क्या होगा अदानी का? किस घाट लगेगा निवेशक?

हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आने के बाद अडानी के बिजनेस साम्राज्य को बहुत तगड़ा झटका लगा है। यह झटका इतना तगड़ा है कि जो अडानी 22 जनवरी 2023 तक दुनिया के तीसरे सबसे बड़े धनाढ्य आदमी थे, वे यह लेख लिखे जाने तक दुनिया के टॉप-20 धनाढ्यों की सूची से बाहर हो गये हैं। 150 बिलियन डॉलर का उनका धन 64 बिलियन डॉलर तक लुढ़क चुका है, यह आगे और भी गिर सकता है। उनकी साख पर भारी बट्टा लगा है, जिसकी भरपाई यूँ असंभव तो नहीं है, क्योंकि अडानी को सरकार का वरदहस्त प्राप्त है, लेकिन उनकी साख बचाने में तमाम संवैधानिक और अर्थव्यवस्था से जुड़ी अनेक आधारभूत संस्थाओं की साख कुर्बान कर देनी पड़ेगी। अर्थव्यवस्था की समझ रखने वाले विशेषज्ञों को सांप सूंघ गया है। यही नहीं, सत्ता में बैठी भाजपा को भी कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। आइये, बारीकी से इस घोटाले की तहों में उतरते हैं।

अडानी जैसों का दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा धनाढ्य व्यक्ति होना, इस आधुनिक और नवउदारवादी पूंजीवादी व्यवस्था का एक छ्लावा मात्र है। इन धनकुबेरों की धन संपदा इनकी कंपनियों से बनी मार्केट कैप के आधार पर निर्धारित होती है। इनकी कंपनियों के शेयरों की कीमत तय करती है कि कौन एक नम्बर पर है और कौन दो नम्बर पर। इस लिहाज से अब चूंकि अडानी की कंपनियों के शेयरों की कीमतें गिर गई हैं, इसलिए आज अडानी तीसरे नम्बर से इक्कीसवें नम्बर पर आ गये हैं।

हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट
पहले ये समझ लें कि हिंडननबर्ग रिसर्च अमरीका की एक कंसलटेंसी संस्था है, जो दुनिया भर की कंपनियों के अकाउंट्स और मैनेजमेंट का अध्ययन करती है, उनके घपलों को पकड़ती है और शॉर्ट सेलिंग भी करती है। शॉर्ट सेलिंग यानी अपने अध्ययन और खोज के आधार पर कंपनियों के शेयरों को उनकी वास्तविक औकात तक पहुंचाना, फिर उसे अपने ग्राहकों से खरीदवाना और फिर उंचे दाम पर बेचने की स्थिति में ले आना।

अभी हाल ही में यूएसए की एक ट्रक बनाने वाली कंपनी निकोला के साथ हिंडनबर्ग ने जो किया है, वह क़ाबिले तारीफ़ है। निकोला ने अपने एक उत्पाद के बारे में झूठ बोलकर अपनी कंपनी को 32 बिलियन डॉलर के पार पहुंचा दिया था, हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आने के बाद निकोला खिसककर 1.32 बिलियन डॉलर पर आ गयी।

हिंडनबर्ग का काम एक तरह से कॉर्पोरेट पत्रकारिता और व्हिसिल ब्लोअर की आड़ में रंगबाजी से धन कमाने का तो है ही, लेकिन इसकी प्राथमिकता कुछ हद तक पूंजीवादी नैतिकता भी है। अगर आप मानते हैं कि बाजार ही सर्वोपरि है तो निश्चय ही हिंडनबर्ग की रिपोर्ट बाजार की एक नैतिक और बहुत हद तक प्रतियोगी ताकत है।


अडानी के मामले में हुआ यह कि 25 जनवरी को जब अडानी अपनी नई एफपीओ से बीस हजार करोड़ की उगाही करने वाले थे, ठीक उसके एक दिन पहले हिंडनबर्ग की रिपोर्ट ने दुनिया में यह धमाल मचा दिया कि अडानी के शेयर लगभग 85% ओवरवैल्यूड हैं। उनके सौ रुपये के शेयर की वास्तविक कीमत असल में मात्र 15 रुपये है। कंपनी भारी कर्ज के दबाव में है और बहुत-सी कानूनी अनियमितताएं भी हैं, मतलब अडानी के शेयर खरीदने वालों के सामने भारी जोखिम है।

इसका परिणाम यह हुआ कि अडानी 25 जनवरी को जो नया शेयर इश्यू करने वाले थे, वह एफपीओ तो संकट में पड़ा ही, अडानी की और दूसरी कंपनियों के शेयर के भाव भी 20- 40 प्रतिशत तक गिर गये और 150 बिलियन डॉलर वाला अडानी समूह 64 बिलियन डॉलर से भी नीचे जा रहा है।

यह समझना लाज़िमी होगा कि किसी भी कंपनी के शेयर को ओवरवैल्यूड करके पूंजी बाजार में पेश करने के मुख्यतः तीन उदेश्य होते हैं। पहला कंपनी के प्रोमोटरों, जो आरम्भ में मुख्य रूप से पैसा लगाते हैं, को भारी मुनाफ़ा देना, दूसरा खुदरा निवेशकों को ठगना और तीसरा शेयर के ओवरवैल्यूड प्राइस के हिंसाब से भारी भरकम कर्ज के लिए दावा करना।

हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के मद्देनजर अडानी की तमाम कंपनियों के शेयर ओवरवैल्यूड हैं और कंपनियों पर उनके कुल असेट्स की तुलना में कर्ज भी ज्यादा है। जो शेयर प्रमोटर के लिए दस रुपये का होता है, वह खुदरा निवेशक के लिए सौ रुपये का होता है, जबकि कंपनी पर उसके असेट के हिसाब से 30-40 प्रतिशत ज्यादा कर्ज दिया गया है और यह कर्ज भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और एलआईसी जैसे संस्थानों से दिया गया है, जहाँ देश के आम जन का पैसा जमा है।

कुल मिलाकर हुआ यह कि प्रमोटर की तुलना में दसगुने अधिक दाम पर शेयर पाने वाले खुदरा निवेशक की गाढ़ी कमाई और उसके टैक्स का जो पैसा बैंकों और एलआईसी जैसी संस्थाओं में जमा था, वह भी अडानी के व्यापार की भेंट चढ़ा हुआ है। जबकि देश ने देखा है कि कैसे विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चौकसी जैसे कर्जखोरों ने देश को लगभग दस लाख करोड़ रुपयों की चपत अभी हाल ही में लगाई है। सरकार इन कॉर्पोरेटों से कर्ज वसूलने में असमर्थ रही और दस लाख करोड़ रुपये बट्टे खाते में डाल दिए गये, जिसे एनपीए कहा जाता है।

शेयर के ओवरवैल्यूड होने का मतलब
अडानी की वे दो-तीन कंपनियां, जो अभी उत्पादन में नहीं आयी हैं, उनके शेयर के भाव आखिर किस बिना पर आसमान छू रहे हैं? कंपनी ने अभी तक उत्पादन से तो कोई मुनाफा नहीं कमाया है, फिर उनके शेयर कैसे चढ़ रहे हैं? असल में शेयरों की कृत्रिम मांग इतनी होती है कि एक आदमी जो शेयर सौ रुपये में खरीदता है, उसे दूसरा आदमी एक सौ दस रूपये में खरीदने को तैयार होता है, इसी हकीकत की परिणति है शेयरों की मांग में वृद्धि और इस वृद्धि की आधारभूत जमीन है अडानी की साख और कंपनी का ट्रैक रिकॉर्ड, ऐसे जैसे कंपनी ने इतिहास में भारी मुनाफा दिया हो। यहाँ एक चीज गौर करने की है कि कंपनी अभी उत्पादन में नहीं आई है और बिक्री के जरिये होने वाला मुनाफा अभी कोसों दूर है। अभी तो मामला सिर्फ पूंजी की जुटान का है, जो निवेशकों के मन में पैसे से पैसा कामाओ की सहज समझ से उपजे भरोसे पर टिका है।

हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने हिलाया अदानी का आर्थिक साम्राज्य

इस संदर्भ में एक स्थिति और है जिसे समझना जरूरी है, कंपनी के 75 % शेयर प्रमोटरों के हाथ में है, निवेशकों के हिस्से तो सिर्फ 25 % ही है। उसमें भी 10% विदेशी निवेशकों के लिए हैं, ऐसे में अब सिर्फ 15% शेयर ही घरेलू व खुदरा निवेशकों के लिए बचे। अब अगर किसी तरह इस 15+10 = 25% शेयरों के भाव को ऊंचाई हासिल हो जाये, तो जरा सोचिये कि प्रमोटरों के हाथ का 75% शेयर उन्हें कितना मालामाल करेगा? इतना जरूर तय है कि ये 25% शेयर, बाजार के रेगुलेटर हैं, जिनकी अहमियत कम से कम शेयर के भाव के लिए बहुमूल्य है।

हिंडनबर्ग की रिपोर्ट साफ-साफ कहती है कि इन 25 % शेयरों का भाव ऊंचा रखने के लिए अडानी ने देश के बैंकों से लिये कर्ज को आयात-निर्यात के जाली दस्तावेजों के जरिये मोरिशस और साइप्रस की शेल कंपनियों को भेजा। पुन: इन शेल कंपनियों ने इस पैसे से अडानी की कंपनियों के शेयर खरीदे, खरीदते रहे, देश में शेयरों की मांग बढ़ती रहे। यह शेयरों के भाव बढ़ाते रहने का एक कृत्रिम उपाय है, जो किसी भी सूरत में न तो कानूनन है और न ही निवेशकों के लिए सुरक्षात्मक।

हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आगे कहती है कि एक तो अडानी की कंपनी का जितना असेट है, उसके अनुपात में उसे कहीं ज्यादा कर्ज दिया गया है। यह जोखिम हमारे सरकारी बैंकों ने लिया है, एलआईसी ने लिया है। और तो और, नई नेशनल पेंशन स्कीम के फंड से भी अडानी की कंपनी को कर्ज दिया गया है। कर्ज देने की प्रक्रिया में बैंकों और एलआईसी जैसी संस्थाओं ने सारे नियम कानून तक पर रख दिये हैं। इन संस्थाओं के नियामक आज अडानी के वर्चस्व के सामने औंधे मुंह गिरे पड़े हैं, जबकि ऐसे उद्योगपतियों का ट्रैक रिकॉर्ड विजय माल्या, मेहुल चौकसी और नीरव मोदी के रूप में हमारे सामने इस रूप में मौजूद है कि अभी पिछले ही साल सरकार को दस लाख करोड़ रुपयों के ऐसे कर्ज को बट्टे खाते में डालना पड़ा है।

अडानी के बिजनेस साम्राज्य से अर्थव्यवस्था को खतरा
अडानी को उनके असेट्स के अनुपात में दिया गया कर्ज बिल्कुल ही तर्कसंगत नहीं है। 42 लाख करोड़ के असेट वाली एलआईसी अगर भारत की 36 लाख कंपनियों में से चुनकर केवल अडानी की कम्पनी में 77 हजार करोड़ का इंवेस्टमेंट कर देती है तो विकास की उसकी यह समझ देश के लिए घातक है, क्योंकि अब एलआईसी के हाथ ये 77 नहीं, सिर्फ 53 हजार करोड़ रुपये रह गये हैं। आज अडानी की करतूतों के चलते दाल के साथ घुन भी पिस रहे हैं। पिछले कुछ हफ़्तों में एलआईसी ने अडानी के जो शेयर खरीदे थे, उनमें बीस-बीस हजार करोड़ का नुकसान हो चुका है।

चुनावी बॉण्ड से भाजपा की आर्थिक संपन्नता चाहे जितनी भी बढ़ी हो और इसमें अडानी की सहभागिता चाहे जितनी भी कम या ज्यादा रही हो, अडानी ने इस देश की आर्थिकी को तो हड़प ही लिया है। आज भारत के सभी सरकारी और निजी बैंकों से अडानी को कुल दो लाख बीस हजार करोड़ का कर्ज मिला हुआ है, जिसकी अभी तक की देनदारी अस्सी हजार करोड़ की है। यह देनदारी चीख रही है, लेकिन इस चीख को सुनने वाली जनता अपने बढ़ते खर्च और घटती बचत से बेपरवाह अंधराष्ट्रवाद में मस्त है।

कोविड काल, शेयर बाजार और मध्यम वर्ग
कोविड काल की महाबंदी से उपजी महामंदी के दरम्यान अडानी के व्यापार साम्राज्य का फलना-फूलना और तेज हुआ। इसका कारण ये था कि मध्यम वर्ग को तब रोजी-रोजगार की समस्या तो थी, लेकिन उसके पास उसकी गाढ़ी कमाई की थोड़ी बचत भी थी, जो बैंकों, एलआईसी, पोस्ट ऑफिस, यहाँ तक कि पीएफ से निकल कर शेयर बाजार में आई। इस आवक ने बारह हजार के सेंसेक्स को सत्रह हजार तक पहुंचा दिया। 2019 तक महज 3 करोड़ डिमैट खाताधारकों वाला देश कोविड काल में ही 10 करोड़ के पार पहुंच गया। शेयर, बॉण्ड खरीद बिक्री के लिए डिमैट खाताधारक होना एक आवश्यक पात्रता है।

यहाँ इस नवउदारवादी पूंजीवाद के इस बदसूरत चेहरे से बेपरहवाह नहीं हुआ जा सकता कि सेंसेक्स दस हजार से सत्रह हजार पर पहुंच गया और बेरोजगारी 45 साल का रिकॉर्ड तोड़ गई। यह अफसोसनाक है कि भारत के मध्यम वर्ग ने शेयर बाजार को जो उत्साह और सहभागिता दी, आज उसकी रक्षा अगर शेयर बाजार की नियामक संस्था सेबी से नहीं हो पा रही है तो यह दुर्भाग्य के सिवा कुछ नहीं है। और यह दुर्भाग्य सिर्फ अडानी और सरकार की मिलीभगत के परिणाम के सिवा कुछ नहीं है।

वर्तमान उथल-पुथल और देश का मीडिया
आज अडानी-हिंडनबर्ग प्रकरण से देश का शेयर बाजार जिस उथल-पुथल से गुजर रहा है, वह देश के लिए कोई नई बात नहीं है। पहले भी ऐसे झंझावत आये हैं, लेकिन बाजार ने इसे हमेशा करेक्टिव मेजर की तरह लिया है और मीडिया हमेशा बाजार के साथ खड़ा रहा है।

हर्षद मेहता की घटना कोई बहुत पुरानी बात नहीं है, तब भी मीडिया बाजार के साथ खड़ा था। आज अडानी के इस प्रकरण पर, जिसे हिंडनबर्ग घोटाला कह रहा है, तमाम टीवी चैनल चुप हैं। हिंडनबर्ग कोई नई बात नहीं कह रहा है, यह सब तो देश में कब से कहा-सुना जा रहा है। क्या ऐसे ही कुछ तथ्यों के खुलासे पर अडानी ने प्रान्जय गुहा ठाकुरता और द वायर जैसे मीडिया संस्थान पर मानहानि का दावा नहीं किया? अब सोचना ये है कि क्या सब कुछ बिक गया है या कुछ बचा भी है?

वर्तमान उथल-पुथल और राष्ट्रवाद
अडानी के सीएफओ को क्या जरूरत पड़ी थी कि वह देश के तिरंगे की पृस्ठभूमि में अपनी सफाई पेश करे! यह मामला तो महज शेयर के भाव में करेक्शन और कॉर्पोरेट से जुड़ी अनियमितताओं भर का है, लेकिन इसे राष्ट्रवाद के रंग में परोसना क्या साबित कर रहा है? क्या अडानी के निवेशक इस नवराष्ट्रवाद के ऐसे समर्थक हैं, जो अपनी गाढ़ी कमाई की जमापूंजी ही लुटा देंगे? नीचे दिए टेबल से अडानी की कंपनियों के असेट और दिये गये कर्ज से हमारे बैंकों को कितना जोखिम उठाना पड़ रहा है, यह समझा जा सकता है।

खुदरा निवेशकों का क्या होगा?
मान लीजिये एलआईसी ने सौ रुपये के भाव से अडानी के एक हजार शेयर खरीदे हैं, मतलब एक लाख निवेश किया है, वह आज अस्सी हजार के स्तर पर आ गया है। इस तरह एलआईसी को बीस हजार रूपये का नुकसान हुआ। आज एलआईसी अगर अस्सी रुपये के भाव से एक हजार शेयर और खरीद ले तो एलआईसी की स्टॉक होल्डिंग एक लाख अस्सी हजार के कुल निवेश पर दो हजार शेयर की हो जायेगी। मतलब अडानी को कर्ज देने वाली, अडानी के शेयर में निवेश करने वाली तमाम ताकतें और निवेश करें, और शेयर खरीदें, अडानी के शेयर के भाव अपनी पूंजी गंवाकर थामते रहें। अगर ऐसा हो तो भी, अडानी इस मुसीबत से खुद को तो बचा लेंगे लेकिन खुदरा निवेशकों और कर्ज देने वाली संस्थाओं के लिए स्थिति ज्यों की त्यों ही बनी रहेगी।

इस प्रकरण का सबसे दुःखद पक्ष यह है कि इसमें सारा खेल पूंजी से मुनाफे का है और चूंकि अडानी बतौर प्रमोटर कंपनी के 75% शेयरों पर मालिकाना हक रखते हैं और उनको मिला हुआ कर्ज उनके असेट से 35-40% ज्यादा है तो उनका हाथ ऊपर है। अगर धंधा चला तो 75% के हिंसाब से सबसे तगड़ा मुनाफा उनका और नुकसान हुआ तो दिवालियापन देश का।

अब अडानी का क्या होगा?
इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि भारत के उन संस्थागत निवेशकों का क्या होगा, जिन पर देश की अर्थव्यवस्था टिकी हुई है? एसबीआई, एलआईसी और तमाम सरकारी और गैरसरकारी बैंकों का क्या होगा? किसी ख़ास दिन, जब अडानी के शेयर 2100 रुपये के थे, उस दिन उनके एफपीओ का भाव 3200 रुपये था, यह कितना मुनासिब है..? इसी एफपीओ में अभी हाल ही में एलआईसी ने 300 करोड़ रुपये फिर लगाये हैं। किस मजबूरी में लगाये? क्या इसी तरह एसबीआई और दूसरे निवेशक भी अडानी को बचाने में अपनी बरबादी के लिए बाध्य होते रहेंगे?

अंतररास्ट्रीय स्तर पर अडानी की स्थिति
22 जनवरी से 2 फरवरी के बीच 10 दिन में अडानी के शेयर से विदेशी निवेशकों ने अपने 44 % निवेश के फंड निकाल लिये थे। स्विटजरलैंड की क्रेडिट सुइस ग्रुप जैसी ग्लोबल संस्था ने अडानी के बॉण्ड मूल्य अपने तमाम क्लाइंट देशों और संस्थाओं के लिए शून्य कर दिया है, यह एक तरह से डीलिस्ट करना हुआ। आस्ट्रेलिया में, जहाँ अडानी के कोयला खदान और पोर्ट हैं, वहाँ की सरकार ने अडानी के पूरे लेन-देन पर जांच बैठा दी है। अमरीका की मॉर्गन स्टेनली कैपिटल इंवेस्टमेंट जैसी मानी हुई संस्था अडानी के पूरे प्रकरण का रिव्यू करवा रही है और तब तक सबकुछ होल्ड पर है। अमरीका के सिटी बैंक ने अडानी की कंपनियों को अब आगे कर्ज न देने की घोषणा कर दी है। अमरीकी स्टॉक मार्केट डाव जोन्स ने, जिसके अंतर्गत अमरीका की 30 बड़ी कंपनीयां लिस्टेड हैं, अडानी को सस्टेनेबल स्टॉक की लिस्ट से बहार कर दिया है।

अंत भला तो सब भला, यह कहावत अडानी के लिए तो ठीक ही है, क्योंकि उनके बिजनेस में 95 % पैसा या तो कर्ज का है या निवेशक का है। देर-सबेर उनका व्यापार या तो संभल जायेगा या वे भी माल्या या नीरव मोदी की राह लेंगे। आखिर अडानी देश के किसान तो हैं नहीं, जिनको कर्ज न चुकाने पर आत्महत्या करनी पड़ जाएगी।

बीती 2 फरवरी को अडानी ने अपना एफपीओ वापस ले लिया, यानी बीस हजार करोड़ के एफपीओ का प्रोग्राम कैंसिल हुआ। ये है बाजार की ताकत, जिसका नेतृत्व हिंडनबर्ग की रिपोर्ट ने किया। जिस तरह से अडानी के शेयरों के भाव गिर रहे हैं, लगता तो यही है कि रिपोर्ट की 85% ओवरवैल्यूड वाली बात सच साबित होगी।

बाजार खुद को जरूर करेक्ट करेगा, लेकिन देश की तमाम वे कंपनियां जिन्होंने अडानी को कर्ज दिया है, उनकी कमर इस रूप में टूटनी तय है कि जब ये कंपनियां अपने डिविडेंट का एक बड़ा हिस्सा सरकार को नहीं दे सकेंगी तो सरकार का रेवेन्यू कम होगा और फिर सरकार या तो टैक्स बढ़ायेगी या कल्याण-योजनाओं को कम करेगी। यह सीधे-सीधे देश की जनता के हक की बात है।

अडानी और भारतीय नियामक
इतना कुछ होने के बाद भी भारत के पूंजी बाजार की नियामक संस्था सेबी अडानी पर अभी अध्ययन ही कर रही है। कम से कम भारत के खुदरा निवेशक इतना तो जरूर समझ गये हैं कि अडानी-अंबानी के सामने उनके हितों की रक्षा सेबी से तो नहीं होने वाली है।

मोरिशस, साइप्रस और यूएई की अनेक शेल कंपनियों को भारत से पैसा भेजना और फिर इस पैसे से अडानी के शेयर खरीदकर शेयर के भाव बढ़ाना, अगर यह कवायद इंफोर्समेंट डाइरेक्टटरेट को मनी लॉन्ड्रिंग नहीं लग रही है तो समझ लीजिये कि ऐसे दुर्दिन देश के सामने कभी नहीं आये थे।

एकदम सीधा सवाल है कि जो रिसर्च हिंडनबर्ग ने किया वह खुद सेबी, आरबीआई, एसबीआई और ईडी ने क्यों नहीं किया? हिंडनबर्ग जैसी एक बिजनेस कंसल्टेंसी के सामने सेबी, आरबीआई, ईडी आदि संस्थाएं आज कितनी बौनी दिख रही हैं!

बाजार की ताकत और अडानी का बौनापन
दुनिया का तीसरे नंबर का धनाढ्य कॉर्पोरेट, जिसके जहाज से प्रधानमंत्री अपने पद की शपथ लेने अपने गृहराज्य गुजरात से दिल्ली आते हैं, जिसके लिए कॉर्पोरेट टैक्स में छूट की फेहरिस्त की लंबाई कोई मायने नहीं रखती, उसके 150 बिलियन का बिजनेस ताश का महल साबित हुआ। बाजार ने यह दिखा दिया कि वह किसी कॉर्पोरेट की चालबाजी समझता है।

इधर अडानी के कर्ज की गूंज जब देश के गली कूचों में डिस्कस होने लगी और सरकार डरने लगी तो अडानी ने एकदम सॉफ्टली बीस हजार करोड़ की एक एफपीओ वाली योजना लांच की। उनकी 150 बिलियन डॉलर की मार्केट कैप और 2 लाख 31 हजार करोड़ के असेट वाली कंपनी के लिए महज 8% के फंड की कहाँ कोई मारा मारी थी? अडानी तो बस आजमा रहे थे कि वह ऐसे दस एफपीओ और ला सकते हैं कि नहीं। अगर ऐसे दस एफपीओ आ जाते तो अडानी भारत के बैंकों का एक-एक पैसा लौटा देते, जैसा कुछ हद तक रिलायंस ने किया है। मतलब अडानी को निवेशकों के बल पर बैंकों के कर्ज से मुक्ति लेनी थी। लेकिन बाजार ने यह साबित कर दिया कि विदेशी संस्थागत और खुदरा निवेशक ठोंक बजा कर निवेश करता है।

आज बाजार से उस देश का गच्चा खाना बहुत दुःखद है, जहाँ के एक प्रतिशत लोगों के पास देश का 55% धन एकत्रित हो गया है, जहाँ की 58% जनसंख्या सरकार की फूड सिक्योरिटी पर आश्रित है, जहाँ की बेरोजगारी पिछले 45 साल का रिकॉर्ड तोड़ रही है।
ट्रिकल डाउन को याद कीजिये

नवउदारवादी पूंजीवाद जिस ट्रिकल डाउन का माला जपता था कि उद्योगपति अगर पूंजी और नगदी से लबरेज हो जाये तो मुनाफ़ा रोजगार के सहारे समाज को तर कर देगा। उस थ्योरी का क्या हुआ? शाइनिंग इंडिया नहीं आया तो क्या हुआ? अच्छे दिन कहाँ हैं?

अंत में बस खुद से एक सवाल पूछिये कि क्या एसबीआई, एलआईसी और अन्य सरकारी संस्थाओं के पैसे की इस लूट से इस देश को नुकसान नहीं होगा? क्या इस नुकसान से देश के आमजन की गाढ़ी कमाई नहीं डूबेगी? क्या इस देश का आमजन इन जालसाज कॉर्पोरेट ताकतों के लिए हमेशा चारागाह ही बना रहेगा? आज देश में बेरोजगारी, मंहगाई और आर्थिक असमानता की बढ़ती खाई को देखिये तो एक शेर लाज़िमी लगता है।

वीरान क्यूं न होवें शहर ए दिल की बस्तियां,
ये वो शहर है, जिसे सौ मर्तबा लूटा गया है।

-जितेशकांत शरण

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