मानव सभ्यता के पिछले 5000 वर्षों के इतिहास में महाभारत तथा राम-रावण के युद्ध ही धर्मयुद्ध थे और वे समाज में ईश्वरीय सभ्यता स्थापित करने के लिए लड़े गये थे। मोहम्मद साहब को भी धर्मयुद्ध करना पड़ा था। उसके बाद जितने भी युद्ध धर्म के नाम पर लड़े गये, उनमें से कोई भी युद्ध ईश्वरीय सभ्यता की स्थापना करने के लिए नहीं, वरन धार्मिक विद्वेष उत्पन्न कर साधारण लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काकर अपनी प्रभुता स्थापित करने के लिए ही लड़े गये।
भारतीय संस्कृति, सभ्यता और परम्परा की जो विरासत हमें मिली है, वह दुर्लभ है। इतिहासकार विंसेंट स्मिथ लिखते हैं कि इसमें कोई शक नहीं कि भारत में भौगोलिक विविधता और राजनीतिक विशिष्टता से कहीं अधिक गहरे उसके अंदर की बुनियादी एकता है। यह एकता रंग, भाषा, वेश-भूषा, मत और संप्रदायों की विविधता से कहीं आगे की वस्तु है।
भारत जब आत्मनिर्भरता की बात करता है, तो आत्मकेंद्रित व्यवस्था की वकालत नहीं करता। भारत की आत्मनिर्भरता में संसार के सुख, सहयोग और शांति की चिंता होती है। जो संस्कृति जय जगत के आदर्श में विश्वास रखती हो, जो जीव मात्र का कल्याण चाहती हो, जो अपनी आस्था में ‘माता भूमिः पुत्रो अहम् पृथिव्यः’ की सोच रखती हो, जो पृथ्वी को मां मानती हो, वह संस्कृति, जब आत्मनिर्भर होने की बात करती है, तब उससे एक सुखी-समृद्ध विश्व की संभावना भी सुनिश्चित होती है। भारत की प्रगति में तो हमेशा विश्व की प्रगति समाहित रही है। भारत के लक्ष्यों तथा कार्यों का प्रभाव सारे विश्व के कल्याण पर पड़ता है।
ईसा की मृत्यु के 564 वर्ष के बाद के सभी युद्ध धर्म के नाम पर लड़े गये हैं, किन्तु इतिहास इस बात का साक्षी है कि धर्म के नाम पर लोगों ने केवल अपनी प्रभुता स्थापित करने के लिए तथा अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए ही लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काकर धर्मयुद्धों की रचना की। वास्तविकता यह है कि मानव सभ्यता के पिछले 5000 वर्षों के इतिहास में महाभारत तथा राम-रावण के युद्ध ही धर्मयुद्ध थे और वे समाज में ईश्वरीय सभ्यता स्थापित करने के लिए लड़े गये थे। मोहम्मद साहब को भी धर्मयुद्ध करना पड़ा था। उसके बाद जितने भी युद्ध धर्म के नाम पर लड़े गये, उनमें से कोई भी युद्ध ईश्वरीय सभ्यता की स्थापना करने के लिए नहीं, वरन धार्मिक विद्वेष उत्पन्न कर साधारण लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काकर अपनी प्रभुता स्थापित करने के लिए ही लड़े गये।
परमात्मा ने इस सृष्टि के प्रथम प्राणी एडम और ईव का धर्म निर्धारित करते हुए उन्हें आज्ञा दी कि तुम्हारा धर्म होगा मेरी आज्ञाओं को जानना तथा उन पर चलना। और मेरा धर्म होगा कि जो व्यक्ति मेरी आज्ञाओं को पवित्र मन से भली-भांति जानकर उन पर चलेगा, मैं उसका कल्याण करूँगा। परमात्मा ने इस सृष्टि के प्रथम प्राणी को बताया कि मेरे और तुम्हारे दोनों के धर्म शाश्वत तथा अपरिवर्तनीय होंगे। मेरा और तुम्हारा दोनों का धर्म एक ही है, बिना किसी भेदभाव के सम्पूर्ण मानवजाति की सेवा करना।
रामायण हमें सीख देती है ‘परहित सरिस धर्म नही भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई’। अर्थात दूसरों का भला करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है तथा किसी को दुख देने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है। या रामायण की चौपाई ‘सिया राम मय सब जग जानी करहूँ प्रणाम जोरि जुग पानी’ अर्थात मैं प्रत्येक पुरुष में भगवान राम तथा स्त्री में जगत जननी माँ सीता की आत्मा के दर्शन करूँ। यह ज्ञान इसी जन्म के लिए ही नहीं, वरन अनेक जन्मों के लिए काफी है। गीता का सार एक लाइन में संसार के समस्त प्राणियों के हित में रत हो जाना है। यदि हम जाति-धर्म का भेदभाव करेंगे तो पूरी गीता भी कंठस्थ कर लें, तो उसका कोई लाभ नहीं मिल सकता। बुद्ध ने ज्ञान दिया कि वर्ण व्यवस्था ईश्वरीय आज्ञा नहीं है, वरन समता ईश्वरीय आज्ञा है। बाइबिल में अपने पड़ोसी को भी अपने जैसा प्रेम करने की बात कही गयी है। कुरान में लिखा है, ‘ऐ खुदा! सारी खिलकत को बरकत दे तथा सारे जहान का भला कर’।
सभी महान अवतार मानवता की भलाई के लिए समय-समय पर युग की आवश्यकता के अनुसार संसार में आये हैं। सभी को इस बात को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए कि सभी धर्मों की आधारशिला मानव मात्र की एकता है और यदि हम संसार के हर इन्सान की भलाई में नहीं लगेंगे, तो पूरी त्रिपिटक, बाइबिल, कुरान, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब पढ़ने का कोई लाभ नहीं होगा। गुरुनानक ने सीख दी कि ‘एक नूर से सब जग उपज्या’ अर्थात यह सारा जग एक परमात्मा से पैदा हुआ है। बहाउल्लाह ने शिक्षा दी कि प्राणी मात्र के बीच हृदय की एकता की जरूरत है। इसलिए हमें आने वाली पीढ़ियों के मन-मस्तिक में बचपन से ही इस बात का बीजारोपण करते हुए कि मानवता एक है, धर्म एक है तथा ईश्वर एक है, उन्हें राम की मर्यादा, कृष्ण का न्याय, बुद्ध की समता, ईशु की करुणा, मोहम्मद साहब का भाईचारा, गुरुनानक का त्याग, बहाउल्लाह की हृदय की एकता का ज्ञान देकर उन्हें विश्व नागरिक के रूप में विकसित करना चाहिए।
-डॉ जगदीश गांधी