गांधी जी की यह इच्छा थी कि उनका आश्रम अछूतों के लिए स्वयं को पुन: समर्पित कर दे। अखिल भारतीय हरिजन सेवक संघ के लिए इस तरह की विविध गतिविधियों का प्रबंधन करना मुश्किल था और गांधी जी की हत्या के बाद काम करने के लिए स्वायत्त ट्रस्टों का गठन किया गया था। आज अगर आश्रम को कुछ इमारतों और संग्रहालय के साथ केवल एक एकड़ भूमि के रूप में देखा जा रहा है, तो हम गांधी जी की इच्छा के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं।
गुजरात उच्च न्यायालय ने 25 नवंबर, 2021 को महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी द्वारा साबरमती आश्रम पुनर्विकास परियोजना के खिलाफ दायर एक जनहित याचिका को सरकार के जवाब के आलोक में खारिज कर दिया। सरकार ने आश्वासन दिया है कि मौजूदा आश्रम, जो एक एकड़ के क्षेत्र में है, के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जायेगी और उसे यथावत रखा जाएगा. मुख्य न्यायाधीश अरविंद कुमार ने जनहित याचिका को खारिज करते हुए कहा कि सरकार के इस जवाब के बाद याचिकाकर्ता के सारे भय और आशंकाएं दूर हो जानी चाहिए.
सरकार के जवाब और न्यायालय के इस निर्णय के बाद आशंका है कि साबरमती आश्रम, अहमदाबाद की पुनर्विकास योजना ऐतिहासिक महत्व के इस स्थान को एक व्यावसायिक परिसर में बदलकर ही मानेगी।
परिणामस्वरूप देश और दुनिया भर के लोग, जो गांधीवादी सिद्धांतों में विश्वास करते हैं, सभी से अपील की जाती है कि आश्रम की सादगी और पवित्रता को बनाए रखते हुए इसे इसके मूल रूप में बनाए रखने के लिए प्रयास करें। उच्च न्यायालय द्वारा याचिका को खारिज करने के बाद सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर लोगों द्वारा सत्याग्रह आश्रम, इसके उद्देश्यों और इसकी संपत्ति सहित जमीन के क्षेत्र आदि के बारे में बहुत सारे सवाल पूछे गए। उनमें से एक सवाल यह है कि गांधी जी ने जब 1933 में आश्रम छोड़ा, तब उनके मन में क्या था।
जैसा कि हम जानते हैं, गांधी ने मई 1915 में कोचरब में एक किराए के भवन में सत्याग्रह आश्रम की शुरुआत की और इसे 17 जून, 1917 को साबरमती नदी के तट पर एक नए स्थान पर स्थानांतरित कर दिया था। उस दौरान गांधी जी बिहार में चंपारण सत्याग्रह में लगे हुए थे। मोतीहारी, चंपारण से आश्रम के सन्दर्भ में 1 जुलाई, 1917 को गांधी जी द्वारा लिखा गया एक पत्र हमें उन दिनों की आश्रम की गतिविधियों के बारे में जानकारी देता है। उन्होंने आश्रमवासियों के रहने-खाने, कताई-बुनाई, राष्ट्रीय विद्यालय, हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार तथा अपनी राजनीतिक गतिविधियों के लिए लोगों से धन की माँग की। पत्र में यह भी कहा गया है कि इन सभी गतिविधियों के लिए एक बड़े भूखंड की आवश्यकता होगी। साबरमती जेल के पास साबरमती के तट पर करीब 55 बीघे का ऐसा प्लॉट पहले ही खरीदा जा चुका है। कुछ और खरीदने के प्रयास जारी हैं।
उन्होंने पत्र में यह भी स्पष्ट किया कि जमीन के लिए उन्होंने अपनी धनराशि खर्च की है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आश्रम में उस समय कई गतिविधियां चल रही थीं और बिलकुल शुरुआत में भी आश्रम के पास लगभग 20 एकड़ भूमि थी। विभिन्न गतिविधियों के बढ़ने के कारण समय के साथ इसमें और भूमि तथा भवन जोड़े गए। सन् 1926 में ही आश्रम का ट्रस्ट डीड तैयार किया गया था और 12 फरवरी को अहमदाबाद के सब-रजिस्ट्रार के कार्यालय में इसका पंजीकरण कराया गया था। यह दिलचस्प तथ्य है कि आश्रम ट्रस्ट की घोषणा में, गांधी जी और उनके भतीजे मगनलाल गांधी ने अपने पेशे को बुनकर और किसान के रूप में वर्णित किया और अपना पता सत्याग्रह आश्रम बताया। कुल 2,75,000/- रुपये मूल्य की 18 भूमि और भवनों का विवरण दिया गया है।
ट्रस्ट डीड के अनुसार सत्याग्रह आश्रम के उद्देश्य थे- अंत्यज उत्थान, कपास की खेती, इससे जुड़े शिल्पों का विकास, हाथ से ओटाई, कार्डिंग, कताई और बुनाई, भारत के नैतिक, आर्थिक और राजनीतिक उत्थान के लिए आवश्यक गतिविधियों हेतु श्रमिकों को प्रशिक्षित करना, पत्र और अन्य प्रशिक्षण में शिक्षा प्रदान करने के लिए स्कूल स्थापित करना और चलाना तथा गौ-संरक्षण व गायों की नस्ल में सुधार आदि के लिए गतिविधियां चलाना आदि। आश्रम के पहले 5 ट्रस्टी थे जमनालाल बजाज, रेवाशंकर जावेरी, महादेव देसाई, इमाम साहेब अब्दुल कादिर बावज़ीर और छगनलाल गांधी।
मूल संविधान 1915 में तैयार किया गया था और संशोधित संविधान 14 जून, 1928 को यंग इंडिया में प्रकाशित हुआ था। आश्रम के बारे में गांधी जी के दृष्टिकोण को समझने के लिए यह संविधान पढ़ने योग्य है। यह आश्रम के उद्देश्य की पूर्ति के लिए आवश्यक ग्यारह प्रतिज्ञाओं पूजा, स्वच्छता, सेवा, कताई, कृषि, डेयरी, चर्मशोधन, राष्ट्रीय शिक्षा, खादी, तकनीकी स्कूल और इसके अध्ययन के पाठ्यक्रम सहित विभिन्न गतिविधियों के बारे में बताता है। इसमें अन्य बातों के साथ-साथ आश्रम के स्वामित्व वाली संपत्ति का विवरण भी शामिल था। इसके पास 132 एकड़ 38 गुंठा क्षेत्र की भूमि रु 26, 97256 मूल्य की और एक इमारत रु 2,95,121156 मूल्य की थी, जो ट्रस्टियों के पास थी। पुरुषों, महिलाओं और बच्चों सहित व्यक्तियों की कुल संख्या 277 थी।
अंत में यह संविधान आश्रम की दैनिक दिनचर्या के बारे में बताता है। 12 मार्च 1930 को शुरू हुए ऐतिहासिक दांडी मार्च ने आश्रम में गांधी के प्रवास को समाप्त कर दिया। गांधी ने 26 जुलाई, 1933 को गृह सचिव, बॉम्बे सरकार, अहमदाबाद को लिखे अपने पत्र में सरकार को साबरमती आश्रम पर कब्जा करने की पेशकश की थी। उन्होंने लिखा था, मेरा सुझाव है कि सरकार इन पर कब्जा कर ले और उनके साथ जो चाहे, करे।
हालांकि सरकार ने आश्रम को अपने अधिकार में नहीं लिया, क्योंकि 30 सितंबर, 1933 को गांधी जी ने अछूत समाज के अध्यक्ष जीडी बिड़ला को हरिजन कार्य की दृष्टि से आश्रम का काम करने के लिए पत्र लिखा था। वे सर्वसम्मति से इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि इसे अखिल भारतीय हरिजन संगठन को अखिल भारतीय उपयोग के लिए स्थानांतरित किया जाना चाहिए। ट्रस्ट के उद्देश्य थे : (i) बनाए जाने वाले नियमों के अधीन आश्रम की जमीन पर स्वीकृत हरिजन परिवारों को बसाना; (ii) गैर हरिजनों को लेने की स्वतंत्रता के साथ हरिजन लड़कों और लड़कियों के लिए एक छात्रावास खोलना; (iii) मृत पशुओं की खाल निकालने की कला सिखाने हेतु एक तकनीकी विभाग का संचालन करना, इस प्रकार प्राप्त खाल को कमाना, इसे ठीक करना और इस तरह से तैयार किए गए चमड़े के जूते, सैंडल और दैनिक उपयोग की अन्य वस्तुओं का निर्माण करना; और अंत में परिसर का केंद्रीय बोर्ड या गुजरात प्रांतीय संगठन या दोनों के कार्यालयों के रूप में उपयोग करना और ऐसे अन्य संबद्ध उपयोग जिसके सन्दर्भ समिति, निम्नलिखित पैराग्राफ से ले सकती है।
ट्रस्टियों की ओर से मेरा सुझाव है कि अछूत समाज के सेवकों को इस ट्रस्ट को संभालने और इसके उद्देश्यों को प्रभावी बनाने के लिए एक विशेष समिति नियुक्त करनी चाहिए। उन्होंने आगे कहा, “इमारतों में एक विशाल छात्रावास है, जिसमें आसानी से 100 बोर्डर रह सकते हैं। इसमें एक काफी बड़ा बुनाई शेड और अन्य इमारतें हैं, जो मेरे द्वारा नामित उपयोगों के लिए असाधारण रूप से फिट हैं। संपत्ति में 100 एकड़ जमीन भी है। … मुझे आशा है कि ट्रस्टियों के प्रस्ताव को स्वीकार करने और स्वीकृति में निहित जिम्मेदारी लेने के लिए सोसाइटी को कोई आपत्ति नहीं होगी।
जीडी बिड़ला ने 4 अक्टूबर, 1933 को अपने जवाब में गांधी जी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और उनसे अनुरोध किया कि वे उन लोगों से पूछें, जो पहले से ही रहने और संपत्ति की देखभाल पहले की तरह करने के लिए तैयार हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि महात्मा गांधी की यह इच्छा थी कि उनका आश्रम अछूतों के लिए स्वयं को पुन: समर्पित कर दे। अखिल भारतीय हरिजन सेवक संघ के लिए इस तरह की विविध गतिविधियों का प्रबंधन करना मुश्किल था और गांधी जी की हत्या के बाद काम करने के लिए स्वायत्त ट्रस्टों का गठन किया गया था। आज अगर आश्रम को कुछ इमारतों और संग्रहालय के साथ एक एकड़ भूमि के रूप में देखा जा रहा है, तो हम गांधी जी की इच्छा के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। अब समय है कि सभी हितधारकों को इसे उस रचनात्मक कार्य के लिए फिर से समर्पित करने का एक ऐतिहासिक अवसर बनाना चाहिए, जिसके लिए इसे स्थापित किया गया था।
-सिबी के. जोसेफ