़े जाने चाहिए. अख़बारों को यह अनुमति नहीं दी जानी चाहिए कि वे हमारे स्वतंत्र चिंतन को समाप्त कर दें. प्रेस की आजादी के पर काटने वाले इस दौर में गाँधी जी ने आगे बढ़कर विभिन्न पत्रिकाओं के संपादन की ज़िम्मेदारी ली.

नवजीवनः गाँधी जी ने 7 सितम्बर 1919 को गुजराती में ‘नवजीवन’ नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन शुरू किया. इस पत्र के संपादन की ज़िम्मेदारी शंकर लाल बैंकर और इंदुलाल याज्ञिक ने उन्हें सौंपी थी. गांधी जी के संपादकत्व में एक आना मूल्य के इस साप्ताहिक पत्र की ग्राहक संख्या देखते ही देखते 1200 तक जा पहुंची थी।

यंग इंडिया : होम रूल लीग के दो युवा समर्थकों उमर सोबानी और शंकरलाल बैंकर ने अपने साप्ताहिक यंग इंडिया का संपादक बनने की पेशकश भी गाँधी जी को की थी. 8 अक्टूबर को गाँधी जी के संपादन में अहमदाबाद से ‘यंग इंडिया’ साप्ताहिक पत्र के रूप में निकलने लगा. यह पत्र अंग्रेजी भाषा में था. ‘यंग इंडिया’ के पहले संपादकीय लेख में गांधी जी ने जिक्र किया कि देश की 80 % किसान व मजदूर जनसंख्या अंग्रेजी नहीं जानती। फिर यह अंग्रेजी पत्र क्यों? जवाब में गांधी जी खुद कहते हैं कि वे इन मुद्दों को केवल देश के किसानों और मजदूरों तक ही नहीं पहुंचाना चाहते, बल्कि वे शिक्षित भारत के साथ-साथ मद्रास प्रेसीडेंसी के लोगों से भी जुड़ना चाहते हैं और इसके लिए अंग्रेजी जरूरी है। 1922 तक यह पत्र 40,000 की साप्ताहिक बिक्री के आंकड़े तक पहुंच गया। 1919 से 1921 की अवधि में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उछाल के साथ-साथ उनके दो साप्ताहिकों के प्रसार में भारी वृद्धि देखी गई।

1922 में यंग इंडिया में सरकार की आलोचना करने वाले तीन लेखों के प्रकाशन के बाद, गांधी जी पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। ये दोनों ही पत्रिकाएं अंततः 1932 में बंद कर दी गईं, जब गांधी जी को नमक सत्याग्रह के बाद जेल में डाला गया। यरवडा जेल में रहते हुए 1933 में उन्होंने साप्ताहिक ‘हरिजन’ का प्रकाशन शुरू कर दिया. उन्होंने अंग्रेजी, गुजराती और हिंदी में क्रमशः हरिजन, हरिजन-बंधु, हरिजन-सेवक की शुरुआत की। ये समाचार पत्र ग्रामीण क्षेत्रों में छुआछूत और गरीबी के खिलाफ उनके अस्त्र बने। इनके जरिये उन्होंने भारत में गांव की समृद्धि को राष्ट्रीय से जोड़ा. हरिजन में लम्बे समय तक कोई राजनीतिक लेख नहीं छपा. हरिजन का मुख्य उद्देश्य भारत की सामाजिक कुरीतियों को सामने लाना था. गाँधी जी ने आजादी के विभिन्न आन्दोलनों का ताकतवर प्रचार अपने पत्रों के माध्यम से किया. उन्होंने मीडिया का इस्तेमाल बड़ी ही चतुराई से किया. उनका मानना था कि प्रचार रक्षा का एक प्रमुख हथियार है. भारत छोड़ो आंदोलन से पहले गाँधी जी ने हरिजन को अंग्रेजी और आठ अन्य भारतीय भाषाओं में भी प्रकाशित किया, ताकि आन्दोलन की शुरआत से पहले और उसके दौरान भारतीय जनता तक उनके विचारों की पहुँच सुनिश्चित हो सके.

मुनाफे के लिए नहीं, सेवा के लिए पत्रकारिता

गाँधी जी ने अपने इन पत्रों में कोई विज्ञापन प्रकाशित नहीं किया, फिर भी इसका दूर-दूर तक व्यापक प्रसार हुआ। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि अखबार के लिए विज्ञापन लेना पत्रकारिता को बेचने जैसा है। वे मानते थे कि पत्रकारिता का खर्च पाठक संख्या बढ़ाकर निकालना चाहिए. विज्ञापन नहीं प्रकाशित करने की पालिसी के बावजूद गाँधी जी की कोई भी पत्रिका कभी घाटे में नहीं चलती थी.

आज का मुनाफाखोर कॉर्पोरेट मीडिया जहाँ, जनपक्षधरता का अपना मौलिक कर्तव्य छोड़कर निर्लज्जतापूर्वकजनविरोधी सरकारों के महिमामंडन में लगा रहता है, वहीं इसके विपरीत गाँधी जी ने अपने अखबारों में कभी कोई सनसनीखेज समाचार नहीं चलाया. उनकी पत्रिका में सत्याग्रह, अहिंसा, खानपान, प्राकृतिक चिकित्सा, शिक्षा व्यवस्था, हिंदू-मुस्लिम एकता, छुआछूत मिटाने, सूत कातने, खादी, स्वदेशी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था आदि विषयों पर लेख छपते थे. गांधी जी के लिए पत्रकारिता एक मिशन थी. उन्होंने लिखा था कि मैंने पत्रकारिता को एक मिशन के रूप में लिया है; उन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए, जिनको मैं जरूरी समझता हूँ और जो सत्याग्रह, अहिंसा व सत्य के अन्वेषण पर टिके हैं।

गाँधी जी पत्रकारिता के माध्यम से जनता की कमजोरियों और बुराइयों को आत्‍मसुधार और आत्‍मचिंतन के माध्‍यम से दूर करना चाहते थे. जनता में स्‍वचेतना का निर्माण कर व्‍यापक जनमत तैयार करना उनका लक्ष्य था, वे आजादी के मूल्‍य को जीवन का मूल्‍य बनाना चाहते थे। इस कारण वे अपने पत्रों में निरंतर लिखते थे और जनता के विचार भी प्रकाशित करते थे. उन्होंने अपने पत्रों में संपादक को लिखे आलोचनात्मक पत्र भी न केवल छापे, बल्कि धैर्य के साथ उनका उत्तर भी दिया और सुसंगत रूप से अपना दृष्टिकोण सबके सामने रखा। गाँधी जी के बहु-प्रतिभाशाली सचिव महादेव देसाई ने उनकी काफी सहायता की, वे गुजराती और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में कुशल थे। गांधी जी के अन्य सहयोगियों स्वामी आनंद, काका कालेलकर, नरहरि पारिख आदि ने भी नवजीवन में योगदान दिया और गुजराती भाषा के अनुवादों को सही आकार दिया।
वह पत्रकारिता में नैतिक मूल्यों की स्थापना का दौर था.

गांधी जी ने पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं के बारे में लिखा। उनके लिए संपादकीय स्वतंत्रता, सत्य का पालन और आत्मसंयम पत्रकारिता के तीन प्रमुख विचार थे. एक संपादक और एक पत्रकार के रूप में गांधी जी ने सरल भाषा के उपयोग के महत्व पर जोर दिया। वे मानते थे कि लेखन की भाषा स्पष्ट और सरल हो. लेखनी में किसी भी तरह की नफरत न हो. मवी कामथ ने लिखा है कि गांधी जी इस प्रकार लिखते थे कि प्रत्येक व्यक्ति उसे समझ सके. उनमें साहित्यिक महत्वाकांक्षा नहीं थी, पर उन्होंने जो भी लिखा, वह साहित्य है. जिस भी भाषा की पत्रिका की जिम्मेदारी उन्होंने ली, सत्य, अहिंसा, निष्पक्षता जैसे मूल्यों पर हमेशा जोर दिया. गाँधी जी प्रकाशन से पहले किसी भी ख़बर को जांचने परखने पर जोर देते थे. आज फेक न्यूज़ के दौर में जब बड़े-बड़े मीडिया हाउस भी बिना वेरीफाई किए ख़बरें छापते हैं, तो गाँधी जी की ये मूल्यपरक सिखावनें याद आती हैं-
‘समाचार पत्र मुख्य रूप से लोगों को शिक्षित करने के लिए होते हैं। वे लोगों को समकालीन इतिहास से परिचित कराते हैं। यह कोई कम जिम्मेदारी वाला काम नहीं है। हालाँकि, यह एक सच्चाई है कि पाठक हमेशा समाचार पत्रों पर भरोसा नहीं कर सकते। अक्सर तथ्य जिस तरह रिपोर्ट किए जाते हैं, उसके बिल्कुल विपरीत पाए जाते हैं। अगर अखबारों को यह एहसास हो कि लोगों को शिक्षित करना उनका कर्तव्य है, तो उन्हें प्रकाशित करने से पहले रिपोर्ट की जांच करने के लिए इंतजार करना चाहिए। यह सच है कि अक्सर उन्हें कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। उन्हें थोड़े समय में असत्य से सत्य को छांटना होता है। फिर भी, मेरी राय है कि अगर किसी रिपोर्ट को सत्यापित करना संभव नहीं हो पाया हो, तो रिपोर्ट को न प्रकाशित करना ही बेहतर है।’

गांधी जी द्वारा कभी यंग इंडिया में लिखा गया यह अंश आज तक एक पत्रकार के लिए उपयोगी सलाह है, ‘अपने विश्वास के प्रति सच्चे होने के लिए, मैं क्रोध या द्वेष में नहीं लिख सकता। मैं मूढ़ता से नहीं लिख सकता। मैं केवल जोश को उत्तेजित करने के लिए नहीं लिख सकता। पाठक को इस बात का अंदाजा नहीं हो सकता कि विषयों के चुनाव और मेरी शब्दावली में मुझे सप्ताह-दर-सप्ताह किस संयम का प्रयोग करना पड़ता है। यह मेरे लिए प्रशिक्षण है।’

आज के दौर में गाँधी जी की पत्रकारिता के मायने

आज, जब मीडिया पर बाजार की ताकतों के प्रभाव बढ़ता जा रहा है और पत्रकारिता जब समाज सेवा नहीं, मुनाफा का जरिया बन चुका है, ऐसे में पत्रकारिता के मूल्यों पर गांधी जी के विचार इस पेशे की नैतिकता पर ध्यान आकर्षित करते हैं, ‘अक्सर यह देखा गया है कि समाचार पत्र किसी भी मामले को प्रकाशित करते हैं, जो सिर्फ जगह भरने के लिए होता है। वजह यह है कि ज्यादातर अखबारों की नजर मुनाफे पर है…पश्चिम में ऐसे अखबार हैं, जो कूड़े-कचरे से इतना भरे हुए हैं कि उन्हें छूना भी पाप होगा। कई बार वे विभिन्न परिवारों और समुदायों के बीच भी कड़वाहट और कलह पैदा कर देते हैं। इस प्रकार, समाचार पत्र आलोचना से केवल इसलिए नहीं बच सकते, क्योंकि वे लोगों की सेवा करते हैं।’

आज जब पत्रकरिता जन मुद्दों से हटकर मंदिर-मस्जिद के मुद्दे पर केन्द्रित हो गयी है, समाज में अलगाव की भूमिका निभा रही है, ऐसे में गाँधी जी की विरासत को याद करना ज़रूरी है. गाँधी जी की पत्रकारिता समुदायों के बीच पुलों का निर्माण का काम करती थी. आज नफरत के इस दौर में गाँधी जी की पत्रकारिता की पहले से ज्यादा ज़रुरत है. गाँधी जी ने एक दौर में पत्रकारिता के गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा था, ‘अखबार वाले बीमारी के वाहक बनते जा रहे हैं. अखबार तेजी से लोगों के गीता, कुरान और बाइबिल बनते जा रहे हैं. एक अखबार यह अनुमान तो लगा सकता है कि दंगे होने वाले हैं और दिल्ली में सभी लाठियां और चाकू बिक गए हैं, लेकिन एक पत्रकार की जिम्मेदारी है कि वह लोगों को बहादुरी का पाठ सिखाए, न कि उनके भीतर भय पैदा करे.’

मौजूदा दौर में भी गाँधी जी की तरह निर्भीक पत्रकारों की ज़रूरत है, जो सत्ता से न डरें और जनता को बहादुरी का पाठ पढाएं.

-विकास कुमार

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