मैं इशारा कर रही हूँ, समझना आपको है!
कहते हैं कि किसी देश की जेलों में समय बिताए बिना उन्हें पूरी तरह समझ पाना नामुमकिन है. किसी देश को इस बिनाह पर नहीं जाँचा जाना चाहिए कि वह अपने सबसे ऊँचे नागरिकों के साथ कैसा बर्ताव करता है, बल्कि यह देखा जाना चाहिए कि वह अपने सबसे नीचे रह गए नागरिकों के साथ क्या सुलूक करता है – नेल्सन मंडेला
26 नवंबर को संविधान दिवस के मौक़े पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने भारतीय जेलों की स्थिति की तरफ़ न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका का ध्यान खींचते हुए मंडेला के इन्हीं नागरिकों की बात की। उन्होंने सवाल किया, ‘कौन लोग हैं ये? न इन्हें मूल अधिकारों के बारे में पता है, न संविधान की प्रस्तावना के बारे में पता है और न ही मूल कर्तव्यों के बारे में पता है?’ राष्ट्रपति मुर्मु ने खेद जताया कि बहुत से लोग छोटे-छोटे अपराधों के लिए लंबे समय से जेलों में बंद हैं और उनके परिवार उन्हें मुक्त कराने से इसलिए बचते हैं क्योंकि उनके पास सही जानकारी और समुचित साधन, दोनों की ही कमी होती है।
राष्ट्रपति को सुनते हुए मुझे ग़ाज़ीपुर ज़िला जेल की दीवार पर लिखा एक वाक्य याद आता है- ‘कारागार के भीतर अपने कर्तव्य याद रखें, अधिकार भूल जाएं।’ मुझे याद आता है कि जेल के भीतर उस वाक्य को पढ़कर मुझे कैसी असहनीय असहायता महसूस हुई थी। जेल के भीतर आते ही मैं अब एक नागरिक नहीं हूँ, क्योंकि नागरिक के कुछ अधिकार होते हैं, जिनका वादा संविधान की किताब में है, पर वह व्यक्ति, जो नागरिक के अधिकार नहीं रखता, वह क्या है? क्या उसे व्यक्ति कहा जा सकता है?
राष्ट्रपति के सवालों ने व्यवस्था को असहज किया
मेरे पास ये सवाल पूछने के लिए पर्याप्त साधन थे—नागरिक के अधिकारों की जानकारी, भाषा और चेतना, पर मेरे साथ उसे कारागार में मौजूद क़रीब 51 अन्य महिलाओं के पास न जानकारी थी, न भाषा थी और न ही शायद एक स्पष्ट चेतना ही थी। ऊपर से अपराधबोध और असहायता अलग थी। असंपन्न परिवारों की इन महिलाओं में से बहुतों की फ़िक्र न तो संस्थान को थी, न ही परिवारों को, उस समय, जब मुझे ही नहीं मालूम था कि क़ैदियों के हितों की रक्षा के लिए मॉडल प्रिज़न मैनुअल जैसा कोई दस्तावेज भी वजूद में था, तो उन क़ैदियों को कहां इसका पता होता, जिनमें से ज़्यादातर को पढ़ना-लिखना तक नहीं आता था। हालाँकि मैंने जेल अधीक्षक से माँग की कि वे मुझे जेल मैनुअल या नियमावली जैसी कोई चीज उपलब्ध कराएँ, लेकिन ऐसे किसी मैनुअल की अनुपलब्धता की बात कहकर मेरी माँग को अनसुना कर दिया गया। कारागार मेरे लिए एक औचक अनुभव था, मुझे इसका न अंदाज़ा था, न ही मैं इसके लिए तैयार थी। शिक्षित होते हुए भी मैंने देखा कि मैं अपने अधिकार पूरी तरह नहीं जानती।
अमेरिका व अन्य देशों के सिनेमा के अनुभव ने मेरे मन में एक ही सवाल पैदा किया कि कारागार में घुसते ही, मेरा सामान व अन्य जानकारी लेने के साथ-साथ मुझे यह साफ-साफ क्यों नहीं बताया गया कि मेरा अपराध क्या है, इस पर अब क्या कार्रवाई होगी, ऐसे में मेरे अधिकार क्या हैं और राज्य मेरे अपराध को सुधारने के लिए मेरे अभिभावक की तरह मेरे साथ कहाँ खड़ा है, पर क्या राज्य वाक़ई मेरा या उन अन्य महिलाओं का अभिभावक था, जो मेरे साथ उस कारागार में थीं? क्या कारागार वाक़ई सुधारने या सुधरने का मौक़ा देने की जगह थी? जवाब बहुत साफ़ है—नहीं. इस जवाब से एक ज़रूरी सवाल यह पैदा होता है कि अगर हम कुछ देर के लिए राष्ट्रपति मुर्मु की उठाई यह बात भूल भी जाएँ कि कारागार में पहुँचाए गए सभी क़ैदी अपराधी नहीं होते, तब भी इस राष्ट्र का अपने अपराधी से कैसा संबंध है? क्या उस तथाकथित अपराधी से उसकी नागरिकता छीनकर उसे शत्रु घोषित कर दिया जाता है या उसे कारागार में डालकर उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है या फिर उसके अपराध के कारण तक पहुँचकर उस कारण को दूर करने की कोशिश की जाती है कि समाज अपराधों से दूर रहे?
भारतीय जेलों में क़ैदियों के साथ जो व्यवहार किया जाता है, उसे नए सिरे से देखने की आवश्यकता है। भारतीय कामगारों में सबसे बड़ी समस्या है जगह के अनुपात में क़ैदियों की अधिकता की। द हिंदू में 12 अक्तूबर 2022 को छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ जहां हमारी जेलों की क्षमता 4.25 लाख क़ैदियों की है वहाँ 2021 में इन जेलों में 5.54 से अधिक क़ैदी थे। यह तो सिर्फ़ आंकड़ों की बात है, अनुभव की बात यह है कि ग़ाज़ीपुर जेल की महिला बैरकों में जहां छह महिलाओं को होना चाहिए था, वहाँ 20 से अधिक महिलाओं को रखा गया था। इन महिलाओं में से अधिकतर के मामले कई सालों से न्यायालय में थे और उन्हें दोषी करार नहीं दिया गया था। जिन परिस्थितियों में ये महिलाएँ कारागार में रहती हैं, वे मानवीय गरिमा के उनके अधिकार से कोसों दूर हैं।
राष्ट्रपति कहती हैं कि एक थप्पड़ मारने वाला भी सालों से जेल भुगत रहा है।
जेलों के बारे में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का कहना था कि अपराध एक बीमार दिमाग़ का नतीजा है, इसलिए कारागार का वातावरण एक अस्पताल की तरह देख-रेख करने वाला होना चाहिए, पर स्थिति इसके उलट है। अधिकतर मामलों में होता यह है कि अपराधी जेल से बाहर स्वस्थ होकर नहीं, और अधिक विकृत होकर आता है और जिन्हें बिना किसी अपराध या छोटी-मोटी घटनाओं पर जेल में डाल दिया जाता है, उनके लिए यह और भी बुरा अनुभव होता है. यह अनुभव उनके आत्मसम्मान और आत्मविश्वास दोनों को ही हिलाकर रख सकता है, उन्हें समाज में अकेला तथा अलग कर देता है।
जेलों की स्थिति के आकलन और सुधार के लिए कई बार समितियां और प्रिज़न मैनुअल बने। सबसे नया मैनुअल 2016 में आया। यह मैनुअल विस्तार से बताता है कि जेल की अवधारणा, ढाँचा, सुविधाएँ और व्यवहार क्या होना चाहिए, पर नियमों-निर्देशों और वास्तविकता का अंतर इतना अधिक है कि देश के राष्ट्रपति को याद दिलाना पड़ता है कि जेलों में भी हमारे ही लोग रहते हैं और उनके भी मानवाधिकार हैं।
यह मैनुअल सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णयों के हवाले से शुरूआत में ही कहता है कि जेल में लाया गया कोई व्यक्ति, अ-व्यक्ति नहीं बन जाता। जेल की सीमाओं के भीतर एक क़ैदी सभी मानवाधिकारों का अधिकारी है। साथ ही, मैनुअल यह भी कहता है कि क़ैद में होना अपने आप में एक पीड़ादायक स्थिति है, इसे और कष्टप्रद बनाने के लिए कोई भी तर्क अमान्य होगा। मानवाधिकारों के अलावा इसमें क़ैदी के जिन अन्य अधिकारों का ज़िक्र है, वह है बुनियादी आवश्यकताओं का अधिकार, यानी उचित भोजन, स्वास्थ्य सुविधाएँ, उपचार, पीने का साफ़ पानी, रहने के लिए साफ़ जगह, निजी स्वच्छता, पर्याप्त कपड़े और बिस्तर व अन्य चीजें।
इसके अलावा क़ैदी को बाहरी दुनिया से संपर्क करने, क़ानूनी मदद पाने, लाभकारी रोज़गार पाने और तय तारीख़ पर जेल से बाहर आने का अधिकार भी है। हालाँकि, कितने क़ैदियों को इन अधिकारों की जानकारी होती है, यह समझ पाना बहुत मुश्किल नहीं है. क़ैद में एक आम क़ैदी इस अनिश्चितता से तो गुजरता ही है कि उसका भविष्य क्या होगा। तमाम तरह की लकीरों के बीच खड़ा हुआ वह पहली बार यह महसूस करता है कि वह बिलकुल अकेला है—परिवार, समाज और राज्य तीनों संस्थाएँ, जिन्हें वह अपना मानता रहा है, उनसे विलग और अकेला। अपराध और सुधार का व्याकरण इतना आसान नहीं है कि सज़ा सुना दी गई और समस्या दूर हो गई। एक तो अपराध सिद्ध होने में ही बरसों खप जाते हैं, दूसरे इन बरसों का कोई हर्जाना न तो अपराधी को मिलता है और न ही उसे, जो न्याय माँग रहा है। अगर कथित अपराधी निरपराध हो तो न्याय का नाम कौन ले!
जेलों को सुधार की आवश्यकता है और यह आवश्यकता बरसों से इसी तरह बदलाव का मुँह जोह रही है. पर जैसा कि राष्ट्रपति मुर्मु ने कहा, नई जेलें विकास का प्रतीक नहीं हो सकतीं। उन्होंने कहा कि मैं इशारा कर रही हूँ, समझना विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को है। मैं समझती हूँ कि इसमें समाज की भी उतनी ही हिस्सेदारी है, बेशक राज्य के इन तीनों अंगों को मिलकर तय करना होगा कि समाज को अपराध से कैसे बचाया जाए और समाज को यह तय करना होगा कि हम अपने लोगों को अपराध की तरफ़ जाने से कैसे रोकें।
-प्रदीपिका सारस्वत