25 जून 1975 को जेपी का ऐतिहासिक भाषण
वर्तमान को समझने के लिए इतिहास को समझना ज़रूरी
25 जून 1975 को देर शाम दिल्ली स्थित रामलीला मैदान में विपक्षी दलों की एक रैली हुई थी, जिसे लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने सम्बोधित किया था. जेपी ने देश की जनता को लोकतंत्र और उसकी महत्वपूर्ण संस्थाओं पर ख़तरे से आगाह किया था. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कुछ ही घंटे बाद आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया. रातोंरात जेपी समेत सभी आंदोलनकारी नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया. दिल्ली के अख़बारों की बिजली काट दी गयी. सेंशरशिप लागू कर दी गयी. जय प्रकाश का यह पूरा भाषण एक तरह से अप्रकाशित ही रहा. वास्तव में यह भाषण से अधिक आम नागरिकों के लिए साफ़ सुथरी राजनीति और लोकतंत्र की शिक्षा का महत्वपूर्ण पाठ है, जो हमेशा प्रासंगिक रहेगा.यह भाषण लगभग दस हज़ार शब्दों का है, ये उसके मुख्य अंश हैं.
भारत तानाशाही कबूल नहीं करेगा
छोटा-सा प्रस्ताव भी न छप सका
दु:ख की बात है कि कल का प्रस्ताव जो महत्वपूर्ण प्रस्ताव था, जिसे विरोधी दलों की कार्यकारिणी समितियों ने मिलकर पास किया था, बहुत बड़ा प्रस्ताव भी नहीं था वह, परन्तु जो अंग्रेज़ी के अखबार यहां से निकलते हैं, उनमें वह नहीं आया। हिन्दुस्तान टाइम्स में और मदरलैंड में पूरा प्रस्ताव छपा। क्या कारण हुआ, मैं नहीं कह सकता हूँ, लेकिन मैं यह शिकायत करना चाहता हूँ । यह लोकतंत्र है, इतना महत्वपूर्ण प्रश्न देश के सामने उपस्थित है, ऑल इंडिया रेडियो और टेलीविजन पर स्वयं प्रधानमंत्री भी ऐसी बातें कर रही हैं, जिनसे जनता का ध्यान मुख्य प्रश्न से हटकर दूसरी तरफ चला जाए। जनता को उनकी तरफ से भ्रम में भी डाला जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में कम से कम इतना तो होना चाहिए था कि उस छोटे से प्रस्ताव का पूरा मजमून हर समाचार पत्र में छपता। मालूम नहीं कि देश में हिन्दी में जो और अखबार छपते हैं, उनमें यह प्रस्ताव पूरा छपा या नहीं. यह एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव है, उसमें सारी बातें कहीं गयी हैं। उन्हीं बातों को समझाने मात्र के लिए मैं आपके सामने आया हूं। जितना व्यापक प्रचार हो सके, उतना करना चाहिए। पांच विरोधी दल, उनकी संख्या लोकसभा में या राज्य सभा में शासक दल के मुकाबले कम हो सकती है, लेकिन पिछले लोकसभा के चुनाव में इन दलों को जिन लोगों ने वोट दिया था, अगर आप उनकी संख्या जोड़ें, तो शासक दल को जितने वोट मिले, इन्हें मिलने वाले वोट उससे कम नहीं होंगे। इसलिए जनता क्या चाहती है, अखबारों में यह छपना चाहिए। ये जनता के प्रतिनिधि लोग हैं, ये पार्टियां उनका प्रतिनिधित्व करती हैं। अब भी समय है। कम से कम इस प्रस्ताव का हिन्दी, उर्दू में तरजुमा करके लाखों का तादाद में बांटा जाये, जिसे लोग पढ़ें। बात समझने में बहुत आसान है।
लोकतंत्र बिल्कुल समाप्त होने का खतरा
मित्रों, यह मजाक करने की बात नहीं है, किसी की खिल्ली उड़ाने की बात नहीं है और न किसी को बहुत जोश दिलाने की बात है। इस वक्त होश का काम है। भारत में शंका की परिस्थितियां पैदा हुई हैं। जब से लोकतंत्र की स्थापना हुई, उसके बाद पहली बार ऐसी शंका का मौका आया है. खतरा इस बात का है कि शायद हमारा लोकतन्त्र बिल्कुल ही मिट जाए। प्रचार-प्रसार के सब साधन शासन के हाथ में हैं। देहातों में जहां पढ़े-लिखे लोग कम हैं, वहां आज भी लोग रेडियो सुनते हैं। रेडियो झूठ बोलता है। रेडियो इतना झूठ बोल रहा है, एकपक्षीय समाचार दे रहा है, टिप्पणियां कर रहा है, भाषण दिलवा रहा है, यह ठीक नहीं है। यह सारा काम जनता के रुपयों से होता है, रेडियो को बन्द कराना चाहिए या इन नीतियों में परिवर्तन करना चाहिए। क्या यह सम्भव नहीं है कि चुनौती दे दी जाये कि रेडियो और टेलीविजन की यह पॉलिसी बंद हो, नहीं तो हम आपकी चलने नहीं देंगे? आज मैं आपका ध्यान भी आकर्षित करा रहा हूं कि क्या आप एकांगी, एकपक्षीय, एकतरफा खबरें सुनते रहेंगे? आप तो पढ़े-लिखे लोग हैं, ज़्यादातर मध्यम वर्ग के लोग ही आये हैं इस सभा में। मेरी ये बातें देहातों तक पहुंचनी चाहिए, लेकिन पहुंचाने वाले तो वही हैं। इनफार्मेंशन ब्राडकास्टिंग मिनिस्टर गुजराल साहब हैं न ? (श्रोता: हां गुजराल साहब हैं) – तो गुजराल साहब का घेराव करना चाहिए कि ये नीतियां बदलनी चाहिए अब। आखिर लोकतंत्र कैसे चलेगा?
बेमतलब की रैलियां
मित्रों! दो दिन पहले जो सभा हुई थी, उसमें जो भाषण दिये गए होंगे, उनकी रिपोर्ट तो मैंने नहीं पढ़ी, लेकिन जो भाषण दिये होंगे, उनमें मैं समझता हूं कि यह कहा गया होगा कि औपचारिकता और नैतिकता की दृष्टि से भी यह आवश्यक था कि जब हाईकोर्ट का फैसला हुआ, अगर उसके तुरन्त बाद ही प्रधानमंत्री अपना इस्तीफा दे देतीं तो उनकी इज्जत बढ़ती, लेकिन डर तो यह है कि- मैं जानता हूँ- एक बार वे गद्दी से हट जायेंगी तो वह गद्दी फिर उनको मिलेगी नहीं, हालांकि रोज प्रस्ताव पास हो रहे हैं कि इन पर हमारा अटूट विश्वास है वगैरह-वगैरह। यह भी उन्हीं के हलकों से मैं सुनता हूँ। तो प्रोप्राइटी और मारैलिटी इन दो बातों के आधार पर उनको चाहिए था कि वे इस्तीफा दे देतीं।
लोकतंत्र और भारत के भविष्य के लिए यह बहुत गलत काम हुआ, यह बहुत खतरे की बात है और ऐसी बात है कि जिसको बराबर दोहराने की जरूरत है। उस दिन भी कहा गया होगा कि यह बहुत खतरे की बात है कि प्रदर्शन कराये जायें, मीटिंग करायी जाये, रैली करायी जाये और उसमें प्रस्ताव पास किया जाये, तरह-तरह से बसें जुटायी जायें. आप यह सब जानते हैं कि किस प्रकार से लोगों को हजारों की तादाद में बुलाया गया, प्रस्ताव पास किया गया कि आप इस्तीफा मत दीजिये। आपके बगैर देश का कोई काम नहीं होगा। इससे कानून का कोई मतलब नहीं था।
ये लोकतंत्र के तरीके नहीं हैं
आप जानते हैं कि लोकतंत्र में राज्य के तीन अंग हैं। एक तो लेजिस्लेचर है, दूसरा कार्यकारिणी है और तीसरा ज्यूडिशियरी है- यानी कानून बनाने वाले हैं, क़ानून की रक्षा करने वाले है, क़ानून का इन्टेरप्रिटेशन करने वाले हैं। अब अगर डेमोक्रेसी है और कोर्ट में फैसला हुआ है तो उस फैसले को बदलने का अधिकार जनता को नहीं है, भले ही जैसे-तैसे लाये हुए लाखों लोग आकर कहें कि हमें आप पर विश्वास है. राजनारायण जी के मुकदमे में यही न फैसला हुआ कि कम-से-कम दो मामलों में उन्होंने भ्रष्टाचरण किया है? अब ये गोखले साहब लॉ मिनिस्टर हैं। खुद भी एक वकील हैं। अब वे कह रहे हैं कि ऐसा नहीं लिखा गया है जजमेंट में। ज्यादा संगीन भ्रष्टाचार के आक्षेप इनके ऊपर नहीं हैं। आप बहुत बड़े बहुमत से जीते हैं, लेकिन अगर एक वोटर को भी गलत तरीके से वोट दिलाने के लिए लाये थे- एक वोटर को भी, तो सारा इलेक्शन रद्द हो जायेगा। तो इसमें सवाल नहीं होता है कि कसूर कितना बड़ा था या कितना छोटा था। छोटा-बड़ा कसूर सब एक ही है। अगर कोई एक काम भी करप्ट साबित हो गया तो इलेक्शन रद्द हो जायेगा, छः वर्ष के लिए डिसक्वालीफाइड हो जायेगा वह उम्मीदवार, जैसे प्राइम मिनिस्टर हो गई हैं। अब यह लोग देश में भ्रम फैलाते हैं। गोखले साहब की बातें रेडियो और टेलीविजन में जायेंगी, हमारी बात तो आने नहीं देंगे ये लोग। ये दिल्ली वाले लोग तो छापेंगे नहीं हमारी बात। इस तरह से भ्रम में डालने से लोकतंत्र चलता नहीं है। ये लोग फासिस्टवाद के तरीके अख्तियार कर रहे हैं। ये लोकतंत्र के तरीके नहीं हैं। न्यायालय के सामने भीड़ इकट्ठा कर लेना कि तुम्हारा फैसला गलत है। इसको वापिस लो, यही न मतलब हुआ? पता नहीं कौन सा कारण रहा कि स्टे आर्डर मिल गया उनको।
यह अफसोस की बात है। कल पार्लियामेंटरी बोर्ड में जगजीवन बाबू, चव्हाण साहब नहीं कह सकते थे कि हमारा पूर्ण विश्वास है आप में, हम आपका नेतृत्व चाहते हैं, लेकिन इस जजमेंट के बाद भी पद पर बने रहना देश के हित में नहीं होगा, कांग्रेस के हित में नहीं होगा, कांग्रेस चुनाव नहीं जीत सकेगी, देश कमजोर बनेगा। देश का प्रधानमंत्री इतनी कमजोर परिस्थिति में देश का नेतृत्व कैसे कर सकेगा? इन लोगों को कहना चाहिए था कि आपके ऊपर कोई अविश्वास की बात नहीं है, लेकिन हमारी सलाह है कि देश के हित में, कांग्रेस के हित में, लोकतंत्र के जो नैतिक आचार हैं, उनके हित में आप पद छोड़ दें। जस्टिस कृष्णा अय्यर ने भी कहा है कि लोकतंत्र के जो मूल्य होते हैं, उनका एक महत्व होता है, लेकिन उस पर विचार करना कोर्ट रूम का अधिकार नहीं है। यह उसके बाहर का अधिकार है। एक तरह से उन्होंने कांग्रेस से यह कहा कि आप लोग विचार कीजिए उस पर।
यह बात जनता को समझाने की जरूरत है. वे कहती है कि ये सब रिएक्शनरी लोग हैं, दक्षिणपंथी लोग हैं, ये सब प्रगति के विरोधी लोग हैं, बदलना नहीं चाहते हैं, इसी समाज को कायम रखना चाहते हैं, जिसमें गैर बराबरी है, जिसमें शोषण है, जिसमें सारे अन्याय हैं। लेकिन मैं इस समाज को बदलना चाहती हूं। यह बराबर वे कहती हैं। जनता को भ्रम में डालती हैं।
लोकतंत्र में परंपराओं का बहुत महत्व होता है
प्रधानमंत्री के ऐसे आचरण पर केवल औचित्य और नैतिकता का सवाल नहीं है, प्रोप्राइटी और मोरैलिटी की बात नहीं है, एक पोलिटिकल बात भी है. हमारे लिए, किसी भी पार्टी के लिए, किसी भी देश के लिए ऐसा प्रधानमंत्री नहीं होना चाहिए, जिसके हाथ पैर इस प्रकार से बंधे हों कि उसकी बात पर हाईकोर्ट तक ने विश्वास न किया हो, भ्रष्टाचार के दाग लगे हुए हों। सुप्रीम कोर्ट के बारे में मेरे जैसा व्यक्ति कुछ कहे, यह ठीक नहीं है। लेकिन एक बात मैं जरूर कहना चाहता हूं कि आज से कुछ बरस पहले तक जो कन्वेन्शन रहा और कन्वेन्शन क्या रहा, एक परंपरा बनी रही कि जो सीनियर मोस्ट जज होगा, वही चीफ जस्टिस हुआ करेगा। यह एक नियम था। अब प्रधानमंत्री का कहना है कि इस सीनियारिटी की बात में ऐसी कोई धर्म और पवित्रता की बात नहीं है कि इसके अलावा कोई और बात नहीं हो सकती। तो ठीक है यही बात मान ली जाय, लेकिन कोई तो तरीका होना चाहिए। भारत के चीफ जस्टिस की नियुक्ति किस प्रकार हो? आज जो कानून की स्थिति है, उसके मुताबिक भारत का चीफ जस्टिस का नाम तय करने का अधिकार प्रधानमंत्री को ही है, तो हमने एक छोटी सी बात कही कि एक पार्लियामेंटरी कमेटी बना दो. आपकी ही पार्टी का दो तिहाई बहुमत है, उसमें विचार करो कि क्या नियम होने चाहिए, क्या रेग्युलेशन्स होना चाहिए, किन से राय लेनी चाहिए और क्या-क्या होना चाहिए, इससे पहले कि राष्ट्रपति चीफ जस्टिस की नियुक्ति करें। आज भी राष्ट्रपति ही नियुक्त करते हैं। लेकिन अधिकार केवल प्रधानमंत्री को है। कोई अंकुश उनके ऊपर नहीं है।
जब राजेन्द्र बाबू राष्ट्रपति थे। हिन्दू कोड बिल के ऊपर चाहते थे कि वे अपनी राय लिखकर सीधे पार्लियामेंट के मेंबरों के पास भेजें। उनको सलाह दी गयी की राष्ट्रपति को यह करना हो तो कैबिनेट की मार्फत करना चाहिए, कैबिनेट अगर मंजूर करेगा कि राष्ट्रपति के विचारों को भेजा जाय, पार्लियामेंट के मेंबरों में प्रसारित किया जाय, तभी यह होगा। यह कन्वेन्शन्स है तो राजेन्द्र बाबू ने कहा कि ठीक है, अगर यह कन्वेन्शन बन गया है तो मुझे मान्य है। कन्वेन्शन जो होता है, वह कोई छोटी बात नहीं होती, वह लॉ होता है, कानून होता है। अब चूंकि प्रधानमन्त्री ने कई जजों को पार करकेउनको चीफ जस्टिस बनाया, तो लोगों के मन में होगा कि यह तो प्रधानमन्त्री से ओब्लाइज्ड हो गए हैं,इसलिए अगर वे सही भी कहेंगे तो उन पर अविश्वास होगा, इसलिए यह उनके हित में नहीं है और न्याय के हित में नहीं है, यह मुकदमा उनको दूसरे जजों को देना चाहिए।
सत्ता के लोग सोचें
लोकतंत्र में देश का हित ही नैतिकता का आधार है, जो लोकतांत्रिक मूल्य हैं, उनकी रक्षा हो। जो लॉ है, उससे कहीं ज्यादा महत्व हैं इन मूल्यों का, क्योंकि बिना सामाजिक मूल्यों के कोई भी लोकतंत्र नहीं चल सकता, कोई समाज नहीं चल सकता। इसलिए सत्ता के लोगों से मेरी अपील है कि इस क्राइसिस के मौके पर टिकट मिलेगा कि नहीं, हम कैबिनेट में रहेंगे कि नहीं, अगर यही बात आप सोचेंगे तो आप देश के प्रतिनिधि नहीं हैं, आपको इस्तीफा देना चाहिए और जनता को इसकी मांग करनी चाहिए। आपसे आपके हित के प्रति, एक मित्र के नाते मेरा निवेदन है कि अपनी रक्षा कीजिए। ये पैसा देकर, ट्रकों पर बैठाकर, ये कारखाने बंद कराकर जिन लोगों को यहां ले आते हैं और वे जो बात कहते हैं, उनको छोड़ दीजिये. इस सब की जो प्रतिक्रिया हुई, गांव-गांव में हुई, उसकी खबर है मुझको। उसके बाद अगर ये लोग समझते हैं कि हमको टिकट नहीं मिलेगा तो हमारे लिए कोई रास्ता नहीं होगा, टिकट मिलेगा तो हम जरूर जीत जायेंगे. अब हालत यह है कि टिकट मिलेगा तब भी शायद हार जायेंगे यह लोग। इसलिए राजनीतिक लोगों को फिर से विचार करना चाहिए कि सामने आकर काम करें, तब उनकी जितनी प्रशंसा की जाय वह थोड़ी होगी।
फासिज्म का एक ही जवाब है, जागृत जनमत
एक जनरल परपपेज पार्लियामेंटरी कमेटी बनी थी, उसी कमेटी ने यह सिफारिश की कि लोकसभा का एक मानसून सत्र भी होना चाहिए। शायद 55 या 56 की बात है, पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे उस जमाने में। कैबिनेट ने इसका प्रस्ताव किया। उसके बाद बराबर बीस वर्षों से 55 से लेकर अबतक यह चला आ रहा है। एक लंबी परम्परा रही है।
अब चूंकि प्रधानमन्त्री को सदन में वोट देने का अधिकार भी नहीं है, पार्लियामेंट के मेंबर की हैसियत से करीब-करीब सब अधिकार खत्म हैं, मंत्री का है। प्रधानमंत्री को सत्र का सामना करने से डर लगता है, इसलिए बरसात का सेशन नहीं हो रहा है। अब यह भी एक कन्वेशन जो बना बनाया है, वह भी तोड़ा जायेगा. हम कदम-कदम फासिज्म की तरफ जा रहे हैं। इसका जवाब क्या है? फासिज्म का एक ही जवाब है- देश का जागृत जनमत, देश की जनता, देश के जवान, किसान, मजदूर, मध्यम वर्ग के लोग; सब कहें कि हम फासिज्म को कभी सफल नहीं होने देंगे। अपने देश में, फासिस्टवाद, डिक्टेटरशिप, तानाशाही कबूल नहीं करेंगे। हम चलायेंगे अपनी हुकूमत. यह कोई बांग्लादेश नहीं है, यह कोई पाकिस्तान नहीं है, यह भारत है। यह भारत की पुरानी परंपरा है। हजारों साल पहले इस देश में जनपद थे। वह पुरानी परम्परा है हमारी। गांव-गांव में गांव की पंचायतें थीं। पठानों के जमाने में, मुगलों के जमाने में, पेशवाओं के जमाने में, मराठों के जमाने में हमारे गाँव राज करते थे। अंग्रेजों ने उनको तोड़ा, जानबूझकर तोड़ा क्योंकि ये जड़ की चीजें हैं, ग्रासरूट्स हैं, अंगेजों को लगा कि अगर ये जड़ें मजबूत रहेंगी तो हमारी जड़ें मजबूत नहीं हो सकती हैं। यह इस देश की पुरानी परम्परा रही है। यह बांग्लादेश में भी रही है और पाकिस्तान में भी रही है।
गांधीजी बराबर कहते थे, स्वराज का मतलब ग्रामराज! स्वराज होगा तो गांव में, गांव वालों का राज होगा, गांव-गांव में ऐसा राज्य होगा, मोहल्ले-मोहल्ले में ऐसा राज्य होगा। जनता स्वंय अपना राज्य चलायेगी। जो काम वह स्वंय नहीं कर सकती, उसे करने के लिए अपने प्रतिनिधियों को सौपेंगी। यह जो हमारी डेमोक्रेसी की परंपरा है, लोकतंत्र की परंपरा है, आज उसके लिए खतरा है। आप खुद देखिए, किस प्रकार धीरे-धीरे देश को फासिस्टवाद की तरफ जा रहे हैं। किस तरह से अपने देश में जो लेजिस्लेचर है, जो विधानसभाएं, धारा सभाएं हैं, उनकी शक्तियों को कुंठित किया जा रहा है। बिहार में आर्डिनेन्स राज चलता है, ज्यादातर आर्डिनेन्स से ही काम होता है। किस प्रकार जजों पर, कोर्ट्स पर दबाव डालकर मन का काम कराना चाहते हैं। यह सब लोकतंत्र को कमजोर करके, फासिज्म की तरफ आगे बढ़ने का उपाय हो रहा है। अगर लोकसभा का मानसून सत्र नहीं बुलायेंगे तो यह भी लोकतंत्र के ऊपर कुठाराघात होगा। यह आपको मंजूर नहीं करना है। उसके बाद क्या-क्या होगा, देखा जाएगा। मैं नहीं समझता हूं कि इस देश में यह संभव है कि कोई इस देश में अपनी तानाशाही कायम करे। यह संभव ही नहीं है। न यहां कोई मुजीबुर्रहमान हो सकता है, न अयूबखां या याह्या खां हो सकता है। यह वह देश नहीं है।
प्रचार अभियान चलाना होगा
एक तो इन परिस्थितियों का देश भर में प्रचार करना है, लोगों को समझाना है। जुबानी प्रचार करना पड़ेगा, सभाएं करनी पड़ेंगी, हजारों या लाखों सभाएं करनी पड़ेंगी देश भर में और यहां से इसका ऐलान होना चाहिए कि सभाओं में क्या बोला जाय। दिल्ली में रहकर प्रचार नहीं होगा, देहातों में प्रचार होना चाहिए। देहातों में लोग कम जाते हैं। जितने लड़के लोग हैं, युवा लोग हैं, सब लोग जाओ, देहातों में घूमो, प्रचार करो, लोगों को समझाओ। जनता की बुद्धि पर विश्वास करो। ऐसा मत समझो कि यह बात जनता नहीं समझती। इसलिए इधर उधर से काम नहीं चलेगा। उससे लोक शिक्षण नहीं होगा। हमारा लोकतंत्र पुष्ट नहीं होगा। जब उसी वोटर के सामने सवाल आएगा कि वोट इसको दें या उसको दें तो फिर वह भ्रम में पड़ जाएगा. इसलिए मुद्दोंको समझाना होगा। ‘इश्यूज बिल्कुल साफ हैं, प्रश्न बिल्कुल साफ हैं। अब जो लोग उनको गुमराह कर रहे हैं, इनको हमें दबाना होगा। यह जो बादल फैल रहे हैं, उस धुँध को साफ करना होगा।
सत्याग्रह
अभी तो केवल दिल्ली के आसपास के प्रदेशों के लोग यहाँ आयें और इतनी बड़ी तादाद में रोज जाकर गिरफ्तार हों। (तालियां) गिरफ्तारी की बात पर आप खुश होते हैं, तालियां बजाते हैं, हंसते हैं। कुर्बानी के लिए तैयार होना होगा। अगर अपने देश को बढ़ाना है,अपने देश के नैतिक बल को मजबूत रखना है तो फिर आपको इसके लिए बलिदान देना होगा। कुर्बानी देनी होगी। बस भाषण हो गया, तालियां बजाईं और चले गये, ऐसा नहीं होगा।
मुझे अफसोस है कि आज केवल बिहार और उत्तर प्रदेश को छोड़कर और कहीं संघर्ष चल नहीं रहा है। इसको देशव्यापी बनाना ही है। प्रधानमंत्री सारे देश का है। लोकसभा सारे देश की है, राज्यसभा सारे देश की है। इसलिए इस देशव्यापी संघर्ष का आह्वान है। इसका पहला कदम यह है कि प्रधानमंत्री के सामने जाकर मांग करना है कि आपको यहां बैठने का कोई अधिकार नहीं है, आप इस्तीफा दे दीजिए, जनता की तरफ से हम मांग करने आए हैं।
सेना, पुलिस व सरकारी अमलों का खर्च
पुलिस के लोगों को दमन का हुक्म मिलेगा और मेरे ऊपर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जायेगा. मैंने कहा, ठीक है, चलाइए मुकदमा हमारे ऊपर देशद्रोह का। जयप्रकाश नारायण जिस दिन देशद्रोही हो जाएगा, इस देश में कोई देशभक्त नहीं रह जाएगा। मित्रों, यह कोई गर्वोक्ति नहीं है। मैंने इस देश से आज तक कुछ भी नहीं मांगा है। देश की सेवा ही करता रहा हूँ। अब वह समय आ गया है, जब हमें कुर्बानी के लिए उठ खड़े होना होगा। जिनके हाथों में देश की बागडोर है, जो लोग लोकतंत्र के प्रहरी बनाए गए हैं, जिनकी पार्टी का बहुमत है, जिन्होंने संविधान की शपथ ली है, वे ही लोग लोकतंत्र को धीरे-धीरे खत्म करने की दिशा में बढ़ रहे हैं।
भारत सरकार के कर्मचारियों की कुछ मांगें थीं, उनके बारे में सरकार ने क्या किया? सेंट्रल और स्टेट के जो एम्प्लाइज हैं, उनकी कौन सी मांगें सरकार ने पूरी की? देशभक्ति के नाम पर, लोकतंत्र के नाम पर, कानून के नाम पर ये लोग जो भी हुक्म दें, उसका आप पालन कर रहे हैं या देश, लोकतंत्र और क़ानून का अपमान कर रहे हैं? आपको अभी से यह सोचना है। यह सोचने के लिए मैं बराबर चेतावनी देता रहा हूँ। सेना को यह सोचना है कि उनको जो आदेश मिलते हैं, उन आदेशों का पालन करना चाहिए कि नहीं! देश की सेना के लिए आर्मी एक्ट में लिखा हुआ है कि भारत में लोकतंत्र की रक्षा करने का उसका कर्त्तव्य है। लोकतंत्र की, इंडियन डेमोक्रेसी, कान्सटीट्यूशन की रक्षा करने की उनकी जिम्मेदारी है। कान्सटीट्यूशन की रक्षा करना लिखा हुआ है उसमें, देश के झण्डे की रक्षा करना, उसकी इज्जत रखना लिखा हुआ है. यह जम्हूरियत का कान्सटीट्यूशन है, उसमे जो कुछ लिखा है, उसी आधार पर प्रधानमंत्री को प्रधानमंत्री रहने का अधिकार है.
इसलिए मित्रों! आप सबको सोचना चाहिए कि देश के प्रति आपका क्या कर्त्तव्य है, देश के प्रति आपकी क्या वफादारी है! आप किसके प्रति जवाबदेह हैं, संविधान के या प्रधानमन्त्री के? प्रधानमन्त्री ने एक बार कहा था कि जयप्रकाश नारायण कहते हैं कि पुलिस को गैर कानूनी, इल्लीगल आर्डर्स नहीं मानने चाहिए। जब मजिस्टेट ऑर्डर देगा तो पुलिस किताब खोलकर देखेगी कि यह ऑर्डर लीगल है या इल्लीगल है? मैंने अधिवक्ताओं से पूछा कि इसका क्या जवाब है? उन्होंने क़ानून की किताब खोलकर मेरे सामने रख दी –पुलिस ऐक्ट में यह लिखा हुआ है कि पुलिस का जो आदमी या अफसर गै-कानूनी हुक्म का पालन करेगा, वह सजा का हकदार होगा. उसके उपर मुकदमा चल सकता है। उसको फैसला करना होगा। पुलिस के सिपाही को भी इतनी शिक्षा तो दी जाती है कि कौन-सा आदेश लीगल है और कौन-सा लॉ के खिलाफ है। जिसको चाहा, गिरफ्तार किया और हिरासत में पीटना शुरू कर दिया। यह किस कानून में लिखा है। तुम्हारा भाई है, अपराध किया है, अदालत में ले जाओ, वहां फैसला हो। उसके खिलाफ फैसला हो तो सजा हो. फांसी पर लटका दो। मीसा में रख देना हो, रखो, लेकिन मारने पीटने का तुमको कोई अधिकार नहीं है। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली की पुलिस इसके लिए मशहूर है। बिहार की पुलिस इतनी मशहूर नहीं है आपकी तरह। ऐसे मशहूर होना नेकनामी नहीं है। यह कोई शोहरत की बात नहीं है। यह लज्जा की बात है। रोटी के टुकड़ों पर आप बिके नहीं है। आपने ईमानदारी बेच दी है। ब्रह्मानन्द रेड्डी से मैं निवेदन करता हूँ कि मैंने जानबूझकर ये बातें कही हैं। अब वे मेरे ऊपर मुकदमा चलायें देशद्रोह का।
देश बरबादी की तरफ जा रहा है
मित्रों, बेकारी बढ़ी, गरीबी बढ़ी, हर तरह का भ्रष्ट्राचार बढ़ा, शिक्षा बरबाद होती गई।
जीवन का कौन सा पहलू है, जिसमें बिगाड़ नहीं हुआ? सुधार कहां हुआ ? सुधार हुआ होगा इन लोगों के जीवन में, कुछ रुपया कमाया होगा, कुछ मकान बनाये होंगे, कुछ महल बनाए होंगे, लेकिन जनता के जीवन में कौन-सा सुधार हुआ? हम कहते हैं कि समाज को बदलना चाहिए-सामाजिक,आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, नैतिक हर प्रकार से। अब यह नारा तो हम लगा रहे हैं और वे क्या कहते हैं? यही तो समझ में नहीं आता है। डिक्टेटरी है यह। अब डिक्टेटरी आप किसको कहते हैं? हम बराबर डेमोक्रेसी की बात कहते हैं। डिक्टेटर चाहेगा कि एक ही पार्टी रहे।
मुजीबुर्रहमान ने एक पार्टी बनाई, सब पार्टियों को खत्म किया, सब प्रेसों को खत्म किया, जिनके लिए हमने इतना काम किया, जिन पर हमारी इतनी आशा थी। जब वे छूटकर पाकिस्तान की जेल से आये थे तो खुशी के आंसू निकले थे। मैं उनसे मिल नहीं पाया। उन्होंने हमारे मित्रों से कहा कि देखिएगा, मैं बुलाऊंगा जयप्रकाश नारायण को। आज तक उनका निमंत्रण हमारे पास आता रहा और मैं जानता हूं कि फिर क्यों निमन्त्रण नहीं आया। उसमें भी दिल्ली का हाथ है।
दिल्ली का हाथ कहां-कहां है, कितना लम्बा हाथ है, भगवान बचाएं. मुझे जो कुछ कहना था, कह चुका हूं। देश बरबादी की तरफ जा रहा है। देश के गरीबों की हालत बिगड़ती चली जाती है, पीने का पानी नहीं है आज। भारत के गावों में एक मील, दो मील के रेडियस में पीने का पानी गर्मी कि दिनों में नहीं है। खाने की और कपड़े की कौन बात करे। रहने की कौन बात करे? इनको कोई अधिकार है समाजवाद की बात कहने का?