आंकड़े और अध्ययन बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक असर खेती पर पड़ रहा है। नतीजे में उत्पादन, बीज, मिट्टी, पानी, यहां तक कि भूख, सभी संकट में फंसते जा रहे हैं। क्या इससे पार पाने का कोई तरीका है? क्या हम खेती की अपनी आदतों को बदलकर इस तबाही को रोक सकते हैं?
प्रकृति की अपनी एक व्यवस्था है जिसमें भरपूर उत्पादन होता है, वह भी बिना रासायनिक खाद और कीटनाशक का इस्तेमाल किए हुए, परंतु इस उत्पादन को वही प्राप्त कर सकता है, जिसके पास प्रकृति के नियम-कायदों, कानूनों को समझने का नजरिया हो। लालच और अंहकार में डूबे लोगों को प्रकृति के अमूल्य तत्वों का सिर्फ दोहन करना आता है, बेहिसाब खर्च करना आता है। इसके चलते जब ये तत्व रीत जाते हैं और प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगता तो ये लालची लोग इसका ठीकरा किसी और पर फोड़ने लगते हैं।
वर्तमान में जलवायु परिवर्तन सुविधाभोगी आधुनिक इंसान के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रहा है। दिन-ब-दिन यह समस्या बढ़ती ही जा रही है, पर मजाल है कि किसी व्यक्ति के कान पर जूं भी रेंग जाए। व्यक्ति तो छोडि़ए, सरकारों के कानों पर भी जूं नहीं रेंग रही है, सिर्फ बड़ी-बड़ी घोषणाएँ हो रही हैं, पर जमीनी स्तर पर सन्नाटा ही पसरा हुआ है।
किसान होने के नाते, भू-स्वामी होने के नाते और एक धरतीवासी होने के नाते हम क्या कर सकते हैं, इस पर विचार करने की जरूरत है। अव्वल तो हमको अपनी भूलने की आदत सुधारनी होगी, बारम्बार आ रहीं आपदाओं को खतरे की घंटी मानना होगा और भविष्य में इन आपदाओं की तीव्रता और न बढ़े, इसके लिए अपने लालच पर लगाम लगाना सीखना होगा। प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन बंद करते हुए हमें आवश्यक और अनावश्यक में अंतर करना सीखना होगा। हमें अपने उपभोग की गति का प्रकृति के पुनर्चक्रण की गति से सामंजस्य बैठाना होगा।
दूसरे, हमें प्रकृति के पुनर्चक्रण में सहयोग करना होगा। यानि हम प्रकृति से जितना ले रहे हैं, उतना ही वापस लौटाने का संकल्प करना पड़ेगा। जब आपका कोई रिश्तेदार या पड़ोसी कोई वस्तु देने आपके घर आता है, तो अक्सर आप उसको खाली हाथ वापस नहीं जाने देते, बल्कि उसी के बर्तन में कुछ-न-कुछ भरकर वापस देते हैं। प्रकृति के साथ भी हमें यही करना है। यदि हम प्रकृति से 100 प्रतिशत तत्व ले रहे हैं, तो कम-से-कम 70 प्रतिशत तो उसे लौटाएँ, तब जाकर संतुलन बनेगा, तब हम भी खुश रहेंगे और प्रकृति भी खुश रहेगी।
कृषि उत्पादन के लिए हम प्रकृति से जो दो चीज़ें,पानी और पेड़, सबसे अधिक ले रहे हैं, उन्हें प्रकृति को वापस लौटाना होगा। पानी की सबसे ज्यादा खपत खेती में होती है और खेती के लिए साल-दर-साल अधिकाधिक जंगल साफ किए जा रहे हैं। इन दो चीजों की भरपाई कैसे करेंगे? इसके लिए हमें अपने-अपने खेतों में छोटे-छोटे तालाब एवं कुँए बनवाने होंगे और खूब सारे पेड़ लगाने होंगे। किसानों को कुल जमीन के 10 प्रतिशत हिस्से में बागवानी और 10 प्रतिशत हिस्से में तालाब या कुँए की व्यवस्था करनी चाहिए।
तालाब और कुँए बनाने से जहाँ एक ओर सिंचाई के लिए भरपूर पानी उपलब्ध होगा, वहीं खेत की मिट्टी और हवा में नमी बढ़ने से उत्पादन में वृद्धि होगी। साथ ही भू-जल स्तर भी बढ़ेगा। बागवानी से पेड़ों की संख्या में इज़ाफा होगा, जिससे तापमान कम होगा, वातावरण में कार्बन का स्तर घटेगा और बारिश बढ़ेगी। मिट्टी का क्षरण रुकेगा, जमीन अधिक उपजाऊ बनेगी। किसानों के मित्र पक्षियों एवं कीटों की संख्या बढ़ने से फसलों का परागण एवं कीट-नियंत्रण अधिक प्रभावी तरीके से होगा।
तीसरे, हमें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के वैकल्पिक स्त्रोत तलाशने होंगे, ताकि प्रकृति को नुक्सान पहुँचाने वाले काम बंद हो सकें। उदाहरण के लिए, आज बिजली हमारे लिए उतनी ही महत्वपूर्ण हो गई है, जितनी हवा। अधिकाँश बिजली कोयला जलाकर पैदा की जाती है और कोयले का दहन जलवायु परिवर्तन की समस्या का सबसे बड़ा कारण है। इसका दूसरा बड़ा कारण है, पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस आदि जीवाश्म ईंधनों का दहन। यदि हम अपनी बिजली और अपना ईंधन किन्हीं और स्त्रोतों से प्राप्त कर सकें, तो प्रकृति को प्रदूषित होने से बचा सकते हैं। हम किसानों को घरों और खेतों में अधिक-से-अधिक सोलर-ऊर्जा का उपयोग करना चाहिए। यदि हर खेत में सोलर पंप लगा दिए जाएँ, तो कितनी बिजली की बचत होगी। ईंधन के लिए गोबर-गैस या बॉयो-गैस का उपयोग बहुत अच्छा विकल्प है।
तीसरी चीज है, प्राकृतिक खाद का उपयोग। रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों के उत्पादन एवं परिवहन में बड़ी मात्रा में ऊर्जा खर्च होती है तथा जीवाश्म ईंधनों का उपयोग होता है। ये रासायनिक उर्वरक व कीटनाशक मिट्टी, पानी और हवा को भी बुरी तरह प्रदूषित करते हैं। इनके स्थान पर प्राकृतिक उर्वरकों का उपयोग करें। एकल फसल की खेती से मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है और जैव-विविधता खतरे में पड़ जाती है, इसलिए हमें चाहिए कि हम बहुफसलीय खेती करें, इससे खेती में हमारा जोखिम भी कम होगा और प्रकृति का संतुलन भी बना रहेगा।
इन सुझावों पर ईमानदारी, दृढ़ निश्चय और दृढ़ संकल्प के साथ कार्य करना आवश्यक है। इसमें सरकार, जनता और किसान सभी की भागीदारी जरूरी है। इस काम में सबसे बड़ा रोड़ा हमारा लालच है, जिसने हमें अँधा कर दिया है। हम देख नहीं पा रहे हैं कि हम उसी डाल को काट रहे हैं, जिस पर बैठे हैं। हमें इस लालच को तुरंत छोड़ना होगा और प्रकृति से नाता जोड़ना होगा। तभी हम पर्यावरण से संबंधित सभी समस्याओं से निजात पा सकेंगे। इससे किसानों की समस्याओं का भी निराकरण हो जाएगा। -सप्रेस
-पवन नागर