14 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अखंड भारत के विखंडित होने का दिवस मनाने की घोषणा की और 15 अगस्त को लाल किले से राष्ट्र के नाम संदेश में भी उन्होंने इसे दोहराया। मुझे आश्चर्य हुआ कि प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने प्रथम पंद्रह अगस्त के संबोधन में 125 करोड़ की ‘टीम इंडिया’ की बात करने वाले प्रधानमंत्री अब सात साल बाद—‘भारत के विखंडित होने का दिवस’ मनाने की घोषणा कर रहे हैं! इसे मनाने से पहले उन्हें चाहिए कि वह डॉ. राममनोहर लोहिया की किताब ‘भारत विभाजन के गुनहगार कौन?’ पढ़ें, और जिस संघ के सत्रह साल की उम्र में वह स्वयंसेवक बने थे, उसकी और उसके जैसे हिंदुत्व की राजनीति करने वाले और मुसलमानों की राजनीति करने वाले दोनों तत्त्वों की भूमिका क्या रही, इस बारे में दोबारा सोचें।
आगे आने वाले पांच राज्यों के चुनाव और बाद में लोकसभा चुनाव को लेकर अब और कोई मुद्दा नहीं है। आम लोगों के लिए सात साल में आपने किया क्या है? इस सवाल से ध्यान हटाने के लिए इस तरह की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति बार-बार कितनी काम आएगी?
क्योंकि किसी को भी एक बार बेवकूफ बनाया जा सकता है, बार-बार नहीं। मंदिर-मस्जिद की राजनीति करने वाले, दोबारा सत्ता में आने के बाद भारत के आम लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए कुछ भी न करने वाले, सिर्फ और सिर्फ कॉरपोरेट घरानों की तिजोरियां भरने के लिए भारत के सभी पुराने कानूनों को बदलने का काम कर रहे हैं। संसद के मानसून सत्र के दौरान विरोधियों की अनुपस्थिति का फायदा उठाकर इक्कीस दिन में बीस संशोधन बिल पास करवा लिए और ऊपर से आरोप लगाते रहे कि विरोधी दल संसदीय लोकतंत्र का अपमान कर रहा है।
आज से नब्बे साल पहले जर्मनी में संसद का इस्तेमाल इसी तरह करने के उदाहरण याद आ रहे हैं। संसद में विरोधी दलों के लिए किसी भी तरह का स्थान नहीं दिखायी देता है। ‘बनाना रिपब्लिक’ की तरह सिर्फ अपनी मनमर्जी से इसे चलाने के लिए, मार्शलों का इस्तेमाल करना कौन-सी लोकतांत्रिक पद्धति है? देश के महत्त्वपूर्ण क्षेत्र कृषि और पेगासस जासूसी जैसे गंभीर मुद्दों पर बहस करने की मांग कौन-सी गलत मांग थी?
भारत विभाजन जैसी पचहत्तर साल पुरानी बात आज अचानक याद कैसे आयी? और आयी है तो धर्म के आधार पर भारत के बंटवारे की मांग करने वाले लोगों में आपका अपना संघ परिवार भी शामिल था। सावरकर-गोलवलकर की हिंदुत्ववादी विचारधारा और मुस्लिम लीग की अलग राष्ट्र की मांग का एक ही कारण है! धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले पाकिस्तान के पच्चीस साल के भीतर दो टुकड़े हो गए थे। इधर सिंध, बलूचिस्तान, स्वात, फेडरल एडमिनिस्ट्रेट ट्रायबल एरिया के लोगों द्वारा लगातार अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी जा रही है।
भारत में हिंदुत्व के नाम पर राजनीति करने का नतीजा हिंदू तालिबानी मानसिकता के रूप में हमारे सामने है। इसीलिए अभिनव भारत, सनातन संस्था, बजरंग दल और हिंदू वाहिनी जैसे संगठनों को प्रश्रय देने वालों और मुसलमानों की तालिबान जैसी बर्बरतापूर्ण राजनीति करने वाले लोगों के बीच क्या फर्क है?
अगर भारत के विखंडित होने का इतना ही गम है तो यह भी जान लें कि भारत के बंटवारे में धर्म के नाम पर राजनीति करना ही मुख्य कारण रहा है! इतिहास की जुगाली करने से नहीं चलेगा, अतीत में की गयी गलतियाँ नहीं दोहराना ही सही उपाय है। अन्यथा आज बंटवारे के समय से ज्यादा मुसलमान भारत में रह रहे हैं और लगातार दंगा, माब लिंचिग, लव-जेहाद, गोहत्या, धर्म-परिवर्तन जैसी भावनाओं को भड़काने वाले मुद्दों को हवा देकर इतनी बड़ी आबादी को असुरक्षित मानसिकता में डालने का मतलब उसे एक और बंटवारे की तरफ उकसाना है। कोई भी इन्सान बहुत लंबे समय तक जिल्लत भरी, अपमानित जिंदगी जी नहीं सकता है। इसलिए अगर देर से ही सही, आपको बंटवारे की याद आयी है तो भारत के बंटवारे के असली गुनाहगार कौन हैं, यह जानने के लिए डॉ. राममनोहर लोहिया की दो किताबें- ‘भारत विभाजन के गुनाहगार’ और ‘हिंदू बनाम हिंदू’ जरूर पढ़िए। भारत के बंटवारे के पीछे धर्म के नाम पर राजनीति करना मूल कारण है, इसे समझने के लिए यह किताब पढ़ना जरूरी है।
हिंदू धर्म के 85 फीसदी से भी अधिक लोगों में पिछड़ी जातियों का शुमार होने के बावजूद उनकी प्रगति के लिए क्या हो रहा है? सभी सभ्य देश अपने देश के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और अन्य कारणों से पिछड़े वर्ग के लोगों को अफर्मेटिव ऐक्शन के तहत अपना नैतिक और संवैधानिक कर्तव्य समझते हुए रिजर्वेशन देते हैं। हम तो हजारों सालों की ऊंच-नीच की परंपरा वाले देश हैं, कितना बड़ा बैकलॉग है? जिसे भरने के लिए आजादी के पचहत्तर साल बाद भी भारत की पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान करते हुए कंजूसी बरत रहे हैं। 85 फीसदी लोगों को सिर्फ 50 फीसदी में निपटा रहे हैं। जब अन्य संशोधन कर सकते हैं तो रिजर्वेशन का प्रावधान पचास प्रतिशत से ज्यादा क्यों नहीं करते हैं? यह आनुपातिक तौर पर भारत की आबादी के विपरीत निर्णय है, और इसे ठीक करने के बजाय राज्यों के मत्थे मढ़ दिया जाता है। भारत में हजारों सालों की ऊंच-नीच और अस्पृश्यता जैसी घृणास्पद प्रथाओं के कारण यहां की पच्चासी प्रतिशत जनसंख्या को कभी भी बराबरी का दर्जा नहीं मिला। संसद में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान करते हुए उसी पचास प्रतिशत में सबको घुसाकर लोगों को आपस में ही लड़वाना कौन-से सामाजिक न्याय के दायरे में आता है?
वैसे भी गत सात सालों से सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम एक-एक करके निजी क्षेत्र के हाथों बेचकर सरकारी नौकरी की उपलब्धता कम की जा रही है। तो भारत सरकार या राज्य सरकारों की नौकरी देने की क्षमता क्या रह जाती है? यूं भी सरकार की नौकरी देने की ऐसे में क्षमता दो प्रतिशत से अधिक नहीं है। कार्पोरेट्स में भी रिजर्वेशन का प्रावधान करना चाहिए। लेकिन कार्पोरेट्स को फायदा पहुंचाने के अलावा एक भी निर्णय आम लोगों के हित में न लेते हुए सरकार उन्हें भावनात्मक रूप से मंदिर-मस्जिद, गोहत्या, लव-जेहाद, धर्म परिवर्तन जैसे भावनाओं को भड़काने वाले मुद्दों में उलझाकर रखना चाहती है।
पचहत्तर साल पहले देश विभाजन के कारणों को देखिए, फिर विभाजन के नाम पर राजनीति करने का अगला कदम उठाइए। अन्यथा यह मुद्दा परस्पर पूरक होने के कारण, आप के दल और मातृसंगठन को सदियों का हिसाब देना पड़ेगा।