जो लोग काम करना चाहते हैं, पर काम नहीं मिलता, कुल श्रम बल के सामने उनके प्रतिशत को अर्थशास्त्र में बेरोजगारी कहा जाता है। जैसे, 100 लोगों में 90 के पास काम हो और 10 लोग काम खोज रहे हों। तो बेरोज़गारी की दर 10/100 यानी 10 प्रतिशत होगी। ये आंकड़े देश में सर्वे के द्वारा निकाले जाते हैं। सरकार भी ऐसे आंकड़े निकालती है। यह दर हर महीने निकाली जाती है।
कोरोना महामारी के दौर में आजकल बेरोज़गारी का मुद्दा राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र में है। इस मुद्दे में तथ्य भी है। अतः बेरोज़गारी के विषय पर कई स्पष्टताएं ज़रूरी हैं। 135 करोड की आबादी वाले इस देश में सभी को काम मुहैया करवाना बड़ी चुनौती है। काम न हो तो बेकार हैं, ऐसा कहा जाता है। देश में बेरोज़गारी जब चिंताजनक हद तक बढ़ रही है तो हमें इस मुद्दे को अर्थशास्त्र के अंतर्गत शास्त्रीय तरीके से समझना होगा। रोज़गार के वैसे ही हल भी खोजना पड़ेगा।
श्रम बल
अर्थशास्त्र के मुताबिक 16-64 साल आयु वर्ग के सभी लोग काम करने वालों की श्रेणी में आते हैं। 16 साल से कम और 64 साल से ऊपर के लोग काम करने वाली श्रेणी में शुमार नहीं किये जाते हैं। यह बात दीगर है कि तमाम बाल मज़दूरों और वृद्ध स्त्री पुरुषों को मजबूरी में रोटी कमाने के लिए श्रम करना पड़ता है, पर वे काम करने वालों की औपचारिक परिभाषा और उसकी गिनती में नहीं आते हैं। 2020 में इस उम्र वर्ग में देश की आबादी 65 प्रतिशत यानी 87 करोड़ थी। जब हम किसी देश के श्रम बल (वर्क फोर्स) की बात करते हैं तो उसमें ऊपर बतायी गयी श्रेणी के लोग ही आते हैं। इस उम्रवर्ग में भी पूरे समय के लिए पढ़ाई में जुटे विद्यार्थी और पूरे समय घर के कामकाज में लगी हुई महिलाएं (कभी-कभार पुरुष भी) श्रम बल की गिनती में नहीं आतीं। इस तरह 16 से 64 तक के सभी स्त्री पुरुष, जो अर्थोपार्जन के काम में लगे हुए हैं और बाजार द्वारा तय की गयी दर पर काम करने को राज़ी हैं, इन लोगों का जोड़ देश का श्रम बल कहलाता है। इसी आधार पर देश के श्रमबल में हिस्सेदारी का प्रतिशत निकाला जाता है।
श्रम बल की हिस्सेदारी
भारत में श्रमबल की हिस्सेदारी अन्य कई देशों की तुलना में कम है और पिछले पांच-सात साल में यह दर और भी नीचे गिरी है। सामान्य तौर पर आर्थिक मंदी के समय इस दर में गिरावट आती है। कंप्यूटर एंड एंटरप्राइस कॉन्फरेंस (सीईआईसी) नामक संस्था 1990 से भारत में यह दर हर साल निकालती आयी है। 1990 से दिसंबर 2020 तक के आंकड़े उपल्ब्ध हैं। इन सभी सालों में औसत दर 57.5 प्रतिशत रही है। यह दर सबसे अधिक दिसंबर 1990 में 58.4% थी और सब से कम दिसंबर 2020 में 46;3% थी। 2019 में यह 49.3% थी। कुल संख्या की दृष्टि से देखें तो 2020 में देश में (87 करोड़ के 46 से 50 प्रतिशत) 40 से 43 करोड़ लोग श्रमबल का हिस्सा थे। कोरोना महामारी का हमारे श्रमबल पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा है। महिलाओं में स्कूली और उच्चा शिक्षा की दर बढ़ने और युवाओं में कमाते हुए उच्च शिक्षा हासिल करने के अवसर और प्रयास बढ़ने से देश में श्रमबल की हिस्सेदारी बढ़ सकती है। गृहस्थ महिलाओं को उनके घर पर या आसपास रोज़गार के अवसर मिलें तो भी श्रम बल बढ़ सकता है।
बेरोजगारी क्या है?
जो लोग काम करना चाहते हैं, पर काम नहीं मिलता, उन्हें बेरोज़गार कहा जाता है। जो लोग बाजार दर पर काम करने के इच्छुक हैं, पर काम नहीं मिलता, कुल श्रम बल के सामने उनके प्रतिशत को अर्थशास्त्र में बेरोजगारी कहा जाता है। जैसे, 100 लोगों में 90 के पास काम हो और 10 लोग काम खोज रहे हों। तो बेरोज़गारी की दर 10/100 यानी 10 प्रतिशत होगी। ये आंकड़े देश में सर्वे के द्वारा निकाले जाते हैं। सरकार भी ऐसे आंकड़े निकालती है। यह दर हर महीने निकाली जाती है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार किसी मजबूत अर्थव्यवस्था में भी 4 से 5 प्रतिशत बेरोज़गारी को सहज माना जाता है। आइये, अपने देश का हाल देखें।
कोरोना से पहले, कोरोना से बाद
2016 में जनवरी से दिसंबर के बारह महीनों में पूरे देश में बेरोज़गारी की दर अधिकतम 9.7 प्रतिशत मई के महीने में थी और सबसे कम 6.4 प्रतिशत दिसंबर में थी। साल भर का औसत 8.3 प्रतिशत हुआ। जनवरी 2020 में कोरोना महामारी के पदचाप देश में पहली बार सुनाई पड़े। 2020 में बेरोज़गारी की न्यूनतम दर अक्टूबर में 07 और नवंबर में 6.5 प्रतिशत रही। अधिकतम दर अप्रैल और मई में क्रमशः 23.5 और 21.7 प्रतिशत रही। आप भूले नहीं होंगे, जब देश संपूर्ण लॉकडाउन के चलते बंद था। प्रवासी मज़दूरों के सामने फाक़ों की नौबत आ गयी थी और वे हज़ारों किलोमीटर पैदल चलकर अपने अपने गांव पहुंचे थे। उस साल औसत बेरोज़गारी की औसत दर 10.35 प्रतिशत रही, यानी स्वीकृत दर से दोगुनी। 2021 में शहरों से गांवों की ओर दौड़ तो नहीं लगी, परंतु कोरोना की मार जारी रही। अप्रैल में कोरोना का कहर बढ़ा, अस्पतालों में जगह नहीं रही। जब ऑक्सीजन की किल्लत से सैकड़ों जानें जा रही थीं, तब बेरोज़गारी की दर 11.8 प्रतिशत और न्यूनतम दर 6.5 प्रतिशत रही। साल भर का औसत 7.8 प्रतिशत रहा। यह वह समय था, जब कोरोना के कहर में लोगों ने रोज़गार खोजना बंद कर दिया था और जैसे-तैसे जीने की मशक्कत कर रहे थे। कुल आबादी के लिहाज से अगर 40 से 43 करोड़ लोगों का श्रम बल है और 8 से 9 प्रतिशत बेरोज़गारी की दर हो, तो 3.5 से 4 करोड़ लोग बेरोज़गार हुए। यही दर अगर किसी मानव सृजित या प्राकृतिक विपदा में 20 से 25 प्रतिशत तक चली जाय, यानी 8 से 9 करोड़ लोग बेकार हो जायं, तो भुखमरी की नौबत आ जायेगी।
आंकड़ों के आइने से बेरोजगारी
यहां एक स्पष्टता आवश्यक है। देश भर के आंकडे 29 राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों का औसत होते हैं। गुजरात रोज़गार के आंकड़ों में खुद को मजबूत दिखाता है। 2016 से 2021 तक की बेरोज़गारी की दरों का औसत देखें तो वह 2 से 3 प्रतिशत रहा, लेकिन अप्रैल-मई 2020 के महीनों में ये आंकड़े 18 और 12 प्रतिशत रहे। महाराष्ट्र भी गुजरात से पीछे नहीं है। इन दो महीनों को छोड़ दें तो महाराष्ट्र में भी बेरोज़गारी की दर 3 से 4 प्रतिशत के बीच रही। कौन से राज्य ऐसे हैं, जहां पिछले पांच सालों में बेरोज़गारी के दर सबसे ज़्यादा रही है? हरियाणा के आंकड़े चौंकाने वाले रहे हैं। 2016 में बेरोज़गारी की दर 11 प्रतिशत से अधिक रही। 2017 में काफी कम हुई, पर सितंबर के बाद के महीनों और सालों में 17 प्रतिशत से आगे बढ़ती गयी, अप्रैल 2020 में 43 प्रतिशत की ऊंचाई तक पहुंच गयी और दिसंबर 2021 में भी 34 प्रतिशत का आंकड़ा हुआ। जम्मू कश्मीर की हालत 2016 से 2021 के अंत तक लगभग समान रही, यहां बेरोज़गारी की दर 12 प्रतिशत से अधिक ही रही और कई बार 20 प्रतिशत से ऊपर पहुंची। उत्तर प्रदेश और बिहार की दरें राष्ट्रीय औसत से अधिकतर कम ही हैं, परंतु वह इसीलिए कि इन राज्यों के काम करने वाले अन्य राज्यों, विशेष कर गुजारात, महाराष्ट्र, पंजाब और दिल्ली में रोज़गार पाते हैं। कुल मिलाकर देश में बेरोज़गारी का सवाल गंभीर है और आगे भी बना रहेगा।
जॉबलेस ग्रोथ
प्रो. अरुण कुमार जैसे बेबाक़ अर्थशास्त्रियों को अपवाद मानें तो अधिकतर अर्थशास्त्री यही कहते मिलेंगे कि गाड़ी पटरी पर आ गयी है, लेकिन इन पांच सालों के आंकडों को ही देखें तो पता चलता है कि देश में बेरोज़गारी की दर स्वीकृत दर से डेढ़ से पौने दो गुना अधिक रही है। यह आर्थिक व्यवस्था के वर्तमान ढांचे का नतीजा है। इस परिस्थिति में कोरोना हो या न हो, बेरोज़गारी बढ़ने ही वाली है। साम्यवादी या समाजवादी अर्थव्यवस्था इस संकट का विकल्प नहीं है। कल्याणकारी राज्य भी सम्मानजनक आजीविका दे पाने की स्थिति दे पाने में नहीं है। ये सभी प्रयोग हो चुके हैं और परिणाम आशाजनक नहीं रहा। राज्य लोगों को निरंतर रोज़गार नहीं दे सकता। दुनिया भर में आर्थिक नीतियां ऐसी ही रहने वाली हैं, जहां राज्य सीधा आर्थिक उत्पादन का काम नहीं करेगा और सेवाओं को भी अधिक से अधिक निजी क्षेत्र को सौंपता जायेगा। जिस आई टी टेकनोलॉजी या सूचना प्रौद्योगिकी के दम पर मानव समाज आज जिन्दा है, उसे नॉलेज इकोनोमी कहा जाता है। ‘जॉबलेस ग्रोथ’ तो आ ही चुका है, जहां देश का जीडीपी यानी सकल उत्पाद बढ़ता है, प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ती है, परंतु इस प्रक्रिया में श्रम का हिस्सा और श्रमिकों की हिस्सेदारी निरंतर घटती है। जिन वस्तुओं का हम रोजमर्रा के जिन्दगी में इस्तेमाल करते हैं, उनके निर्माण में श्रमिकों की जगह अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के द्वारा रोबोट बनेंगे, जो आदमी से अधिक कुशलता और कार्यक्षमता से उत्पादन करेंगे। उनके नियंत्रण और रखरखाव के लिए कुछ इंसान, जो सूचना टेक्नोलॉजी के जानकार होंगे, उन्हें लगाया जायेगा। थ्री डी प्रिंटर के आने से ऐसा आभास करवाया गया था कि अब उत्पादन का विकेंद्रीक्रण हो जायेगा, परंतु वहां भी एकाधिकार कॉर्पोरेट जगत का ही बना हुआ है। ऐसा आभास करवाया गया था कि आई टी आधारित नॉलेज इकॉनामी में सभी को मौका मिलेगा, क्योंकि हर नागरिक आई टी का उपयोग, स्थान और पूंजी निरपेक्ष तरीके से कर पायेगा, पर यह एक छलावा ही रहा। नॉलेज पर भी पूंजीपतियों और शासकों का एकाधिकार या अल्पाधिकार रहता ही है। यानी मुनाफा उन्हीं का बढ़ता है।
तानाशाही, इजाराशाही
एकॉनामिस्ट पत्रिका कहती है कि दुनिया की सरकारें हुक़्म चलाने वाली बनती जा रही हैं और कॉर्पोरेट, सरकारों पर अपना प्रभाव बढ़ा रहे हैं। कुल मिलाकर परिस्थिति यह है कि सरकारें तानाशाही की ओर मुड़ रही हैं और व्यापार-वाणिज्य इजाराशाही की ओर। कोरोना काल में अपने देश में बड़े उद्योगपतियों के मुनाफे बढ़े और छोटे व मझोले उद्योगों की हालत खस्ता हुई है, उनके यहां रोज़गार भी बहुत कम हुआ है। आने वाले समय में बढ़ती हुई युवा आबादी (16-45 आयु वर्ग), जिनसे पॉप्युलेशन डिविडेंड मिलना था, वह श्रम शक्ति समाज और देश पर बोझ बनेगी।
खतरे में खेती
अब सवाल यह कि बेरोज़गारी की समस्या दूर कैसे हो? पूंजीवाद, मुक्त बाज़ार, वैश्वीकरण, साम्यवाद और समाजवाद की व्यवस्थाओं के पास तो इसका कोई उपाय नहीं है। अगर जैसा चल रहा है, वैसा ही चलता रहा तो सरकार छोटे और मझोले कद के उद्योगों को प्रोत्साहन देने के लिए कर्ज़ पर ब्याज़ की दर कम् करेगी, यह अभी हो रहा है, पर उससे स्थिति में सुधार आया नहीं है। अमरीका सहित विकसित देशों में वहां की मुद्रा नियमन करने वाले सेंट्रल बैंकों ने ब्याज की दर बढ़ाना शुरू किया है, क्योंकि मुद्रास्फीति का डर सच हो रहा है। अपने देश में भी यही स्थिति आ सकती है, कीमतें बढ़ना शुरू हुई हैं। एक और मुद्दा गौरतलब है। आज नहीं तो कल इस देश की खेती भी बाज़ार के हवाले कर दी जायेगी, आगे भी उसके सघन प्रयास होंगे, सरकारें चाहें जिस पार्टी की आएं। आज की आर्थिक नीतियों के वातावरण में छोटे किसानों का कोई स्थान नहीं है। उनकी आय का दोगुना या तीन गुना होना तो दूर की बात, कुछ सालों में वे अपने खेत भी बड़े पूंजीपतियों को बेचते नज़र आयेंगे, चाहे ‘अच्छे दामों’ पर ही सही। इन पैसों से कुछ दिन जी लेंगे, परंतु उसके बाद उनका और उनके परिवार का भविष्य अंधेरे में होगा।
गांधियन मॉडल से बेरोजगारी का समाधान
बेरोज़गारी का मुद्दा कुछ समय की समस्या नहीं है। यह आर्थिक ढांचे का सवाल है। कृषि हो, औद्योगिक उत्पादन हो, आर्थिक या सशुल्क सामाजिक सेवाएं हों, उनका विकेंद्रीकरण करना ही होगा। कोरोना की एक सीख यह रही कि अगर औद्योगिक उत्पादन विकेंद्रित होता तो महामारी के समय हिजरत करने की नौबत नहीं आती। आज तक गांधीजी के अर्थव्यवस्था संबंधी विचारों को अनदेखा किया गया है। गांधीजी ने ग्राम स्वराज की जो परिकल्पना रखी है, उसके केंद्र में विकेंद्रित अर्थव्यवस्था ही है। इस दिशा में पहला कदम स्वदेशी और स्वावलंबन की ओर ले जायगा। सभी किसानों को पहले अपने और अपने पड़ोसियों के लिए अन्न पैदा करना होगा। रोटी, कपड़ा, मकान, आरोग्य, और शिक्षा, इन सभी क्षेत्रों में विकेंद्रित उत्पादन व्यवस्था खडी करनी होगी। यहां रोज़गार के अवसर बनेंगे, शिक्षा भी उसी ज्ञान और कौशल को पैदा करने के लिए दी जायगी, जिससे लोग स्वावलंबी बनें। कृषि आधारित कुटीर उद्योग गांवों में स्थापित करने होंगे और उन्हें बढावा देना होगा। इस व्यवस्था में समाज में जीने वालों की दो नैतिक जिम्मेवारी रहेगी। पहले वह अपने गांव या पड़ोस (यह पड़ोस 50 से 100 किमी का मानकर चलना होगा, क्योंकि अब यातायात के साधन उपलब्ध हैं), में पैदा हुई चीजों का इस्तेमाल करेगा। दूसरा वह अपनी भौतिक ज़रूरतों को सीमित करेगा। थोड़े में गुज़ारा करना होगा, यह मजबूरी नहीं, पर्यावरण के स्वास्थ्य के संदर्भ में भी ज़रूरी होगा। जे. सी. कुमारप्पा ने अच्छे से समझाया है कि प्रकृति की संचित संपदा का उपयोग कम से कम किया जाना चाहिए और प्रकृति जो नित्य नूतन जीने के संसाधन देती है – पानी, वनस्पति एवं पशु-प्राणी और खनिज, मनुष्य उनका सदुपयोग करेगा, तभी विकास संपोषित होगा। इन दोनों मनीषियों ने संपोषित विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) की बात समय से पहले कही थी, पर हम समझ नहीं पाये। ऐसा नहीं कि दूसरे उत्पादन नहीं होंगे और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार या आर्थिक व्यवहार नहीं होंगे, ये सब होंगे, परंतु उनकी प्राथमिकता दोयम दर्जे की रहेगी। यह यूटोपिया नहीं है। हरेक हाथ को काम और सम्मान की जिन्दगी अगर देनी है, तो देश को उस दिशा में ले जाना होगा।
-सुदर्शन आयंगार