ग्रामीण पुनरुत्थान का छत्तीसगढ़ मॉडल
आजादी के बाद हमने जिस शहर केंद्रित विकास मॉडल को अपनाया, उसने ग्रामीण भारत के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया। ग्रामीण विकास के कुछ सफल प्रयोग ग्राम्य स्तर पर अवश्य हुए, लेकिन इससे ग्रामीण भारत की निराशा कम नहीं हुई। छत्तीसगढ़ में पहली बार ग्रामीण पुनरुद्धार का राज्यव्यापी मॉडल आकार ले रहा है। यह लेख इसकी पृष्ठभूमि, इसकी विशेषताओं और इससे उत्पन्न अनेक संभावनाओं के बारे में बात करता है.
बीते वर्ष देश, किसानों के एक अभूतपूर्व आंदोलन का गवाह बना। केवल लोकनायक का आंदोलन छोड़ दें, तो आजादी के बाद देश में इतने बड़े पैमाने पर कोई अन्य आंदोलन नहीं हुआ। इस आंदोलन ने पूरे देश पर अपना असर डाला। इस आन्दोलन ने किसानों के दिलों में सालों से पल रहे आक्रोश को उजागर किया। भारत के किसानों की यह तकलीफ बहुत पुरानी है कि उन्हें अन्याय सहना पड़ रहा है।
साठ के दशक की हरित क्रांति के साथ ही कृषि और किसानों की दुरावस्था शुरू हो गयी थी। इसमें अपनाई गई कृषि की नई तकनीकें, परंपरा से उत्पन्न एवं वर्षों के संचित ज्ञान का उपयोग करने वाले तकनीकी ज्ञान से बिल्कुल भिन्न थीं। प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण एवं संवर्धन, जैविक संसाधनों का उचित उपयोग, फसलों की विविधता, उनका रोटेशन, पारंपरिक फसलों के बीजों का संरक्षण आदि वर्षों से चली आ रही हमारी कृषि की विशेषताएं थीं। यद्यपि इस कृषि प्रणाली की कुछ सीमाएं थीं और बढ़ती जनसंख्या के कारण देश को खाद्य उत्पादन बढ़ाने के लिए एक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा था, पर कुल मिलाकर, पारंपरिक खेती कृषि-उपज के मामले में लगभग आत्मनिर्भर थी और मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता काफी हद तक संरक्षित थी। हरित क्रांति के दौरान अपनाई गई नई तकनीकों ने किसानों की निर्भरता बाज़ार पर बढ़ा दी, भूमि को नष्ट कर दिया, प्राकृतिक उत्पादकता को कम कर दिया और कृषि की लागत में वृद्धि कर दी. खाद्य उत्पादन में वृद्धि तो हुई, लेकिन उपज विषाक्त हो गई; कृषि और कृषि प्रणालियों की आर्थिक, पारिस्थितिक और सामाजिक स्थिरता नष्ट हो गई। नब्बे के दशक में राष्ट्रीय स्तर पर ‘निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण’ की नीति अपनाए जाने के बाद इस कृषि नीति का आम किसानों के जीवन पर बहुत विनाशकारी प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप, किसानों का कर्ज बढ़ता गया, किसानों की आत्महत्याओं का न थमने वाला सिलसिला शुरू हो गया, देहातों मे जीना मुश्किल हो जाने से ग्रामीण लोक, शहरों की ओर चल पड़ा।
यदि हम ग्रामीण क्षेत्र की इस बदहाल स्थिति से पार पाना चाहते हैं, तो प्रचलित धारणाओं के बारे में अलग तरीके से सोचना और उसके अनुसार सामूहिक कार्रवाई करना जरूरी है। एक विकल्प, जो आज़ादी के समय से कहा जा रहा था, यह था कि व्यक्ति का विचार न करते हुए, पूरे गांव के संसाधनों को एक समूह के रूप में पुनर्नियोजित किया जाए और ग्रामीणों के सामूहिक प्रयास से गांव का विकास हो। उन दिनों यह माना जाता था कि ऐसी योजनाएं सर्वोदयी स्वप्न रंजन का हिस्सा मात्र हैं। लेकिन इसी बीच, रालेगण सिद्धि और हिवरे बाजार जैसे मॉडल सामने आए, यद्यपि वे बड़े पैमाने पर फैल नहीं सके। तो इस तरह का मॉडल एकाध गांव में ही स्थापित किया जा सकता है और व्यापक स्तर पर विकास के लिए सर्वोदयी परिकल्पना ही सक्षम होगी, हमारी यह समझ पिछले कई दशकों में दृढ़ होती गयी है।
छत्तीसगढ़ सरकार ने इस चुनौती को स्वीकार किया है। उन्होंने केवल प्राकृतिक संसाधनों का सही एवं समुचित उपयोग करके और लोगों की भागीदारी बढ़ाकर, बिना बाहरी मदद के ग्रामोन्मुख विकास का एक नया मॉडल ईजाद किया है और इसे राज्य के हजारों गांवों में लागू भी किया है। हालांकि यह प्रयोग अभी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है, लेकिन इसके शुरुआती निष्कर्ष बहुत उत्साहजनक हैं और कोरोना के बाद के युग में सभी के लिए मार्गदर्शक भी।
प्रवर्तक और प्रेरणा
छत्तीसगढ़ के इस अभिनव प्रयोग के प्रवर्तक एक उच्च शिक्षित युवा प्रदीप शर्मा हैं। भूविज्ञान और पेट्रोलियम अभियांत्रिकी में स्नातकोत्तर प्रदीप शर्मा ने कुछ समय तक पेट्रोलियम क्षेत्र की नामी कंपनियों में काम किया, लेकिन उनकी नाल हमेशा ही उनकी ग्रामीण विरासत और उनकी पुश्तैनी खेती से जुड़ी रही। यही कारण है कि चालीस वर्ष की आयु में ग्रामीण क्षेत्र के विकास में खुद को खपा लेने के लिए वे अपने पैतृक गांव चले आए। उन्होंने तय किया कि परंपरागत ज्ञान और सहकारी जीवन शैली की समृद्ध परंपरा का सम्मान करते हुए ग्रामीण विकास का प्रयास गांव की संयुक्त शक्ति से ही आगे बढ़ाना होगा। हर गांव एक आत्मनिर्भर गणतंत्र बने, यह गांधीजी के ग्रामस्वराज्य की कल्पना थी। प्रदीप शर्मा ने इसी इस वैचारिक पृष्ठभूमि पर बिलासपुर और अन्य जिलों के कुछ गांवों में स्थानीय ग्रामीणों की भागीदारी से विकास कार्य शुरू किये। सौ से अधिक गांवों में जन संगठन बनाना, ग्राम सभा के माध्यम से कृषि पर सामूहिक निर्णय लेना, किसानों की उत्पादन कंपनियां बनाकर सामूहिक सौदेबाजी के माध्यम से कृषि उपज के बेहतर मूल्य प्राप्त करना आदि उनके महत्वपूर्ण कदम थे। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने उनके काम के बारे में जानकर उन्हें अपने साथ आने का न्यौता दिया। बघेल खुद भी गांधी, विनोबा और सर्वोदय के विचारों से संस्कारित रहे हैं। प्रदीप शर्मा ने उनका साथ देने का फैसला किया।
छत्तीसगढ़ की परंपराएं और रीति-रिवाज प्रकृति से जुड़े हुए हैं। भूपेश बघेल ने प्रदीप शर्मा के साथ छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में करीब एक हजार किलोमीटर पदयात्रा की और ग्रामीणों से संवाद किया। उनकी पदयात्रा का मुख्य सूत्र था- छत्तीसगढ़ के चार चिन्हारी,नरवा, गरुआ, घुरवा, बारी। उन्होंने छत्तीसगढ़ की पहचान और लोगों के जीवन का आधार- ‘नरवा, गरुवा, घुरवा और बाड़ी’ के तत्वों को पुनर्जीवित करने का वादा किया। ग्रामीणों ने इस कार्यक्रम में किसानों की गरीबी दूर करने की शक्ति देखी, इसलिए उन्होंने भूपेश बघेल को भारी बहुमत से सत्ता में पहुँचाया। सत्ता में आते ही उन्होंने प्रदीप शर्मा को बतौर कैबिनेट मंत्री नियुक्त किया और उन्हें नियोजित नरवा, गरुआ, घुरवा और बाड़ी विकास कार्यक्रमों को लागू करने की जिम्मेदारी सौंपी। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण पुनरुद्धार के बीज इसी अभिनव कार्यक्रम में निहित हैं।
नरवा, गरुवा, घुरवा और बाड़ी
आइये, छत्तीसगढ़ के इन शब्दों के अर्थ और जो वे इंगित करते हैं, ग्रामीण जीवन से जुड़ी उन अवधारणाओं को समझ लेते हैं। ‘नरवा’ (नहर, नाले) के विकास का अर्थ है ग्रामीण क्षेत्र से बहने वाली छोटी नदियों और झरनों का संरक्षण और संवर्धन। ‘गरुआ’ (मवेशी) का संबंध पशुधन प्रबंधन और उत्पादकता से है। ‘घुरवा’, गोबर और कृषि अपशिष्ट से अच्छी खाद का उत्पादन करने से संबंधित है, और ‘बाड़ी’ यानी घर के पिछवाड़े विभिन्न सब्जियों और फलों की खेती से सम्बंधित है। छत्तीसगढ़ सरकार ने इस व्यापक पहल का नाम ‘सुराजी गांव योजना’ रखा है।
भूपेश बघेल
हम यह समझने के लिए उत्सुक थे कि यह सब कहां तक हासिल किया गया और इस महत्वाकांक्षी योजना को वास्तव में कैसे लागू किया जा रहा है। इसके लिए गत अक्टूबर में विदर्भ के कुछ चुनिंदा सामाजिक कार्यकर्ताओं की छत्तीसगढ़ के तीन दिवसीय अध्ययन दौरे की योजना बनाई गई। ग्राम स्तर पर चल रहे विभिन्न कार्यों का निरीक्षण करने के अलावा, हमें ग्रामीणों से बातचीत करने और यह समझने का भी मौका मिला कि परियोजना के तहत प्रशासनिक व्यवस्था कैसे काम करती है। दौरे के अंतिम दिन मुख्यमंत्री से भी विस्तृत चर्चा हुई।
‘नरवा’ में वर्षा जल को रोककर भूजल-स्तर बढ़ाने के लिए ग्रामीण अथवा वन क्षेत्र में छोटे-छोटे प्रवाहों एवं नालों को कुछ ही दूरी पर अवरुद्ध करने की व्यवस्था की गयी। ऐसा करते समय नालों पर बड़े जलाशय बनाने का उद्देश्य नहीं है। इस बात का ध्यान रखा जाता है कि ये नाले तीन फीट से ज्यादा न खोदे जाएं। छोटे चेक डैम डालकर, छोटे-बड़े प्रवाहों को अवरुद्ध करके यह काम किया जाता है। जल संरक्षण का यह कार्य वनाधारित आदिवासियों और जंगली जानवरों को पीने का पानी उपलब्ध कराता है, साथ ही भूजल-स्तर भी बढ़ाता है, जिससे दोहरी फसल की संभावना बढ़ जाती है।
‘गुरवा’ के तहत पहला कदम मवेशियों की देखभाल के लिए सामूहिक व्यवस्था का निर्माण था। इन गौठानों को ‘गौ पालनाघर’ कहा जाता है। जैसे माता-पिता काम पर जाते समय अपने बच्चों को दिन भर नर्सरी में रखकर निश्चिंत रहते हैं, वैसे ही किसान भी दिन में अपने मवेशियों को इन गौशालाओं में रखते हैं। उन्हें वहीं खिलाया जाता है। वहीं दवा और टीकाकरण भी किया जाता है। शाम को किसान मवेशियों को घर ले जाता है। यद्यपि गौठान प्रणाली ग्रामसभा के नियंत्रण में है, पर इसके दैनिक मामलों को लोगों द्वारा सर्वसम्मति से निर्वाचित प्रबंधन समिति को सौंपा जाता है, जिसमें अधिकांशत: गांव के युवा होते हैं। एकत्रित गोबर से बायोगैस प्लांट चलाया जाता है। उसमें से निकलने वाली स्लरी एवं मवेशियों द्वारा खाए जाने वाले चारे से बचे कचरे का उपयोग किया कर गाँव मे एक तरफ वर्मी कम्पोस्टिंग की जाती है, इसकी जिम्मेदारी महिलाओं के एक समूह को दी गई है। बायोगैस संयंत्र के बगल में एक उद्योग घर है, जहां गाँव के लिए उपयोगी विभिन्न मशीनें कार्यरत हैं। इनमें चावल निकालने, चारा काटने और बाड़ लगाने के लिए तार-जाल बनाने वाली मशीनें हैं। इसमें भी गांव के युवाओं और महिलाओं की भागीदारी बड़े स्तर पर है। हर गौठान में एक खुला हॉल बनाने की योजना भी है, ताकि गांव के लोग एक साथ बैठकर चर्चा कर सकें। गौठान को कलाकारों के लिए ‘सामुदायिक सहायता केंद्र’ और हाट बनाने की योजना भी है।
छोटे परिवहन और छोटे किसानों के लिए गौठान प्रबंधन समितियों ने बैलगाड़ियां खरीदने और उन्हें लोगों को किराए पर देने की व्यवस्था की है। धान का भूसा गौठानों तक नि:शुल्क लाने की व्यवस्था भी की गई है, इससे मवेशियों के चारे और जैविक खाद उत्पादन की सुविधा हो गयी। आवारा मवेशी खेतों में घुसकर फसलों को नुकसान पहुंचाते थे, जो अब गौठानों की वजह से बंद हो गया है। छत्तीसगढ़ सरकार ने अब गाय का गोबर खरीदकर उससे वर्मी कोंपोस्ट बनाने के लिए ‘गोधन न्याय योजना’ नामक एक नया कार्यक्रम शुरू किया है। इसका आर्थिक लाभ मुख्य रूप से भूमिहीन और चरवाहा परिवारों को हो रहा है। अच्छी गुणवत्ता वाले जैविक उर्वरकों की उपलब्धता से मिट्टी की उर्वरता बढ़ेगी और लाभदायी कृषि की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम होगा।
प्रदीप शर्मा
‘घुरवा’ के तहत गांव में मवेशियों के पोषण के लिए क्षेत्र की परती भूमि का उपयोग करके जहां एक तरफ विभिन्न नस्लों के चारे की खेती की गई है, वहीं दूसरी तरफ ‘बाड़ी’ कार्यक्रम में घरों के आंगन में सब्जियां और फलदार पेड़ लगाने पर जोर दिया गया है। इसके अलावा महिला स्वयं सहायता समूहों के लिए सामूहिक स्तर पर 3-4 एकड़ क्षेत्र में विभिन्न सब्जियां लगाने और उसके लिए आवश्यक पानी उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है। एक गांव में दिवाली के लिए महिलाओं का एक समूह गोबर और मिट्टी से दिये बनाने में लगा हुआ था। मिट्टी छानने और उसे पानी के साथ ठीक से मिलाने के लिए मशीनें तथा मिट्टी के गोले और दिये बनाने के लिए लिए सांचे प्रदान किये गए थे। इन महिलाओं ने एक लाख से अधिक दियों का उत्पादन किया था और प्रशासन ने ये दिए बेचने की व्यवस्था भी की थी।
परिणाम एवं भावी योजनाएं
छत्तीसगढ़ में लगभग 20,900 गांवसभाएं हैं। हमारे अध्ययन भ्रमण के दौरान 1905 पंचायतों में 30 हजार एकड़ भूमि पर ‘सुराजी ग्राम योजना’ प्रारंभ की गयी थी। फरवरी 2021 के अंत तक 5,262 गौठानों को सक्रिय किया जा चुका था, इसके अलावा 2931 गांवों में गौठान निर्माण का कार्य शुरू है। इस सरकार के कार्यकाल के अंत तक सभी पंचायतों में इसके पहुंचने की उम्मीद है। इन आंकड़ों के अनुसार अब तक इस योजना से 1,54,423 पशुपालक लाभान्वित हो चुके हैं। गोबरधन न्याय योजनांतर्गत 2 रु. प्रति किलो के भाव से अब तक 40.21 लाख क्विंटल गोबर सरकार ने खरीदा है और उसके बदले में रु. 80.42 करोड़ की रकम गोबर जमा करने वालों को दी जा चुकी है, जिसमें 65.31% भूमिहीन हैं। इस गोबर और खेत के कचरे का उपयोग करके अब तक 65,260 वर्मी कम्पोस्ट टैंकों से 71,320 क्विंटल वर्मी कम्पोस्ट का उत्पादन किया जा चुका है।
गौठान को विभिन्न उद्योगों के केंद्र के रूप में विकसित करने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है। महिला बचत समूहों के माध्यम से बगीचा, मशरूम खेती, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन, बकरी पालन, गोबर के दिये बनाने, गमले, साबुन, अगरबत्ती, बेकरी जैसे व्यवसाय भी शुरू किए गए हैं। इन समूहों ने इन व्यवसायों से 9.42 करोड़ से अधिक की आय अर्जित की है। गौठान क्षेत्र में वनोपज प्रसंस्करण, जड़ी-बूटी प्रसंस्करण, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, मोबाइल फोन और बिजली के अन्य उपकरणों की मरम्मत, सोलर लैंप और सोलर पैनल का निर्माण, रंग और कागज उद्योग जैसे सेवा केंद्र चल रहे हैं। जल्द ही इस क्षेत्र में मिनी चावल मिल, मिनी दाल मिल, तेल घानी, पोहा मिल, कृषि उपकरण सेवा केंद्र, सौर शीत भंडारण, मधुमक्खी पालन और शहद उत्पादन जैसे नए उद्योग शुरू होने जा रहे हैं। इस बीच रायपुर ‘आईआईटी’ की मदद से ग्रामीण युवाओं को तकनीकी कौशल से प्रशिक्षित करने के लिए निश्चित पाठ्यक्रम भी चलाया जा रहा है।
चुनौतियां और जवाब
यहां आते समय हमारे सामने तीन महत्वपूर्ण प्रश्न थे। इस बदलाव के लिए आवश्यक वित्तीय प्रावधान कहां से और कैसे किया गया? इसके बारे में लोगों की क्या राय है? एक ऐसे समय में, जब नौकरशाही ऐसे किसी भी बदलाव के काम में बाधा डालने के लिए जानी जाती है, प्रशासन की क्या भूमिका रही?
‘सुराजी गांव योजना’ के लिए अलग से कोष न जुटाकर, केंद्र सरकार की मनरेगा और राष्ट्रीय जलग्रहण विकास मिशन आदि योजनाओं की धनराशि का उपयोग किया गया। साथ ही कृषि विभाग, उद्यान विभाग, पशुपालन विभाग, वन विभाग आदि का समन्वयन करके उनके द्वारा चलाई जा रही अनेक योजनाओं का लाभ इस योजना के लिए उठाया गया। मुख्यमंत्री स्वयं ग्रामीण विकास की इस महत्वाकांक्षी परियोजना में अपनी सारी ऊर्जा लगा रहे हैं। इसलिए इसे सफल बनाने के लिए प्रशासन को भी कार्यक्षम होना पड़ा। छत्तीसगढ़ के कुल बजट का पांचवां हिस्सा कृषि और संबंधित कार्यक्रमों पर खर्च करने के लिए निर्धारित किया गया है। छत्तीसगढ़ के इतिहास में यह सबसे बड़ा प्रावधान है।
स्थानीय जनता की सोत्साह भागीदारी इस समग्र कार्यक्रम की पहचान है। वे इस योजना के केवल लाभार्थी नहीं हैं, सरकार ने विभिन्न तरीकों से उनका विश्वास हासिल किया है। किसानों का बकाया कर्ज माफ करने के अलावा सरकार ने धान के खरीदी की कीमत बढ़ाकर 2500 रुपये प्रति क्विंटल किया। इससे लोगों का सरकार के प्रति विश्वास बढ़ा और इस महत्वाकांक्षी कार्यक्रम में जन भागीदारी बढ़ी। उद्योगपतियों को सैकड़ों करोड़ की आर्थिक सहायता देने वाली सरकारें गरीबों के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं लेतीं। ऐसे समय में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा गांव तक पैसा पहुंचाने और गरीब से गरीब व्यक्ति को अपने जीवन सरल बनाने के ये प्रयास आंखें खोलने वाले हैं।
इस प्रयोग के वास्तविक मूल्यांकन के लिए, अमेरिका के अपने दौरे के समय मुख्यमंत्री नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी से मिले और उन्हें इस अनूठे प्रयोग के बारे में बताया। चूंकि बनर्जी के अध्ययन का फोकस मूल रूप से गरीबी उन्मूलन प्रयोगों का अध्ययन था, इसलिए उन्होंने इस प्रयोग में रुचि दिखाई। बनर्जी की शोध टीम अब इस प्रयोग का व्यापक अध्ययन करने जा रही है। फिलहाल तो छत्तीसगढ़ के गांवों में एक ही नारा गूँज रहा है- ‘नरवा, गरुआ, घुरवा, बारी; छत्तीसगढ़ के चार चिन्हारी’.
-डॉ तारक काटे