विकास की पुनर्परिभाषा जरूरी

सकल घरेलू उत्पाद केंद्रित विकास को पुनर्परिभाषित करना जरूरी है. क्या बिल्कुल जीडीपी सेंट्रिक विकास ही विकास है? सिर्फ सड़कें चौड़ी हो जाना विकास है? सिर्फ इमारतों का ऊंचा हो जाना विकास है? और सिर्फ पहाड़ों में से सुरंग बन जाना विकास है?

अनुपम

मैं कई बार कहता हूं कि महात्मा गांधी खुद में इस समाज के सर्वांगीण विकास के घोषणा पत्र हैं. इस इंटरकनेक्टिविटी को समझने के लिए गांधीजी के विचार, व्यवहार व जीवन दर्शन को समझना सबसे सहायक होगा.

पर्यावरण की चुनौती भी युवाओं के लिए एक बड़ी चुनौती है. चुनौती यह कि हम आने वाले कल को कैसे बचा सकें. गांधी जी के दर्शन को गाइडिंग लाइट मानते हुए हमने अपने जिस देश की परिकल्पना की, वह परत दर परत खोखला होता जा रहा है, वह कितना बचेगा यह बहुत बड़ी चुनौती है. जो हिंदुस्तान पूरी दुनिया में लोकतंत्र की नजीर रहा है, आज देखिए हमारे लोकतंत्र को लेकर दुनिया भर में किस तरह की बातें हो रही है, यह भी एक बड़ी चुनौती है. अपनी जाति, धर्म, वेशभूषा, भोजन, भाषा, क्षेत्र आदि विविधताओं को हम भारत जोड़ने का माध्यम बना सकते हैं, हमारे देश के विचार के केंद्र में ही यूनिटी इन डाइवर्सिटी रहा है.

जो चीजें भारत को जोड़ने का माध्यम बन सकती हैं, क्या उनको आज हमने लड़ने का हथियार बना लिया है? अगर ऐसा है तो हम बचेंगे कि नहीं, एक बड़ी चुनौती यह भी है. हमारे अपने शानदार संविधान ने हमसे राजनीतिक सामाजिक और आर्थिक बराबरी का जो वादा किया था, उन वादों पर हम कितना खरे उतर पाए, मुझे लगता है कि यह भी एक बड़ी चुनौती है.

हम दुनिया के उन चुनिंदा देशों में से हैं, जिसने पहले दिन से ही हर व्यक्ति के लिए, चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का हो, किसी कोने में रहता हो, कोई भी भाषा बोलता हो, सबको वोट का अधिकार दिया, लेकिन लोगों के बीच बनी सामाजिक, आर्थिक विषमता को पाटने के काम में हम पिछले कुछ दशकों में आगे बढ़े हैं या पीछे गए हैं? और आने वाले समय में कहां जाएंगे? मुझे लगता है कि युवाओं के सामने यह भी एक चुनौती है और जब युवाओं के सामने चुनौती की बात होती है तो देखने की बात होगी कि आर्थिक विषमता को दूर करने के टूल्स क्या होंगे?

आप में से ज्यादातर लोग सहमत होंगे कि आर्थिक विषमता को मिटाना, सामाजिक विषमता को खत्म करने के महत्वपूर्ण माध्यमों में एक है. हमारे देश की युवा पीढ़ी को शिक्षा मिले, रोजगार मिले, कौशल मिले, मूल्य मिले, इस बात से किसको इनकार होगा भला!

हमारे देश की बहुत बड़ी आबादी है, वर्किंग पापुलेशन में जिसका सीधा योगदान हो सकता है. सकल घरेलू उत्पाद केंद्रित विकास को पुनर्परिभाषित करना जरूरी है. क्या बिल्कुल जीडीपी सेंट्रिक विकास ही विकास है? सिर्फ सड़कें चौड़ी हो जाना विकास है? सिर्फ इमारतों का ऊंचा हो जाना विकास है? और सिर्फ पहाड़ों में से सुरंग बन जाना विकास है?

शिक्षा, रोजगार, कौशल आदि टूल्स पर हमारी स्थिति क्या है? यह सरकार का अपना आंकड़ा है कि हमारे देश में बेरोजगारी ने 45 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है. यह आंकड़ा कोरोना के भारत में आने से पहले का है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट है कि हर 2 घंटे में 3 बेरोजगार खुदकुशी कर रहे हैं. लेकिन यह बात मेनस्ट्रीम डिबेट से गायब है, कहीं कोई चर्चा नहीं होती है. ऑक्सफैम की रिपोर्ट कहती है कि भारत के 1% अमीरों के कब्जे में देश की 40% संपत्ति है. इसके अलावा पूरी की पूरी आधी आबादी मात्र 3% संसाधन पर अपना गुजारा करती है. इस विषमता का आलम देखिये कि जब आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई सब बढ़ रहे हैं, ठीक उसी दौर में हमारे ही देश की उसी अर्थव्यवस्था में ऐसे लोग भी हैं, जो अमीरी के रिकॉर्ड तोड़ रहे हैं.

युवाओं के समक्ष चुनौती की बात हो रही है तो यह सब बातें महत्वपूर्ण हैं. बेरोजगारी जीवन मरण का सवाल बन चुकी है और राष्ट्रीय आपदा का रूप ले चुकी है. जब समाधान की बात आती है, तो फिर से हमको गांधीजी की तरफ देखना पड़ता है. आज देश भर के नौजवानों को एकजुट करके बेरोजगारी के खिलाफ देश के बेहतर भविष्य के लिए एक बड़ा आंदोलन खड़ा करने की आवश्यकता है.

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