आरएसएस पर जेपी का दांव

जेपी आंदोलन की ऐतिहासिकता और आज के सन्दर्भ में उसका समाजशास्त्रीय अध्ययन आज तक नहीं हुआ है। संघर्ष वाहिनी एवं समाजवादियों की यह कमी रही है कि वे इसके लिए मेहनत करने को तैयार नहीं रहते। अब तो लिखने पढ़ने की परम्परा भी समाप्त हो रही है। ऐसे में वैचारिक लड़ाई लड़ना कठिन है. जेपी समाजवादी रूढ़िवादिता को तोड़कर सर्वोदय में आये थे और 1974 में उन्होंने सर्वोदय की रूढ़िवादिता को तोड़ा था।

1974 में जेपी से मिलने बाला साहब देवरस आये थे और उनकी लम्बी बात चीत हुई थी. 1974 आंदोलन के सक्रिय नेता रामबहदुर राय बताते हैं कि मैं 1974 में छात्र संघर्ष संचालन समिति का सदस्य हुआ करता था. जब जेपी घूमघाम कर आते थे तो उनके साथ जनसंघर्ष समिति और छात्र संघर्ष समिति की साझा बैठक हुआ करती थी. एक बार जब फ़रवरी 1974 में जेपी दिल्ली से आए तो अख़बारों में एक छोटी सी ख़बर छपी कि जेपी और बाला साहब देवरस की एक लंबी बातचीत हुई है. बाला साहब देवरस अप्रैल 1974 में पटना आए, तब तक छात्र आंदोलन अपने उफान पर पहुंच चुका था. हम लोगों ने जेपी से पूछा कि आपकी नज़र में हिंदुत्व क्या है. उनका जवाब था, ‘हिंदुत्व धर्म नहीं है, हिंदुत्व राष्ट्रीयता है.’ इससे मैं बहुत प्रभावित हुआ. हम लोगों को उसी समय आभास मिल गया कि जेपी और बाला साहब में एक तरह की समझदारी विकसित हुई है. कई जगह यह भी बात आई है कि जेपी ने आरएसएस में अन्यों के लिए दरवाज खोलने को कहा, जिस पर एक सहमति भी बनी। इसकी पुष्टि रामबहादुर राय एवं गोविन्दाचार्य के बयानों से होती है। गोविन्दाचार्य बताते हैं, ‘उन्होंने उसी समय ये स्टैंड लिया कि संघ का स्वयंसेवक एक जागरूक और संवेदनशील नागरिक है. वह समाज में हो रहे बदलावों और समाज के तकाज़ों को अनसुना कैसे कर सकता है. उन्होंने मुझे नागपुर बुला कर कहा था कि हम बगैर तैयारी के अखाड़े में उतर पड़े हैं. आगे बहुत संकट आएंगे, लेकिन अब पीछे हटने का सवाल ही नहीं है. इसे अपने मुकाम तक पहुंचाना ही पड़ेगा.’ आंदोलन में सभी धर्मों के लोग भागीदार थे, इसलिए आपसी सौहार्द भी बना था। इसीलिए आंदोलन के दौरान इंदिरा गांधी के यह कहने पर कि जेपी का यह पूरा आंदोलन संघ चला रहा है, अत: यह एक फासिस्ट आंदोलन है, जेपी ने साफ तौर पर कहा था, ‘अगर आरएसएस फासीवादी संगठन है तो जेपी भी फासीवादी है.’

यह जेपी के विचारों का ही प्रभाव था कि बाला साहब के कार्यकाल के दौरान ही आरएसएस में मुसलमानों के प्रवेश का प्रस्ताव प्रतिनिधि सभा में विचार के लिए आया था, लेकिन ख़ारिज कर दिया गया और देवरस संघ की परंपरागत सोच को नहीं बदल पाए. 1977 की आरएसएस की प्रतिनिधि सभा में इस सवाल पर विचार हुआ. उस पर बहुत बहस हुई. उसमें बाला साहब देवरस का रुख़ था कि हमें आरएसएस को मुसलमानों के लिए खोलना चाहिए, लेकिन यादवराव जोशी, मोरोपंत पिंगले, दत्तोपंत ठेंगड़ी आदि उनके जो प्रमुख सहयोगी थे, इन सबने इसका घोर विरोध किया. राय के मुताबिक, ‘जब बाला साहब के अलावा सभी लोग इसके विरोध में खड़े हो गए, तो उन्होंने अपने समापन भाषण में इस अध्याय को बंद कर दिया.

आरएसएस जैसे संगठन में आपसी वैचारिक मतभेद की वजह को देखते हुए जेपी को छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के निर्माण की घोषणा करनी पड़ी, क्योंकि आरएसएस सम्पूर्ण क्रांति का वाहक नहीं बन सकता था. इस पर नाराज होकर संघियों ने कह दिया कि जेपी अपना पॉकेट संगठन बनाना चाह्ते हैं।

जेपी ने 1977 में जनता पार्टी के गठन के बाद पूछे गए एक प्रश्न के जबाब में कहा कि आरएसएस को विशुद्ध रूप से एक सांस्कृतिक संगठन मानना मुश्किल है। एक प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था कि आरएसएस के नेताओं और कार्यकर्ताओं के दृष्टिकोण में मुझे कुछ परिवर्तन नजर आता है। अब उनमें अन्य समुदायों के प्रति शत्रुता की भावना नहीं है, लेकिन उनके मन में अभी भी हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा के प्रति विश्वास है। वे यह कल्पना करते हैं कि मुसलमान और ईसाई जैसे समुदाय तो पहले से संगठित हैं, जबकि हिन्दू बिखरे हुए तथा असंगठित हैं। इसलिए वे हिन्दुओं को संगठित करना अपना मुख्य काम मानते हैं। आरएसएस के नेताओं के इस दृष्टिकोण में परिवर्तन होना चाहिए। मैं यही आशा करता हूँ कि वे हिन्दू राष्ट्र के विचार को त्याग देंगे और उसकी जगह भारतीय राष्ट्र के विचार को अपनाएंगे। भारतीय राष्ट्र का विचार सर्व धर्म समभाव वाली अवधारणा है और यह भारत में रहने वाले सभी समुदायों को अंगीकार करता है। यदि आरएसएस अपने को भंग नहीं करता है और जनता पार्टी द्वारा गठित युवा और सांस्कृतिक संगठनों में शामिल नहीं होता है, तो उसे कम से कम बाकी समुदायों और ईसाइयों को अपने में शामिल करना चाहिए. अपने संचालन और काम करने के तरीकों को उसे लोकतान्त्रिक करना चाहिए। सभी जातियों और समुदायों क़े लोगों को सर्वोच्च पदों पर नियुक्त करने की कोशिश करनी चाहिए।

मेरा मानना हैं कि जेपी की बातें यदि संघ मान लेता, तो उसे आज इन प्रश्नों से नहीं जूझना पड़ता कि आरएसएस का प्रमुख कोई ब्राह्मण (राजेंद्र सिंह उर्फ़ रज्जू भैया एक सवर्ण अपवाद थे, वह इसलिए संभव हुआ क्योंकि अपनी मृत्यु से दो साल पहले ही बाला साहब देवरस ने रज्जू भैया को आरएसएस का सरसंघचालक नियुक्त कर दिया था) ही क्यों बनाया जाता है? लगभग एक सदी के लंबे समय में अब तक किसी ओबीसी, दलित या महिला को इसका प्रमुख क्यों नहीं बनाया गया, क्या यह ब्राह्मण वर्चस्व वाला सामंती संगठन है? आरएसएस जातिगत आरक्षण की समीक्षा क्यों करना चाहता है, जातिवाद की क्यों नहीं? क्या आरक्षण पा रही जातियां कम हिंदू हैं? भारत हिंदू राष्ट्र ही क्यों बने भारतीय राष्ट्र क्यों नहीं, जिसमें अन्य ग़ैर हिंदू जीवनपद्धतियों वाले लोग भी रह सकें? आप भारतीय दर्शन की उदार, तार्किक, नास्तिक और सर्वसमावेशी परंपराओं का सम्मान कब करेंगे?

इस बीच कई साथियों ने यह लिखा है कि आज की भाजपा सरकार जेपी की वजह से आयी है। यदि 1974 आंदोलन के दौरान आरएसएस को मान्यता नहीं मिलती, तो हिन्दू संप्रदायवाद और कट्टरता को बढ़ावा नहीं मिलता। आरएसएस समाज से अलग-थलग एक तथाकथित सांस्कृतिक समूह था, जिसे 1974 में राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली. कांग्रेस ने तो यहाँ तक कह दिया कि फ़ासीवादियों से सहयोग लेना समाजवादियों का स्वभाव है, कांग्रेस मुक्त भारत की समाजवादी राजनीति में जनसंघ को साथ लेने की राजनीति भी इस आलोचना की एक वजह है।

महात्मा गाँधी आखिरी समय तक पाकिस्तान, सिखिस्तान और दलितस्तान के विरुद्ध खड़े रहे, पर आजकल उन्हें ही विभाजन का दोषी करार दिया जा रहा है. यह आरएसएस की मानसिकता है. आज ऐसी ही मानसिकता वाले लोग जेपी को सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ाने का दोषी करार देते हैं। जनसंघ यदि फासिस्ट है तो मै भी फासिस्ट हूँ, कहने वालों को याद रखना चाहिए कि जेपी ने कभी भी आंदोलन के दौरान जनसंघ या आरएसएस का झंडा उपयोग करने की इजाजत नहीं दी।

जेपी ने एक कोशिश की कि आरआरएस को आम जन एवं भिन्न विचारों से जोड़कर इन्हें हिन्दू राष्ट्र के संकीर्ण दायरे से बाहर कर भारत राष्ट्र के विशाल दायरे में लाया जाए। कुछ हद तक जनता के स्तर पर वे सफल भी हुए, पर उनका जीवन उसके बाद सिकुड़ गया और आगे काम नहीं हो पाया। दूसरे घटक इस सवाल पर कभी सचेत नहीं रहे. याद रखें, किसी संगठन को प्रतिबंधित करके आप विचार को दबा नहीं सकते। संघर्ष समिति में विद्यार्थी परिषद पहले से शामिल थी, उन्हें जेपी ने आमंत्रित नहीं किया। जनता पार्टी में जनसंघ के विलय के बाद पार्टी खत्म हो गयी थी। 1980 में जनता पार्टी टूट गयी। आपको याद होगा कि जनता पार्टी के टूट के बाद जब भाजपा बनी, तो उसने गांधीवादी समाजवाद का अपना लक्ष्य जनता के सामने रखा। क्या यह 1974 आंदोलन का प्रभाव नहीं था?

जेपी आंदोलन की ऐतिहासिकता और आज के सन्दर्भ में उसका समाजशास्त्रीय अध्ययन आज तक नहीं हुआ है। संघर्ष वाहिनी एवं समाजवादियों की यह कमी रही है कि वे इसके लिए मेहनत करने को तैयार नहीं रहते। अब तो लिखने पढ़ने की परम्परा भी समाप्त हो रही है। ऐसे में वैचारिक लड़ाई लड़ना कठिन है. जेपी समाजवादी रूढ़िवादिता को तोड़कर सर्वोदय में आये थे और 1974 में उन्होंने सर्वोदय की रूढ़िवादिता को तोड़ा था।

मेरी समझ से यथास्थितिवाद को कायम रखने के लिए उस समय आरएसएस जितनी बड़ी रणनीति के तहत काम कर रहा था तथा उसकी जितनी लंबी तैयारी थी, गैर जनसंघियों की वैसी तैयारी नहीं थी, वरना 1977 एक टर्निंग पॉइंट था, जिससे सीख कर आगे बढ़ने की जरूरत थी। जेपी ने वामपंथी दलों को आंदोलन में शामिल होने का आमंत्रण दिया था पर वामपंथी शरीक नहीं हुए। समाजवादी भी आधे मन से ही शामिल थे। 1977 में इन लोगों ने अपनी भूल स्वीकार भी की पर आज भाजपा के फैलाव के लिए जेपी को दोषी मानकर हाथ झाड़ लेते हैं। जेपी ने ऐसे दलों द्वारा आंदोलन से असहयोग के बाद आरएसएस के भागीदारी को लेकर हुए विरोध पर आरएसएस का बचाव किया था। इतिहास में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुई हैं, जिनको क्रांति के हित में तात्कालिक रूप से जायज मान लिया जाता है. भारत की आज़ादी के लिए सुभाष चंद्र बोस का हिटलर से सहयोग सही मान लिया जाता है। स्टालिन ने अमेरिका से दोस्ती की और हिटलर से भी, इसे सही मान लिया गया। माओ ने जापान के विरुद्ध च्यांग काई शेक से दोस्ती की। डॉ लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद में जनसंघ और कम्युनिस्ट दोनों को सहयोगी बनाया, इन सबको तात्कालिक रणनीति का हिस्सा मानकर सही ठहराया गया। आंदोलन की रणनीति क्या कहती है, यह हर कोई समझ नहीं पाता। जिन्ना और गांधी की दोस्ती इसी पार्ट का एक हिस्सा थी, जिस कारण हमेशा विवाद रहते हैं।

जय प्रकाश नारायण ने अपातकाल में बिहारवासियों के नाम चिट्ठी में लिखा था, ‘सम्पूर्ण क्रांति के आंदोलन में शामिल करके मैंने उन्हें डी-कम्यूनलाइज़ करने, यानि असाम्प्रदायिक बनाने की कोशिश की है।’ याद रखना होगा कि आंदोलन में शरीक बाकी युवा आरएसएस से ज्यादा मजबूत निकले, जिन्होंने माफीनामा लिखकर जेल से निकलना उचित नहीं समझा। देवरस ने इंदिरा गांधी से आपातकाल में माफ़ी मांगी थी और उनकी सफलता के लिए बधाई दी थी। नवंबर 1975 में इंदिरा गाँधी को पत्र लिखकर यह वायदा किया था कि अगर संघ पर से पाबन्दी हटाई जाती है तो वे सहयोग के लिए तैयार हैं. उन्होंने इसके लिए विनोबा भावे एवं संजय गाँधी से भी संपर्क किया था.

जेपी जितने क्रन्तिकारी 1947 में थे, उतने ही 1974 में भी थे, वे जनहित में सत्ता का डंडा खाने एवं जेल जाने को तैयार थे। जनता के दुखों को अपने साथ जोड़कर एक शहीद हो गए पर ऐसे तुच्छ आरोप लगाना बिल्कुल अनुचित है, बीजेपी के हिंदुत्व की आलोचना करके हम संतुष्ट हो जाते हैं। केवल धर्म को प्रतिगामी मान लेने से हिंदुत्व की राजनीति या संघ कमजोर नहीं होगा। एक बेहतर राजनीति की अंतःशक्ति के द्वारा ही समाज को नयी दिशा दी जा सकती है।

आज की भाजपा चलाने वाले तो नाथू राम गोडसे का नाम लेते हैं, जेपी का नाम नहीं लेते। लेकिन फिर भी यदि आप मानते हैं कि जेपी के कारण इनकी शक्ति बढ़ी है, तो उसके लिए क्या हम सभी जिम्मेदार नहीं हैं?

-प्रभात कुमार

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