चौथी औद्योगिक क्रांति के भयावह दुष्परिणाम से कैसे बचें!

-रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ


मोहनदास करमचंद गांधी बीसवीं सदी का ऐसा अद्भुत व्यक्तित्व था, जिसकी छाप हमें जीवन के हर क्षेत्र में दिखाई देती है। उन की हत्या के 73 साल बीत चुके हैं। उसके बाद भी उनको बदनाम करने के लिए आज तक मुहिम चलायी जा रही है। मजे की बात यह है कि इसके बावजूद यह शख्स दिन-ब-दिन और प्रासंगिक होता जा रहा है। शिक्षा और पर्यावरण के क्षेत्र में गांधी विचार की मौलिकता और प्रासंगिकता कई बार अधोरेखित हुई है। इसकी तुलना में विज्ञान-प्रौद्योगिकी के संदर्भ में गांधी विचार की चर्चा काफी कम हुई है। बल्कि, गांधी प्रौद्योगिकी के खिलाफ थे, वे इंसान को विकास की राह पर पीछे धकेलते हुए यंत्र-पूर्व आदिम स्थिति में ले जाने के पक्षधर थे, ऐसे इलज़ाम उन पर कई बार लगाए गये हैं। गांधी पर यह इल्ज़ाम कई विचारधाराओं के समर्थकों ने लगाया है। इनमें नेहरूवादी, माक्र्सवादी, खुले बाज़ार के समर्थक आदि कई सारे आधुनिकतावादी भी शामिल हैं।


विज्ञान-प्रौद्योगिकी के संदर्भ में गांधी जी की भूमिका पर यह आपत्ति उठायी जाती है कि उन्होंने इसमें गरीबी का उदात्तीकरण किया, जो मानवीय ‘स्व’भाव के विपरीत है। हम प्रौद्योगिकी के प्रवाह में बह रहे हैं, अब हम चाह कर भी रुक नहीं सकते, न तो पीछे लौट सकते हैं। गांधी प्रौद्योगिकी की उस भूमिका को नज़रअंदाज़ करते हैं, जिसके तहत वह संपत्ति का निर्माण कर करोड़ों के जीवन से गरीबी खत्म कर सकती है। इंसान की सब से बड़ी ताकत है अपने परिवेश को नियंत्रित करने की उस की चाह, प्रौद्योगिकी निर्मिति की प्रेरणा को भी गांधी अनदेखा करते हैं।


गांधी जी पर इस तरह के आरोप लगते रहे हैं, इस का एक कारण है उनकी भाषा। उन्होंने अपने आप को कभी आधुनिकतावादी घोषित नहीं किया, बल्कि वे खुद को सनातनी हिन्दू कहते रहे। उन का लक्ष्य था अंतिम जन और वे लगातार उसे संबोधित करते रहे, न कि देश के आधुनिक शिक्षा प्राप्त वर्ग को, जिसकी स्वार्थपरता से उन्हें चिढ़ थी। आज, जब हम हर क्षेत्र में द्वैत के पक्षधर हो गए हैं, आप या तो हमारे साथ हो या हमारे खिलाफ, गांधी जी की यह भूमिका, जिसे वामपंथी या दक्षिणपंथी कहना मुश्किल है, पढ़े-लिखे लोगों की समझ में नहीं आती।


गांधी को कैसे समझें?


गांधी को समझना हो तो हमें भाषा और वाम-दक्षिण के द्वंद्व को पार कर, उनकी समग्र जीवन दृष्टि को परखना होगा। जिस व्यक्ति ने अपनी जीवनी का नाम ‘सत्य के प्रयोग’ रखा, जिस ने अपने जीवन में कभी किसी अंधविश्वास को, यहाँ तक कि ईश्वर और धर्म की पारंपरिक संकल्पनाओं तक को पनाह नहीं दी, वह शुरू से लेकर अंत तक केवल सत्य की राह पर चलने वाला यात्री था, इस बात को हम समझें। गांधी जी ने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन के हर पहलू को सूक्ष्मता से समझा और उसमें मौलिक अनुसंधान किया, सत्याग्रह और नयी तालीम जैसी संकल्पनाएं प्रस्तुत कीं। उन्होंने अपने शरीर पर जो प्रयोग किए, उसमें से निसर्गोपचार की विद्या प्रस्फुटित हुई। उन्होंने बिना पालिश के चावल से इनकार, शक्कर के बजाय शहद या गुड़ के उपयोग का समर्थन तथा रासायनिक खादों के प्रयोग का निषेध किया था। एक जमाने में इन बातों का मखौल उड़ाया गया, लेकिन आज ये सारी बातें वैज्ञानिक साबित हुई हैं।


आधुनिकता का गांधी का विरोध अज्ञान से नहीं, बल्कि दीर्घ परिचय तथा परख के कारण पनपा था। वे इंग्लैंड जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाली पहली पीढ़ी के प्रतिनिधि थे। सागर पार कर विलायत जाने के लिए उन्होंने पंडितों का विरोध सहा था। 1931 तक वे 15 बार यूरोप तथा द. अफ्रीका की यात्रा कर चुके थे। लोगों से मिलने, बतियाने के लिए उन्होंने जितनी रेल यात्रा की, उतनी शायद ही किसी अन्य नेता ने की होगी। उनके सेवाग्राम आश्रम में वाइसराय से बात करने के लिए टेलीफोन की हॉटलाइन लगायी गयी थी और कहा जाता है कि किसी जमाने में आश्रम के टेलीग्राम का बिल वाइसराय के ऑफिस से ज्यादा हुआ करता था। साइकिल और सिलाई मशीन को वे प्रौद्योगिकी की अच्छी मिसालें मानते थे। क्या ये बातें प्रौद्योगिकी को नकारने की मिसालें हैं?


मशीन के बारे में भूमिका


जब उनसे पूछा गया कि ‘क्या आप सभी तरह के यंत्रों का विरोध करते हैं?’, तब उन का जवाब था – ‘भला मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ? यह शरीर भी एक नाज़ुक यंत्र है, यह चरखा भी। मेरा विरोध यंत्र से नहीं, बल्कि उसके पीछे दौड़ने से है।


पूछा गया कि ‘आप अगर चरखा और सिलाई मशीन का अपवाद करते हैं, तो इस अपवाद की मर्यादा क्या होगी?’ उनका जवाब था – ‘जहां पर यंत्र व्यक्ति को मदद करने के बजाय उस पर आक्रमण करेगा, वहाँ यह मर्यादा खत्म हो जायेगी। यंत्र व्यक्ति को अपाहिज बनाने वाला नहीं होना चाहिए।’


गरीबों के उद्धार की क्षमता जिस प्रौद्योगिकी में है, उसे आप नकारते हैं, ऐसी आलोचना जब खुद टैगोर ने की, तब बापू ने कहा, ‘मैं विकास, स्वतन्त्रता, आत्मभान सब कुछ चाहता हूँ, लेकिन सिर्फ आत्मा की उन्नति के लिए। उस दिशा में सोचता हूँ तो लगता है कि क्या फौलाद का युग पाषाण युग से सचमुच उन्नत स्थिति में है? यंत्र विकास के बारे में मुझे कुछ नहीं कहना, मानवीय बुद्धि और अन्य शक्तियाँ सिर्फ आत्मोन्नति के लिए उपयोग मंि लायी जाएँ, इतना ही मुझे कहना है।’


समुचित प्रौद्योगिकी की दिशा में पहल


दादा धर्माधिकारी गांधी की इस सोच को बखूबी बयान करते हैं। उन का मानना है कि यंत्र यानी उपकरण, यानी हाथ का विस्तार, जो हाथ की ताकत को बढ़ाएगा। लेकिन अगर वह हाथ को उखाड़ता है, तो उसका विरोध करना होगा। जहां तक संभव है, गांधी सरल, छोटे यंत्रों के पक्ष में थे, लेकिन जहां पर विकल्प न हो, वहाँ भारी उद्योगों को भी वे नकारते नहीं थे। पहली भारतीय शिपिंग कंपनी खड़ी करने में उन्होंने काफी मदद की थी। लेकिन भारत की आर्थिक आज़ादी के लिए हर घर में उद्योग शुरू कर हर परिवार को आत्मनिर्भर बनाना ही एकमात्र रास्ता है, इसलिए मैं उसका समर्थन करता हूँ, ऐसा वे मानते थे। इसीलिए वे कपड़ा मिलों के बजाय चरखों को अहमियत देते थे।


अंतत: चरखे को कार्यक्षमता की कसौटी पर भी मिल के यंत्रों से मुक़ाबला करना होगा, इस बात से वे वाकिफ थे। इसलिए 24 जुलाई 1929 को उन्होंने अखिल भारतीय चरखा संघ की ओर से चरखे के सर्वोत्तम डिजाइन के लिए एक लाख (आज के हिसाब से पचीस करोड़) रूपयों का पुरस्कार घोषित किया था। उस के निम्नलिखित शर्तें रखी गयी थीं –


वह भारत में बना हो और उस की कीमत 150 रुपयों से ज्यादा न हो


वह 20 साल तक काम दे और उस के रखरखाव का खर्चा कीमत से 5³ तक ही हो।


रोज 8-10 घंटे काम करने पर उससे 16,000 फीट सूत निकलता हो।

आम महिला उस पर आसानी से रोज 8 घंटे काम कर सके।


हालांकि कोई भी यंत्र उनकी अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सका, उनकी सोच की दिशा इस उदाहरण से स्पष्ट होती है।


नए भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी


नए भारत के निर्माण में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की महत्वपूर्ण भूमिका होगी, इस बात को वे मानते थे। नई तालीम के बारे में वे लिखते हैं – ‘इस योजना के तहत अच्छे ग्रंथालय, प्रयोगशालाएँ और अनुसंधान केंद्र बनेंगे। वैज्ञानिकों, अभियंताओं और अन्य विशेषज्ञों की फौज वहाँ पर काम करेगी। वे देश के सच्चे सेवक होंगे और अपने हक तथा अपनी ज़रूरतों के बारे में सजग हुई जनता की विविध और बढ़ती हुई जरूरतों को वे पूरा करेंगे। जब ये विशेषज्ञ विदेशी भाषा का प्रयोग न करके लोगों की भाषा में संवाद करेंगे, तब उनका ज्ञान जनता की साझी संपत्ति माना जाएगा। तब विदेशों की नकल करने के बजाय देश में सच्चा और मौलिक काम होगा और उसका मूल्य समता और न्याय के आधार पर पूरे समाज में बांटा जाएगा।’


इस सपने को साकार करने के लिए उन्होंने अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ की स्थापना की। ग्रामीण पुनरुत्थान के लिए आवश्यक अनुसंधान और ग्रामोद्योगों के लिए बाज़ार निर्माण करना, उसके मुख्य उद्देश्य थे। इस संघ द्वारा अच्छा काम किया गया, जिसे बाद में कई रचनात्मक संस्थाओं ने जारी रखा।


आज समूचा विश्व प्रौद्योगिकी क्रांति की कगार पर खड़ा है, जिसमें मानवीय श्रम ही नहीं, बल्कि मानवीय प्रज्ञा को भी बेदखल किया जाएगा और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजंस तथा रोबोटिक्स द्वारा समूचे मानव जीवन का संचालन होगा। अब डॉक्टर, अभियंता, वकील, न्यायाधीश, प्रबन्धक सभी विशेषज्ञ कालबाह्य (आउटडेटेड) माने जाएंगे, बेरोजगार होंगे। खेती भी महाकाय यंत्रों द्वारा की जाएगी। करोड़ों हाथ और दिमाग खाली होंगे। उनको घर बैठे जीवन निर्वाह के लिए कुछ रकम अदा की जाएगी और दिमाग का खालीपन भरने के लिए कुछ जीबी डेटा मुफ्त में दिया जाएगा। दूसरी ओर पर्यावरण के संहार को तुरंत रोका नहीं गया, तो पृथ्वी पर मानवीय जीवन कुछ दशकों में समाप्त हो जाएगा, ऐसी घोषणा वैज्ञानिक कई बार कर चुके हैं। लेकिन महाशक्तियाँ, सरकारें, राजनैतिक पार्टियां और आम जनता, सभी ने उसे अनसुना किया है। ऐसे वक्त का मुकाबला करने के लिए गांधी की सोच के बगैर हमारे पास है ही क्या?

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