पवनार डायरी; विनोबा विचार प्रवाह: ब्रह्मविद्या मन्दिर; विनोबा का अभिनव प्रयोग

ब्रह्मविद्या मंदिर के प्रति आज अपने मनोभाव व्यक्त कर रहे हैं हरिजन सेवक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष लक्ष्मी दास जी। हम सबके अग्रज और सर्वोदय जगत के युवा तुर्क कहे जाने वाले लक्ष्मी दास जी भारत सरकार के खादी ग्रामोद्योग आयोग के अध्यक्ष रह चुके हैं। उन्होंने अद्भुत लिखा है।

Vinoba Bhave
Vinoba Bhave

ब्रह्म विद्या मंन्दिर पवनार, आचार्य विनोबा भावे का एक अभिनव प्रयोग है। जिस समाज में महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता रहा हो, जहां महिलाओं को वह्मविद्या की साधना का अधिकार ही न हो, जहां पत्नी को अर्धांगिनी कहकर उसका आधा अंग पति का बना दिया जाता हो, वहां महिलाओं को भी ब्रह्मविद्या का अधिकार है, यह स्थापित करना बहुत कठिन कार्य था, लेकिन आचार्य विनोबा भावे ने महिलाओं के लिए ब्रह्म विद्या मंन्दिर की स्थापना करते हुए कहा था कि इसमें से या तो अनन्त निकलेगा या शून्य निकलेगा। इन दोनों शब्दों का बहुत महत्व है। अनन्त यानी जिसका कोई अन्त नहीं, जिसकी कोई गिनती नहीं और शून्य अर्थात अकिंचन। शून्य की परिभाशा करते करते कितने ही ग्रन्थ भर गए और कितने ही अभी भरे जा सकते हैं। ब्रह्मविद्या मंन्दिर की स्थापना एक कठिन कार्य था। पहले तो वैसी साधना करने वाली बहनें मिलें। फिर वे वहां टिकें, टिक भी गईं तो विनोबाजी की सोच के अनुसार सारे कार्यक्रम हों। ब्रह्मविद्या मंन्दिर की स्थापना का संकल्प एक संत का संकल्प था, इसलिए साधना करने वाली बहनें भली मिलीं, वे टिकीं भी और विनोबाजी की सोच का अक्षरश: पालन भी हुआ।

इस आश्रम में सब बराबर हैं। किसी को कुछ करने का निर्देश देने का यहां प्रावधान नहीं है।  हर साधिका बहिन अपने कार्य का चयन स्वयं करती है और उसका पालन भी स्वयं ही करती है। यही कर्म भी है और अकर्म भी। साधना के साथ-साथ स्वावलम्बन जैसे स्थूल कार्य के प्रयोग भी यहां होते हैं। सबको अपनी बात कहने का हक है। किसी की आवाज को दबाया नहीं जाता। सब बराबर हैं, फिर भी सुशीला दीदी की बात को महत्व दिया जाता है। यह असंभव कार्य यहां संभव होता है। हर बहन अपनी सोच के अनुसार आगे बढ़ रही है। अपने अपने कार्य में सभी व्यस्त हैं, लेकिन फिर भी बाहर से देखने वालों को यह आश्रम एक रूप में दिखाई देता है। कोई उपधि नहीं, फिर भी कोई निरुपाधिक नहीं। वर्षों पुरानी इस साधना स्थली में नई-नई कोंपलें भी खिलती रहती हैं। पुरातन होते हुए भी सदैव नूतन।

इस आश्रम में सब बराबर हैं। किसी को कुछ करने का निर्देश देने का यहां प्रावधान नहीं है।  हर साधिका बहिन अपने कार्य का चयन स्वयं करती है और उसका पालन भी स्वयं ही करती है। यही कर्म भी है और अकर्म भी।

आचार्य विनोबा भावे का इस साधना स्थली पर कितना ध्यान था, इसका एक प्रमाण यहां दिया जा सकता है। अचार्य विनोबा भावे ने जितना काम किया, उसका बखान करना यहां आवश्यक नहीं। बस इतना कहना है कि अपनी कर्म यात्रा करते-करते राजगीर सम्मेलन में आचार्य विनोबा भावे ने जब सूक्ष्म प्रवेश की घोषणा की तो तय किया कि अब वे शेष जीवन ब्रह्मविद्या मंदिर, पवनार में रहेंगे। विनोबा संत थे। पराक्रमी संत थे। जहां भी बैठ जाते, वही स्थान तीर्थ स्थान बन जाता, लेकिन उन्होंने अपनी उपस्थिति का लाभ ब्रह्मविद्या मंन्दिर को देकर इस अभिनव प्रयोग को मजबूती दी। इस दृष्टि से यह स्थान विनोबा जी की अकर्म-साधना का भी केन्द्र विन्दु रहा।

ब्रह्मविद्या मंन्दिर के बारे में जब भी मुझे अपने मनोभाव व्यक्त करने होते हैं, तो मैं भावुक हो जाता हूं, इसलिए अपनी बात यही समाप्त करता हूं।    -लक्ष्मीदास

Co Editor Sarvodaya Jagat

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