बापू! हमें माफ़ कर देना!

अगर गांधीवाद किसी गलत बात के लिए खड़ा है तो इसे ख़त्म कर दें। सत्य और अहिंसा कभी नष्ट नहीं होंगे; लेकिन अगर गांधीवाद संप्रदायवाद का दूसरा नाम है, तो यह ख़त्म होने लायक है। मेरी मौत के बाद अगर मुझे पता चला कि मैं जिसके लिए खड़ा था, वह संप्रदायवाद में पतित हो गया था, तो मुझे बहुत पीड़ा होगी।
– महात्मा गांधी, हरिजन, 2 मार्च, 1940

बापू ने कई संगठनों और संस्थानों की स्थापना की और उनमें उनकी विचारधारा के विभिन्न पहलुओं को विकसित और कार्यान्वित किया गया। यह सब दक्षिण अफ्रीका के नटाल कॉलोनी में डरबन के पास फीनिक्स में शुरू हुआ, जहां बापू ने अपना पहला आश्रम स्थापित किया था। यहीं पर बापू ने स्थायी, आत्मनिर्भर, सरल, मितव्ययी, सामुदायिक जीवन के अपने विचार को विकसित किया और सविनय अवज्ञा के अपने तरीके को और बेहतर बनाया। सत्याग्रह का जन्म यहीं हुआ था। यहीं पर उन्होंने अपने पहले साप्ताहिक समाचार पत्र ‘इंडियन ओपिनियन’ का संपादन और प्रकाशन किया, जो उस समुदाय के साथ संवाद का माध्यम था जिसके लिए वे काम कर रहे थे। बाद में उन्होंने जोहान्सबर्ग के पास अपने दोस्त हरमन कालेनबाख के स्वामित्व वाली भूमि पर एक अस्थायी आश्रम की स्थापना की। यह एक सत्याग्रह शिविर की तरह था और इसलिए उस सत्याग्रह के अंत में इसे भंग कर दिया गया था।

जब कस्तूरबा और बापू 1914 में दक्षिण अफ्रीका छोड़कर भारत आ गये तो फीनिक्स बस्ती, जो उनका पहला आश्रम था, यथावत बना रहा और लोगों ने वहां रहना और काम करना जारी रखा। समुदाय और आश्रम के प्रबंधन के लिए व्यक्तियों को नियुक्त करने और ‘इंडियन ओपिनियन’ को संपादित और प्रकाशित करने के प्रयासों के विफल होने के बाद, बापू ने अपने पुत्रों, पहले रामदास और फिर मेरे दादा मणिलाल को कार्यों के प्रबंधन के लिए भेजा। मणिलाल गाँधी अपनी पत्नी सुशीला को साथ ले गए और उनके तीन बच्चों का जन्म और पालन-पोषण वहीं हुआ। मणिलाल गांधी ने 1955 में अपने निधन तक फीनिक्स और ‘इंडियन ओपिनियन’ चलाया। फिर उनकी पत्नी, मेरी दादी सुशीला ने फीनिक्स का प्रबंधन किया और पांच साल तक ‘इंडियन ओपिनियन’ प्रकाशित किया।

यह एक ट्रस्ट था, लेकिन मणिलाल और बाद में सुशीला हमेशा शीर्ष पर रहे। उन्होंने इसे जुनून और प्रतिबद्धता के साथ किया। मेरी दादी तब भारत में थीं, जब रंगभेदी शासन ने नस्ली दंगे करवाए और आश्रम को नष्ट कर उस पर कब्जा कर लिया। उस दिन, मैंने अपनी दादी को जीने की इच्छा खोते देखा; उसकी आँखों की रोशनी चली गई। बाद में फीनिक्स के कुछ हिस्सों को फिर से बनाया गया, लेकिन तब तक मेरी दादी नहीं रहीं।

पहले मेरी बुआ इला के पति मेवालाल ने इस ट्रस्ट का नेतृत्व किया और उसके बाद इला ने खुद संभाला। आज वह अन्य ट्रस्टियों के साथ बहुत छोटे रह गये आश्रम का प्रबंधन करती हैं और आस पास के गरीब समुदाय के लाभ के लिए कुछ अद्भुत कार्यक्रम चलाती हैं। हमने बापू द्वारा खरीदी गई अधिकांश जमीन खो दी, लेकिन संस्था अभी भी बची हुई है और काम कर रही है। फीनिक्स में कोई लड़ाई, कोई प्रतिद्वंद्विता, कोई गुटबाज़ी नहीं है।

संस्थानों की विरासत
भारत वापस आने के बाद बापू ने अपना पहला आश्रम अहमदाबाद के उपनगर कोचरब में एक किराए के बंगले में स्थापित किया और एक समुदाय की भी स्थापना की, जिसमें उनके साथ फीनिक्स से वापस आए लोग और उनकी जीवन शैली को मानने वाले कुछ नए लोग शामिल थे। परिवार के कुछ सदस्य भी उनके साथ हो लिए। परेशानी तब शुरू हुई, जब उन्होंने अछूतों के एक परिवार को स्वीकार किया और आश्रम में कई लोगों ने विद्रोह कर दिया। उन्हें पड़ोसियों के बहिष्कार का भी सामना करना पड़ा।
बापू ने महसूस किया कि वे शहर में नहीं रह सकते और सामुदायिक जीवन में अपने प्रयोग नहीं कर सकते, इसलिए उन्होंने साबरमती के तट पर शहर से दूर जमीन खरीदी। यहां उन्होंने साबरमती आश्रम की स्थापना की। इसे कई बार अलग-अलग नामों से पुकारा जाता था: हरिजन आश्रम, सत्याग्रह आश्रम, फिर साबरमती आश्रम और अब गांधी आश्रम। बापू ने इसके प्रबंधन के लिए एक ट्रस्ट बनाया और यहीं से उन्होंने ‘नवजीवन’ की स्थापना की, जो शुरू में एक पत्रिका थी और बाद में उन्होंने जो कुछ भी लिखा, उसको प्रकाशित करने वाला प्रकाशन संस्थान बना। उन्होंने ग्राम सेवकों और सत्याग्रहियों को राष्ट्रवादी शिक्षा प्रदान करने के लिए एक विश्वविद्यालय, गुजरात विद्यापीठ की भी स्थापना की। उन्होंने अपने आश्रमों और आस-पड़ोस में बसे लोगों के बच्चों को शिक्षित करने के लिए एक प्राथमिक और उच्च विद्यालय की भी स्थापना की। उन्होंने इसे अछूतों के लिए खोल दिया, जिससे एक बार फिर उन्हें बहिष्कार का सामना करना पड़ा, लेकिन वे टस से मस नहीं हुए।

बापू के बनाये वे अधिकांश संगठन अभी चल रहे हैं। साबरमती आश्रम तब भी बना रहा, जब बापू ने 1930 में ऐतिहासिक दांडी मार्च के लिए आश्रम यह कहकर छोड़ दिया कि जबतक वह अपने लोगों के लिए स्वतंत्रता हासिल नहीं कर लेते, तब तक वापस नहीं आएंगे।

अहमदाबाद में बापू ने भारत के पहले संगठित श्रमिक संघ ‘मजूर महाजन’ की स्थापना की, जो शुरू में केवल कपड़ा श्रमिकों का था, लेकिन बाद में उसने सभी का प्रतिनिधित्व किया। यह संघ आज भी जीवित है, लेकिन सक्रिय नहीं है। एक ट्रस्ट है, जो मात्र अचल संपत्ति के संरक्षक के रूप में काबिज़ है।

साबरमती आश्रम छोड़ने के बाद, बापू ने वर्धा में सेवाग्राम आश्रम की स्थापना करने से पहले अंग्रेजों के कैदी के रूप में कई साल बिताए। यह आश्रम उनका और बा का अंतिम घर बना, उनकी विचारधारा का एक कामकाजी मॉडल बना, ग्राम स्वराज के उनके सपने के मुताबिक एक आत्मनिर्भर और उत्पादक गाँव बना। उन्होंने बुनियादी शिक्षा का अपना मॉडल ‘बुनियादी तालीम या नई तालीम’ यहाँ और कई अन्य संबद्ध आश्रमों में शुरू किया, उनमें से सभी महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। उन्होंने राष्ट्रभाषा प्रचार और हरिजन सेवक संघ जैसे संस्थानों की स्थापना की। उनकी हत्या के बाद उन अनेक संस्थाओं को एक में मिलाकर विनोबा ने सर्व सेवा संघ की स्थापना की।

भीतर की सड़ांध
मैं बापू द्वारा स्थापित संस्थाओं का यह इतिहास भारी मन से और इन संस्थाओं की वर्तमान स्थिति के कारण घोर निराशा के भाव से लिख रहा हूँ। बापू के जाने के बाद भी साबरमती आश्रम सक्रिय रहा। 1930 के बाद कई संस्थाओं का गठन किया गया और कई बार उन्हें आश्रम का प्रभार दिया गया, जिससे इस बात को लेकर भ्रम की स्थिति पैदा हो गई कि आश्रम का सही संरक्षक कौन था। बापू ने साबरमती आश्रम हरिजन सेवक संघ को सौंपा था, वही एकमात्र वैध संरक्षक होना चाहिए था, लेकिन हरिजन सेवक संघ खुद अव्यवस्थित है, गुटों में बंटा हुआ है, उससे जुड़े अधिकांश लोग या तो निष्क्रिय हैं या आपस में लड़ने में व्यस्त हैं। वर्तमान सरकार ने इसका फायदा उठाया है और साबरमती आश्रम को अपने कब्जे में लेने के कगार पर है। ट्रस्ट और उसके ट्रस्टी आपसी विवादों में इस कदर व्यस्त हैं कि एकजुट होकर विरोध भी नहीं कर पा रहे हैं।

नवजीवन तभी खो गया था, जब इसे एक परिवार की विरासत बनने की अनुमति दी गई थी। जितेंद्र देसाई ने लंबे समय तक नवजीवन का प्रबंधन किया, लेकिन अपने अंतिम वर्षों में उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उनके स्थान पर उनके बेटे को नियुक्त किया जाए। शीघ्र ही बापू द्वारा स्थापित एक और संस्था निजी जागीर बन गई। आज यह रीयल स्टेट का एक बेशकीमती टुकड़ा भर होकर रह गया है और इसके वर्तमान प्रमुख द्वारा इसका दोहन किया जा रहा है। बापू ने सस्ता साहित्य छापने और प्रकाशित करने के लिए नवजीवन की स्थापना की थी, लेकिन आज यहाँ महँगी और कॉफ़ी-टेबल पर पढ़ी जाने वाली किताबें छापी जा रही हैं, जिसका बापू की विरासत से कोई रिश्ता नहीं है। अब, साबरमती भी खतम होने के कगार पर है।

गुजरात विद्यापीठ अपनी आन्तरिक गुटबाजी और कुछ ट्रस्टियों के लालच के कारण खो गया। अब इसका नेतृत्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक विचारक कर रहे हैं, इसमें संघियों और उनके दोस्तों द्वारा पूरी तरह से घुसपैठ कर ली गई है।

गांधी स्मारक निधि गुटों से भरी हुई है। यह संस्थान अपने ही उन अधिकांश क्षेत्रीय राज्य संस्थानों के साथ मुक़दमे लड़ रहा है, जो मूल संस्थान से इसलिए अलग रखे गये थे, ताकि गांधी विरासत की बेहतर देखभाल और प्रचार हो सके तथा संस्थान का विकेन्द्रित स्वरूप निखर सके। दिल्ली में राजघाट और गांधी स्मृति पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में हैं और गांधी की विरासत से बहुत दूर चले गये हैं। दिल्ली में गांधी पीस फाउंडेशन भी आपसी गुटबाजी से ग्रस्त है।

सेवाग्राम की त्रासदी
इस बीच, सेवाग्राम आश्रम भी प्रतिद्वंद्वियों का अड्डा बना हुआ है। मुझे कुछ साल पहले इसकी स्थापना के 75 वें वर्षगांठ समारोह का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया गया था। जब मैं समारोह की पूर्वसंध्या पर सेवाग्राम पहुंचा, तो वहां ‘गांधीवादियों’ की भरमार थी।

                                                                                        सेवाग्राम आश्रम

उनके स्वागत से मैं शॉक में था; मिनटों के भीतर मैं इन गांधीवादियों के अनेक समूहों से घिर गया, सभी सेवाग्राम के सच्चे संरक्षक और उत्तराधिकारी होने का दावा कर रहे थे। प्रत्येक समूह ने आश्रम के एक हिस्से को अपने नियन्त्रण में ले रखा है और हरेक सेवाग्राम का वैध दावेदार होने का दावा कर रहा है। प्रत्येक समूह ने जोर देकर कहा कि अगले दिन मैं उस उत्सव में भाग लूं, जिसकी वे मेजबानी कर रहे हैं। अगले दिन सुबह से ही मुझे आश्रम के अलग-अलग हिस्सों के संरक्षकों के साथ वर्षगांठ मनाने के लिए एक कोने से दूसरे कोने तक घसीटा जाने लगा। प्रत्येक स्थान पर, एक गुट दूसरे गुट के लोगों के साथ बुरा व्यवहार करता था, उन्हें गाली देता था और उन पर धोखेबाज़ी और हड़पने का आरोप लगाता था। मुझे कम से कम आठ ऐसी जगहों पर घसीटा गया।
घृणा और जहर भरा यह वातावरण बेहद भयावह और उकसाने वाला था। उस शाम, मैंने समारोह में कहा था कि यह शर्मनाक है और अगर कोई यहाँ इकट्ठा हुए लोगों के बीच हथियार बाँट दे, तो खूनखराबा हो जाये। मैंने जो कहा वह किसी को पसंद नहीं आया, लेकिन मैंने इस बात की रत्ती भर परवाह नहीं की। उन्हें सच सुनना ही पड़ा। उस दिन सेवाग्राम को शर्मनाक घटनाओं का साक्षी होना पड़ा; हिंसक होने के कगार पर पहुंची एक बैठक को शांत करने के लिए पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा था; विभिन्न गुटों ने एक दूसरे के खिलाफ पुलिस में शिकायतें तक दर्ज करायीं।

गांधीवादी संगठनों के भीतर दूषित राजनीति ने प्रवेश कर लिया है। एक भी संगठन आपसी विवाद या गुटवादी संघर्ष से अछूता नहीं है। बापू को इसका मलाल होता। अभी-अभी बापू की पुण्यतिथि बीती है, मैं यह सोचे बिना नहीं रह पा रहा हूँ कि नाथूराम गोडसे द्वारा चलाई गई तीन गोलियों ने उन्हें उतनी पीड़ा नहीं पहुंचाई होगी, जितनी इन तथाकथित गांधीवादियों द्वारा बार-बार उनके आदर्शों के साथ विश्वासघात और उनकी विचारधारा के साथ भ्रष्टाचार से पहुंचती होगी। बापू हमें माफ कर देना, हम आपकी विरासत की हत्या कर रहे हैं।

-तुषार गाँधी

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