महत्वाकांक्षी हुए बिना भी स्वच्छ और प्रामाणिक जीवन जिया जा सकता है. महत्वाकांक्षा अपनेआप में एक हिंसक शब्द है. जिस देश में अस्सी करोड़ लोग सरकार द्वारा दिए जा रहे 5 किलो अनाज पर जिन्दा हैं, इतने गरीब और पिछड़े हुए देश में महत्वाकांक्षी होने की बात हम सोच भी कैसे सकते हैं? महत्वाकांक्षा सहजीवन के मूल्यों को नष्ट करती है और हमारा समाज हमें महत्वाकांक्षा पालने की विद्या सिखाता है.
उत्तम भाई परमार
मैं इस बारे में नहीं जानना चाहता हूं कि पर्यावरण का दुश्मन कौन होता है? क्या परिस्थितियां हैं? क्या हो रहा है? पृथ्वी का भविष्य क्या है? यह सब जाने बिना क्या हम यह जान सकते हैं कि पर्यावरण बिगाड़ने के प्रेरक तत्व कौन से हैं? समझ में आता है कि इसके पीछे हमारी कुटुंब व्यवस्था और शिक्षा व्यवस्था में आया विचलन है. हमारे परिवार और स्कूली व्यवस्था में ही हमें वह सबकुछ सिखाया जाने लगता है, जिसकी वजह से पर्यावरण को खराब करने जितना खतरनाक काम हम सहजता से करते रहते हैं. इसके लिए हमें प्रयास नहीं करने पड़ते. वहां हमें कई ऐसी बातें सिखाई जाती हैं, कई ऐसे मूल्य पढ़ाए जाते हैं, जो हमें कैरियर बनाने और पैसा कमाने की तरफ ले जाते हैं. इस खींचतान में जीवन के बुनियादी उसूल छूटते जाते हैं.
एक शब्द है महत्वाकांक्षा. हमें सिखाया जाता है कि महत्वाकांक्षा होगी, तभी मंजिल मिलेगी. 68 साल की उम्र के बाद मेरा अनुभव आया कि बिना महत्वाकांक्षी हुए भी स्वच्छ और प्रामाणिक जीवन जिया जा सकता है. महत्वाकांक्षा अपनेआप में एक हिंसक शब्द है. जिस देश में अस्सी करोड़ लोग सरकार द्वारा दिए जा रहे 5 किलो अनाज पर जिन्दा हैं, इतने गरीब और पिछड़े हुए देश में महत्वाकांक्षी होने की बात हम सोच भी कैसे सकते हैं? महत्वाकांक्षा सहजीवन के मूल्यों को नष्ट करती है और हमारा समाज हमें महत्वाकांक्षा पालने की विद्या सिखाता है. अपने आसपास के लोगों और वातावरण के साथ सहजीवन हम इसीलिए नहीं जी पाते, क्योंकि हमारे मन में महत्वाकांक्षा का जहर भरा होता है. हम बहुत गर्व से लोगों को बताते हैं कि मैं अपने भाई से ज्यादा कमाता हूँ. मैं अपने भाई से ज्यादा पढ़ा लिखा हूँ. मेरी मिल्कियत और हैसियत मेरे भाई से अधिक है.
हमारी पारंपरिक समाज और परिवार व्यवस्था में सहजीवन ही होता था. सारे लोग, हर तरह के लोग, कमाने वाले या न कमाने वाले, बीमार या स्वस्थ, शरीफ या शरारती, कमाऊ या नशेड़ी सबलोग मिलकर रहते थे और सबके सहयोग से सफलतापूर्वक सबके काम भी हो जाते थे. वह जीवन छोड़कर. महत्वाकांक्षाएं पालकर हमने जीवन के दूसरे रास्ते चुने और घटते संसाधनों तथा बढ़ती जरूरतों के चलते जाने अनजाने प्रकृति के दोहन में भी शामिल हो गये. सोचकर देखिये कि आज हमारे लोगों से हमारे कैसे रिश्ते हैं. मां, बहन, बुआ, मित्र या जो भी महिलाएं हमारे साथ हैं, उनके साथ हमारे रिश्तों में स्वार्थ की भावना भर गयी है. ये भावनात्मक रूप से शोषण के रिश्ते हो गये हैं. महिलाएं दोयम दर्जे की नागरिक बनकर जी रही हैं. महिलाओं के साथ हमारे संबंध, दलितों के साथ हमारे संबंध, आदिवासियों के साथ हमारे संबंध, श्रमिकों के साथ हमारे संबंध या गुरु सेवक और सेविका के साथ हमारे संबंध, सभी के साथ हमारे सम्बन्ध ऐसे ही हैं. संबंधों में भावनामक शोषण ज्यादा है. यही बात आगे जाकर प्रकृति से जुड़ती है.
अनेक बार जब मैं आदिवासी बस्तियों में जाता हूँ तो उनसे माफ़ी मांगता हूँ, यह कहकर कि मैं आपका शोषक हूं. क्योंकि मैं शहर में जहां रहता हूँ, वहां तमाम सुविधाओं का भोग कर रहा हूँ. ये सुविधाएँ आपके शोषण पर टिकी हैं. हमने उसका शोषण किया, इसलिए ‘सभ्य’ कहलाये. विकास करके हमने कोई बहुत अच्छा दृश्य नहीं खड़ा कर दिया है. मैं तो आज के नगरों की बसावट और उनकी संरचना से बहुत दूर कहीं भाग जाना चाहता हूँ. इसी सेवाग्राम की संरचना देख लीजिये. एक टेक्नोलोजी सड़क के इस तरफ है, दूसरी उस तरफ है. एक हमारे पूर्वजों की टेक्नोलोजी है, दूसरी हमारी उत्तर आधुनिक टेक्नोलोजी है. दो सभ्यताओं के तुलनात्मक अध्ययन के लिए और कहीं जाने की जरूरत नहीं. यह बीच का रास्ता हमारे लिए एक ही स्थान पर दो सभ्यताओं का मॉडल एक साथ रच रहा है.
विकास, महत्वाकांक्षा और आधुनिक जैसे शब्दों ने हमें गुमराह किया है. आजकल कृत्रिम जीवनशैली के लिए चारों तरफ मोटिवेशनल प्रोग्राम होने लगे हैं. यह प्रकृति और मानव चेतना का दोहन करने के लिए खड़ा किया जा रहा एक प्रकार का महाजाल है. जो आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्ग के बच्चे स्कूल छोड़कर बैठे हैं, उन्हें वापस स्कूल ले आने के लिए कोई मोटिवेशनल प्रोग्राम नहीं चलता. हमें इन परिस्थितियों पर मनन करना चाहिए, तभी कोई बेहतर रास्ता सूझेगा.