सरकारी एवं गैर सरकारी रोजगार में तेजी से कमी आयी है। बेरोजगारी पिछले 45 सालों के इतिहास में चरम पर है। गरीबों की आबादी बढ़ती जा रही है। जनता की क्रय शक्ति आनुपातिक रूप से घटती जा रही है। ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना काल में जहां मुट्ठी भर अमीरों की संख्या बढ़ी है, वहीं निर्धनों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। तेजी से बढ़ती इस असमानता ने कॉरपोरेट घरानों की पूंजी में अभूतपूर्व वृद्धि की है। ये ध्वस्त होती लोकतांत्रिक व्यवस्था में विनाश के संकेत हैं।
उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में चुनाव का बिगुल बज चुका है। राजनीतिक दलों द्वारा येन-केन-प्रकारेण सत्ता पर काबिज होने के लिए हर तरह के तरीके अपनाये जा रहे हैं। दल बदलुओं के सहारे सत्ता हासिल करने की जुगत में कौन किससे कितना आगे निकल जाये, ऐसी प्रतिस्पर्धा मची हुई है। मजे की बात यह कि हर दल इस बात का दावा कर रहा है कि सत्ता में उसकी वापसी के बाद आमूलचूल परिवर्तन और अमानवीय नीतियों का खात्मा होगा। ऐसे में इन दावों की वास्तविकता को परखना जरूरी लगता है कि क्या नागरिकों के ज्वलंत मुद्दे वास्तव में राजनैतिक दलों के एजेण्डे का हिस्सा भी हैं?
खैरात बंट रही है। कोई पेंशन दे रहा है तो कोई किसान निधि। मुफ्त बिजली और इलेक्ट्रानिक डिवाइस देने का भी ऐलान किया जा चुका है। शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, महंगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी, पर्यावरण, महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे, जातीय एवं धार्मिक हिंसा बरक्स एजेण्डे का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन ही नहीं पा रहे हैं। हिन्दुत्व, धार्मिक स्थलों का निर्माण एवं नये तरह का राष्ट्रवाद जेरे बहस है। भारतीय लोकतंत्र में राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रद्रोह की नई परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं। जनता के असल मुद्दे राजनैतिक दलों की प्राथमिकता से बाहर भी हैं और उनके लिए बड़ी चुनौती भी बने हुए हैं। शिक्षा एवं स्वास्थ्य के हालात बदतर हैं। कोरोना काल में बेपटरी हुई स्वास्थ्य व्यवस्था, एक-एक ऑक्सीजन सिलेंडर, बेड एवं दवाओं के अभाव में मरते हुए असहाय नागरिकों को कौन भूल सकता है? शिक्षण संस्थाएं लगातार बंद चल रही हैं और चुनावी रैलियां तथा धार्मिक आयोजन अबाध गति से संचालित हैं। ऑनलाइन शिक्षा के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। भारत जैसे गरीब मुल्क में ऑनलाइन शिक्षा दूरस्थ ग्रामीण इलाकों के लिए दूर की चीज है।
सरकारी एवं गैर सरकारी रोजगार में तेजी से कमी आयी है। बेरोजगारी पिछले 45 सालों के इतिहास में चरम पर है। गरीबों की आबादी बढ़ती जा रही है। जनता की क्रय शक्ति आनुपातिक रूप से घटती जा रही है। ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना काल में जहां मुट्ठी भर अमीरों की संख्या बढ़ी है, वहीं निर्धनों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। तेजी से बढ़ती इस असमानता ने कॉरपोरेट घरानों की पूंजी में अभूतपूर्व वृद्धि की है। ध्वस्त होती लोकतांत्रिक व्यवस्था में विनाश के संकेत हैं।
रोजगार के प्रमुख सरकारी उपक्रम जान-बूझकर लगातार घाटे में लाये जा रहे हैं और वे निजीकरण की राह पर हैं। सरकार की इच्छाशक्ति एवं नियंत्रण के अभाव में मंहगाई पर अंकुश लगाना संभव नहीं हो पा रहा है। कम होती आमदनी एवं बढ़ती महंगाई जनता के समक्ष चुनौती बनी हुई है। शिक्षा, स्वास्थ्य और रिहाइश की व्यवस्था ही नहीं, भोजन की थाली भी प्रभावित हुई है। बिजली की बढ़ती दरें आसमान छूती जा रही हैं। यातायात का संचालन सामान्य न होने के कारण सुगम एवं सस्ती यात्रा जन सामान्य के लिए दुष्कर हो गयी है। डिजिटल इण्डिया के तमाम दावों के बावजूद भ्रष्टाचार पर कोई नियंत्रण नहीं है। इन समस्याओं का त्वरित समाधान जनता की प्राथमिकता है और ये मुद्दे राजनीतिक दलों के एजेण्डे में होने चाहिए।
आज महिलाओं की सुरक्षा एवं उनके अनुकूल वातावरण का निर्माण यक्ष प्रश्न की तरह सामने है। हाल के दिनों में घरेलू हिंसा एवं बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि हुई है। कोरोना संकट में उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोजगार पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। युवा बेरोजगार होकर राजनीतिक पार्टियों द्वारा फैलाये गये भ्रम का शिकार हो रहे हैं। उनकी ऊर्जा का दुरुपयोग कर उन्हें नफरत एवं भीड़तंत्र में बदला जा रहा है। यह समाज के लिए चिन्तित होने का समय है। मजदूर, किसान, रेहड़ी-पटरी व्यवसायी एवं वंचितों के हितैषी कानूनों को बदला जा रहा हैा इनके पक्ष में उठने वाली आवाजें को कानूनों का दुरुपयोग करके खामोश किया जा रहा है। धार्मिक एवं अभव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने के प्रयास जारी हैं। सत्ता के विरोध में उठने वाली हर आवाज जोर-जबरदस्ती से दबायी जा रही है। देश प्रेम एवं राष्ट्रद्रोह की नित नई-नई परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं। नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए बनी लोकतांत्रिक संस्थाओं का सत्ता के एजेंट के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है। मानवाधिकार कुचले जा रहे हैं। राजनैतिक द्वेष के चलते अन्याय की प्रवृत्ति बढ़ रही है। कलम और कैमरे पर बंदूक का पहरा है। व्यक्तिगत गरिमा और आजादी का प्रश्न अंधे कुएं के हवाले है। जीवन और प्राण रक्षा, लोकतंत्र की जिम्मेदारी है, जिसके लिए देश के संविधान निर्माताओं ने न्याय विधान और लोकहितकारी विधायी तंत्र खड़े किये थे। लोकतंत्र के ये आदर्श शासकों के हाथों छिन्न-भिन्न किये जा रहे हैं। संवैधानिक मर्यादाओं, अनुशासनों और अधिकारों से संपन्न लोकतंत्र को ऑक्सीजन देने वाली इन संस्थाओं को सत्ता की चेरी की तरह व्यवहार करते देखना दुर्भाग्यपूर्ण है। नाकाबिल और अलोकतांत्रिक मिजाज के राजनैतिक हित साधकों को लोकतंत्र की प्राण-संस्थाओं में बैठाकर लोकतंत्र का चीर-हरण किया जा रहा है। आश्चर्य है कि स्वयं समाज भी अपनी चेतना को परे रखकर, अपने नागरिकता बोध से मुंह फेरकर निर्लिप्त भाव से इस पतन का मूक द्रष्टा बना हुआ है।
आजादी के समय से ही सांप्रदायिकता एक गंभीर चुनौती बनकर भारतीय राज्य के समक्ष खड़ी है, जिसने उस सदी के सबसे बड़े प्रकाश-पुंज महात्मा गांधी को लील लिया था। आज 74 साल बाद भी उसका फलक विस्तृत एवं विकृत हुआ है। यह सर्वधर्म समभाव की भारतीय नीति एवं पहचान के विरुद्ध है। घृणा एवं नफरत की भावना समाज में अपना स्थान बना रही है, जिसे रोकने में राज्य असफल है। राज्य धर्म विशेष के प्रचार-प्रसार का माध्यम बन रहा है। यह धर्मनिरपेक्षता एवं समाजवाद की स्वीकृत भारतीय नीतियों के विरुद्ध है। अल्पसंख्यकों के संविधान प्रदत्त अधिकारों पर प्रहार हो रहे हैं। स्वतंत्रता, समता, बंधुता एवं न्याय पर आधारित भारतीय राज्य की अवधारणा में एक नये राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद को विकसित करने का प्रयास जारी है। धर्म संसद का आयोजन संवैधानिक अधिकार हो सकता है, पर उसके जरिये दूसरे धर्मावलंबियों के प्रति हिंसा का आवाहन करना जुर्म है। धर्म व्यक्तिगत मामला है, पर राज्य की जिम्मेदारी है कि वह सभी धर्मों को मानने वालों की सुरक्षा सुनिश्चित करे। घृणा एवं नफरत के बीज बोने वालों को दंड देना राज्य का प्राथमिक कर्तव्य है। बहुसंख्यकवाद की राजनीति भारत जैसे बहुलतावादी लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत है। राजनैतिक दलों की की ललकार में हमारी लोकतांत्रिक परिपाटियों की आवाज गुंजित होनी चाहिए।
97 साल से हवा में नफरत का जहर घोला जा रहा है। गांधी हमारी वैश्विक पहचान एवं अस्मिता का हिस्सा हैं। आज पूरी दुनिया उनके रास्ते पर चलने को उत्सुक है। उन पर हो रहे हमले भारतीय लोकतंत्र, सर्वधर्म समभाव, सहिष्णुता एवं हमारी वैश्विक पहचान के विपरीत हैं। राज्य उदासीन है, गांधीवादी खामोश हैं और राजनैतिक दल वोट बैंक की खातिर कन्नी काट रहे हैं। गांधी, अब दुनिया की उम्मीद का दूसरा नाम हैं, पर हम गांधी पर बात करने में असमर्थ हैं। इस ज्वलंत मुद्दे को अब जन आंदोलन की जरूरत है। इन तमाम मुद्दों पर राजनैतिक दल बात तक नहीं करना चाहते। राष्ट्रवादियों के चौड़े सीने राष्ट्रपिता की मर्यादा से खेल रहे हैं। यह राष्ट्र की किंकर्तव्यविमूढ़ता है।
आज जरूरत है कि इन सवालों पर जनता के साथ-साथ राजनैतिक दल भी मुखर हों। लुभावनी तथा मुफ्त योजनाओं की जगह, स्थायी समाधान के रास्ते तलाशे जायें। जनता को रोजगार, शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं, महिलाओं की सुरक्षा, किसान-मजदूर हितैषी कानून एवं वंचित समुदाय के हित को गारंटी देने वाली व्यवस्था को ध्यान में रखकर कानून बनाये जायें। किसान हित में नये कानूनों का निर्माण एवं समाप्त किये जा रहे श्रम कानूनों की सुरक्षा की गारंटी आज की जरूरत है। यह राजनैतिक दलों के घोषणा-पत्र का हिस्सा बने। ऐसी नीतियों की जरूरत है, जो अमीरी-गरीबी के अंतर को पाटने में सक्षम हों तथा कॉरपोरेट घरानों की बढ़ती पूंजी पर अंकुश लगायें। रोजगार गारंटी योजना लाने की जरूरत है। भीख की सौगात किसी को नहीं चाहिए। जातीय हिंसा एवं भेदभाव तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति दुराग्रह से विधान की अवमानना है। सांप्रदायिकता देश का दीमक है। इस गंभीर बीमारी को समूल नष्ट करना समाज और सरकार का सामूहिक दायित्व है। यह एजेंडा सर्वोपरि होना चाहिए कि अल्पसंख्यकों एवं वंचितों में फैले भय को कैसे दूर किया जाये। जन भावनाओं को देखते हुए गांधी जी पर हो रहे अमर्यादित हमलों को संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखकर राष्ट्रपिता पर अभद्र टिप्पणी करने वालों को देशद्रोही घोषित करना चाहिए।
जनता के मुद्दों पर बात हो, यह जनता की ही जिम्मेदारी है। जनता के मुद्दे अपने तल्ख और नग्न स्वरूप में व्यवस्था तक पहुंचने चाहिए। इसके लिए जनता के पास अपने चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं। जनता को अपने प्रतिनिधियों की नकेल कसनी चाहिए। विधायक या सांसद कोश से कमीशन पर धन उगाही करने वाले जनता के मन का हिस्सा नहीं हो सकते। उनका अवरोध भी कायम नहीं होना चाहिए। जनता, जो पंक्तिबद्ध होकर मतदान करती है, उसे अपनी सामूहिक शक्ति और सामूहिक आवाज का निर्माण करना चाहिए। जनता के प्रतिनिधि शपथबद्ध होते हैं, जनता के मुद्दे, जनता के प्रतिनिधियों की आवाज में व्यवस्था तक पहुंचने चाहिए। यह देश किसी राजा की रियासत, किसी हुक्मरान की साम्राज्यशाही या किसी किंग का किंगडम नहीं है। भारत राज्यों का संघ है, व्यवस्था को यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि हर राज्य स्वयं में स्वायत्त है। हर राज्य के अपने लोग, अपनी भाषा, अपने संस्कार और अपनी संस्कृति है। इस लोक जीवन और इन संस्कृतियों से जुड़े सवाल व्यवस्था द्वारा एड्रेस किये जाने चाहिए। यदि व्यवस्था अपने नागरिकों के सवालों से सच्चे मन से नहीं टकराती, तो उसे बताना चाहिए कि 15 अगस्त 1947 की आधी रात को इन नागरिाकों की किस्मत में क्या लिखा गया था।