सेंसेटिव लोगों की फजीहत है

सवाल गोहत्या बंदी का

जनता गाय के नाम पर हिन्दू-मुस्लिम बनकर लड़ती रहे और कमजोर बनी रहे, इसी में राजनैतिक नेताओं और उद्योगपतियों की भलाई छिपी है। हिन्दुस्तान की जनता जब तक एकजुट नहीं होगी, तब तक गाय का प्रश्न इसी तरह उलझा रहेगा।

बात उस समय की है जब मैं जंतर-मंतर, नई दिल्ली में बीस माह से गोरक्षा सत्याग्रह कर रहा था। मेरे गोरक्षा कैंप के बगल में ही संत गोपालदास का गोरक्षा कैंप था। संत गोपालदास हरियाणा के प्रसिद्ध संत हैं। गोरक्षा के लिए उनका सारा जीवन ही समर्पित है। उनके सत्याग्रह स्थल पर गाय-बैल और मवेशियों का डॉक्टर एम्बुलेंस के साथ उपस्थित रहा करता है।

एक दिन वे मेरे सत्याग्रह शिविर में आकर मेरे पास बैठे। उन्होंने मुझसे पूछा, ‘गाय के प्रश्न को मीडिया हाइलाइट क्यों नहीं करता?’ मैंने उनसे प्रतिप्रश्न पूछा, ‘गाय को आप धार्मिक प्रश्न मानते हैं?’ उन्होंने कहा, बिल्कुल मानता हूँ। मैंने उनसे कहा, गाय का प्रश्न मूलत: आर्थिक प्रश्न है। उसे सांप्रदायिक प्रश्न बनाया गया है। उन्होंने पूछा, कैसे? मैंने उनसे कहा कि मुझे सिर्फ पांच मिनट का समय दीजिये। मैं आपको आपके प्रश्न का उत्तर देता हूं। उन्होंने मुझसे कहा, ‘पांच मिनट क्यों, मैं आपको पचास मिनट का समय देता हूं।’

मैंने उनसे कहा कि अगर इस देश में गोरक्षा का कानून बन जाता है, तब हर घर में दूध-दही मिलेगा, लोग उसे खायेंगे, लोगों का स्वास्थ्य मजबूत होगा और लोग बीमार नहीं पड़ेंगे। उन्होंने मुझसे कहा कि आपने बिल्कुल सही फरमाया। मैंने उनसे पूछा, ‘तब दवा कंपनियों की दवाएं कैसे बिकेंगी?’ मेरे प्रश्न के उत्तर में वे मेरा मुंह देखने लगे।

मैंने उनसे पुन: पूछा कि अगर हर घर में गाय-बैल होगा तब हर घर में गोबर होगा। उस गोबर को खेत में ही डालेंगे न। उन्होंने हाँ में सर हिलाया। मैंने उनसे पूछा, ‘तब किसी खास कंपनी का खाद कैसे बिकेगी?

मैंने उनसे फिर पूछा, ‘जब आप पशुओं का गोबर खेत में डालेंगे, तो अनाज के दाने पुष्ट होंगे। उस समय आप सोचेंगे कि खेती में कम लागत खर्च हो और अपने खेत के पुष्ट दाने को बीज के रूप में इस्तेमाल करेंगे। ऐसी परिस्थिति में बीज कंपनी का बीज कैसे बिकेगा?

मैंने यह भी कहा कि जब आप गाय का गोबर अपने खेत में डालेंगे तो फसलें बीमार नहीं होंगी। उस समय दवा कंपनियों की पेस्टीसाइड कैसे बिकेगी?

मैंने उनसे फिर कहा कि गाय का प्रश्न सीधे तौर पर खेती से जुड़ा हुआ है। इससे उद्योगपतियों का अरबों-खरबों रुपये का हानि-लाभ जुड़ा हुआ है। गाय शुद्ध तौर पर आर्थिक प्रश्न है। मीडिया भी उन्हीं लोगों का है। वे गाय के प्रश्न को हाइलाइट करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों चलायेंगे?

मैंने उनसे यह भी कहा कि सरकार भी उन्हीं के पैसे से चलती है। भारत सरकार को मिलने वाले कुल राजस्व का मात्र 13 प्रतिशत किसानों से प्राप्त होता है, वहीं 87 प्रतिशत राजस्व उद्योगपतियों से मिलता है। मेरे कहने का मतलब यह है कि सरकार पर आर्थिक नियंत्रण भी उन्हीं का है। इसके अलावा चुनाव के वक्त उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिए पैसा उद्योगपति ही उपलब्ध कराता है। वह पांच साल तक देश की सभी राजनैतिक पार्टियों को पालता भी है। इस तरह वर्तमान लोकतंत्र में संसद अघोषित तौर पर उद्योगपतियों का गुलाम बन जाती है। इस प्रकार गोवंश हत्याबंदी का प्रश्न आर्थिक और राजनीतिक पेंच में फंसा हुआ है। लेकिन मंदिर बनाने में इस तरह की कोई उलझन नहीं है, इसलिए मंदिर बनाना आसान है। जन प्रतिनिधि अर्थात राजनैतिक नेता बेहद बुद्धिमान होते हैं। वे अपनी ताकत की सीमा समझते हैं, परंतु वे अपनी ताकत की सीमा को कबूल नहीं करना चाहते। अगर वे ऐसा करते हैं, तो उनके मार्ग में कई कठिनाइयां खड़ी हो जायेगी। इसलिए, उन लोगों ने गाय के प्रश्न को सांप्रदायिक प्रश्न बना डाला है। जनता गाय के नाम पर हिन्दू-मुस्लिम बनकर लड़ती रहे और कमजोर बनी रहे, इसी में राजनैतिक नेताओं और उद्योगपतियों की भलाई छिपी है। हिन्दुस्तान की जनता जब तक एकजुट नहीं होगी, तब तक गाय का प्रश्न इसी तरह उलझा रहेगा।
इतना कहकर मैंने उनकी तरफ देखा। संत गोपाल दास बोले, ‘तब तो इसमें सेंसेटिव लोगों की फजीहत है। इतना कहकर संत गोपालदास चले गये।

-सतीश नारायण

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