दुनिया की कुल जनसंख्या में लगभग चार अरब लोगों को सामाजिक न्याय नहीं मिलता। टास्क फोर्स ऑफ जस्टिस की एक आख्या में यह भी खुलासा हुआ है कि दुनिया के दो तिहाई लोग न्याय से वंचित हैं। पढ़ें, यह विश्लेषण।
सामाजिक न्याय का विचार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मानव-समानता से जुड़ा हुआ है। सामाजिक न्याय की अवधारणा में यह बात प्रमुखता से उभरकर सामने आती है कि सभी जन, स्त्री या पुरुष, स्थान-क्षेत्र, वर्ग-जाति, लिंग, रंग-वर्ण अथवा भाषा आधारित किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना सामाजिक क्षेत्र में समान समझे जाएँ।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मानव-जीवन के सुचारु रूप से सञ्चालन में समाज की भूमिका निर्णायक है। सम्मानजनक जीवन और जीवन में उन्नति, निष्पक्ष और न्याय आधारित सामाजिक व्यवस्था पर निर्भर करती है। इसलिए सामाजिक न्याय का सिद्धान्त किसी न किसी रूप में जीवन के लिए आवश्यक मूलभूत सुविधाओं की सभी को प्राप्ति के साथ भी जुड़ा हुआ है। सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक क्षेत्र भी विशाल सामाजिक क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। इसलिए इन क्षेत्रों को भी सामाजिक न्याय सम्बन्धी विचारों और विश्व भर में इस हेतु प्रकट अवधारणाओं में किसी न किसी रूप में सम्मिलित किया जाता है। यही सामान्यतः सामाजिक न्याय से सम्बन्धित विचारों या का सार है।
अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की वर्ष 2020-22 की एक आख्या के अनुसार दुनिया की कुल जनसंख्या में लगभग चार अरब लोगों को सामाजिक न्याय नहीं मिलता। टास्क फोर्स ऑफ जस्टिस की एक आख्या में यह भी खुलासा हुआ है कि दुनिया के दो तिहाई लोग न्याय से वंचित हैं।
भारत में अन्याय से जुड़े तीन करोड़ से भी अधिक मामले न्यायालयों में विचाराधीन हैं। पचहत्तर हजार से अधिक मामले केवल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में पंजीकृत हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की एक आख्या के मुताबिक एक वर्ष में एक लाख से भी अधिक मामले पंजीकृत हुए। ऐसे मामलों में लगभग एक तिहाई दलितों से जुड़े थे। ये मामले हत्याओं, सामुदायिक झगड़ों, पारिवारिक वैमनस्य, दुराचार, कुरीतियों आदि से जुड़े थे।
तात्पर्य यह कि इस सम्बन्ध में भारत की स्थिति भी न्यूनाधिक एक-सी ही है। कुल मिलकर, सामाजिक न्याय का विषय एक ज्वलंत वैश्विक मुद्दा है। इसलिए अन्तर्राष्ट्रीय ध्यानाकर्षण का विषय भी है।
स्वतंत्रता, मानवाधिकारों और न्याय के लिए जीवन भर संघर्ष करने वाले महात्मा गाँधी जैसे मानवतावादी ने भी अपने जीवन के उद्देश्य के सार के सम्बन्ध में कहा था कि उनका मुख्य उद्देश्य सम्पूर्ण मानवता के लिए समान व्यवहार की स्थापना का प्रयास है और समान व्यवहार का अर्थ सेवा में समानता है।
समानता मानव-जीवन का सबसे मूल्यवान विषय है। जीवन के तीन अन्य अतिमहत्त्वपूर्ण पहलू, स्वतंत्रता, अधिकार और न्याय, इसी से सम्बद्ध हैं। चारों एक दूसरे से अभिन्नतः जुड़े हुए हैं, लेकिन सर्वप्रमुख समानता ही है। समानता, किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना समान रूप से प्राप्त स्वाभाविक अधिकार है।
सभी मनुष्य समान हैं। सभी एक स्रोत से निर्गत या उत्पन्न हैं। सभी एक ही अविभाज्य समग्रता का भाग हैं। इस सार्वभौमिक सत्य पर ऋग्वेद के हिरण्यगर्भ सूक्त के मंत्र और विज्ञान के ‘बिग बंग’ जैसे सिद्धान्त भी मुहर लगाते हैं। लेकिन, इस पर व्यवहार कदाचित् सबसे कठिन कार्य है।
मानव में विद्यमान हिंसाजन्य प्रवृत्तियाँ, स्वाभाविक सजातीय समानता के सिद्धान्त के उल्लंघन के साथ उसे अन्यों से अनाधिकार आगे निकलने के लिए उकसाती हैं। इसी कारण व्यक्तिगत रूप से और समूह में वह अन्यों से अधिक पाने की इच्छा करता है। इस हेतु व्यक्तिगत रूप से और समूह में सजातीयों के शोषण द्वारा भी वह अपनी समृद्धि और सुख का प्रयास करता है। यही व्यक्तिगत से लेकर वैश्विक स्तर तक समस्त समस्याओं का मूल है। यही असमानता, परतंत्रता, पर अधिकार हनन और अन्याय का कारण है।
शताब्दियों से जारी इस स्थिति का ही परिणाम है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकास के एक के बाद दूसरे कीर्तिमान स्थापित करने पर भी अरबों लोग अभी भी अन्याय के वशीभूत हैं। वे लोग न्याय की कोई सम्भावना नहीं देखते हैं, इसलिए इस हेतु कोई प्रयास भी नहीं करते हैं। करोड़ों शारीरिक दासता के शिकार हैं, राज्य विहीन भी हैं और कहीं के भी नहीं हैं।
सजातीय अन्याय को कैसे समाप्त करें अथवा इसे कैसे अधिकाधिक सम्भव न्यून स्तर पर लाएँ? हमारे समक्ष यही प्रश्न है। हम जानते हैं कि इस सम्बन्ध में अन्तर्राष्ट्रीय संगठन वैश्विक स्तर पर कार्य कर रहे हैं। वैधानिक उपायों और व्यवस्थाओं के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास हो रहे हैं। ये प्रयास अपने स्थान पर हैं। सभी स्वागत योग्य भी हैं। लेकिन इसी के साथ इस समस्या के समाधान के लिए कर्त्तव्यबद्ध नैतिकता पालन का वैधानिक उपायों और व्यवस्थाओं से भी अधिक महत्त्व है। अविभाज्य समग्रता की सत्यता मानव से कर्त्तव्यबद्ध नैतिकता के पालन की अपेक्षा करती है। सर्व कल्याण में ही निज-कल्याण की वास्तविकता को स्वीकारने का आह्वान करती है। समानता का सत्यमय सिद्धान्त भी इसी पर आधारित है। इसलिए कर्त्तव्यबद्ध नैतिकता को हल्के में न लेकर सजातीयों में इसके पालन हेतु जागृति के लिए ठोस प्रयास करना उन सभी का उत्तरदायित्व है, जो सामाजिक न्याय के लिए चिन्तित हैं और इस दिशा में कुछ करने की इच्छा रखते हैं।
समानता की वास्तविकता की अनुभूति और तदनुसार व्यवहार अविभाज्य समग्रता व सार्वभौमिक एकता की सत्यता का आह्वान है। मानव समानता से जुड़े सामाजिक न्याय के सिद्धान्त को स्वीकार कर इसी आह्वान की अनुभूति और आलिंगन द्वारा हम इसकी पुनरावृत्ति कर सकते हैं।
-डॉ रवीन्द्र कुमार