रूस-यूक्रेन युद्ध : भारत कहां खड़ा है!

अमरीकी संसद को संबोधित करते हुए भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘दुनिया के किसी कोने में यदि मानवता पर हमला होगा, न्याय का गला घोंटा जाएगा, तो हम तटस्थ नहीं रह सकते। हर अन्याय, हर जोर-जुल्म के खिलाफ, मानवता के पक्ष में हम अपनी आवाज बुलंद करेंगे, क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में हमारी तटस्थता हमारे उन मूल्यों के साथ धोखेबाजी होगी, जिनके विरुद्ध हम संघर्ष करते रहे हैं।‘

यूक्रेन और रूस कभी एक ही देश थे। रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण करके दुनिया के सामने नया संकट पैदा कर दिया है। रूस की सीमा एक दर्जन से अधिक देशों से मिलती है और इनमें से कुछ देश, जो कभी पूर्व सोवियत संघ का हिस्सा थे, आज उत्तर अटलांटिक संधि संगठन नाटो (NATO) के सदस्य बन चुके हैं। यूक्रेन के राष्ट्रपति का झुकाव भी पश्चिमी देशों की तरफ था। लिहाजा, रूस अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित था। उसे लगता रहा है कि उसकी सुरक्षा संबंधी चिंताओं को नजरअंदाज किया जा रहा है। पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका को लग रहा था कि रूस कमजोर है और आज की तारीख में उसमें उतना दम नहीं है। जिस प्रकार उसने 1994 से अबतक हंगरी, रोमानिया, स्लोवाकिया, लातविया और लिथुवानिया जैसे देशों को धीरे-धीरे नाटो का सदस्य बना लिया, इससे रूस परेशान था। दोनों को एक दूसरे की चिंताओं को समझना था, लेकिन यूक्रेन ने शायद उसे नहीं समझा। यूक्रेन को पश्चिमी देशों ने उकसाया और आज इसी उकसावे के कारण यूक्रेन को ये सब भुगतना पड़ रहा है।

   
इसमें कोई शक नहीं है कि युद्ध के बाद एक नई वैश्विक व्यवस्था आकार लेगी, जिसमें चीन एशिया में अपने आपको प्रभावशाली बनाने की कोशिश करेगा। रूस न एशिया में है, न यूरोप में. उसका 30% हिस्सा यूरोप में है और 70% एशिया में। विगत 22 साल में पुतिन रूस को एक ऐसे मुकाम पर ले आए हैं, जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था।1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस बिखर गया। बदलते वक्त के साथ रूस ने साबित किया कि वह एक बार फिर से अपने गौरवशाली स्थान पर पहुंच गया है। वह चाहता है कि सब उसकी ताकत को स्वीकार करें। रूस, पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका को यह संदेश दे रहा है कि वह उसे नजरअंदाज न करे।

सोवियत संघ के जमाने में पाकिस्तान अमेरिका के पिट्ठू जैसा व्यवहार करता था, लेकिन अपनी कार्रवाई से उसने दिखा दिया है कि अब उसने अपना खेमा पूरी तरह बदलने का इरादा बना लिया है। अब वह चीन-रूस ब्लॉक का पिट्ठू बन गया है। चीन ने रूस का पक्षपोषण करते हुए इसे हमला मानने से ही इनकार कर दिया है। वर्तमान दौर में यह नैतिक समर्थन रूस के लिए काफी मददगार है।

भारत कहां खड़ा है!
यूक्रेन मसले पर संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद में रूस के निंदा प्रस्ताव पर मतदान के दौरान 11 वोट पड़े, जिनमें 10 देशों ने पक्ष में वोट दिए और तीन देशों (भारत, चीन और यूएई) ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। रूस ने निषेधाधिकार (वीटो) का प्रयोग करते हुए प्रस्ताव का विरोध किया। युद्ध के पहले से ही भारत अपील करता रहा है कि शांति कायम रहनी चाहिए, युद्ध किसी मामले का हल नहीं हो सकता और उसे हर हाल में कूटनीतिक तरीके से हल किया जाना चाहिए। अब जब युद्ध शुरू हो चुका है, यूक्रेन भयंकर बर्बादी और तबाही झेल चुका है, तब भी भारत सरकार उन्हीं घिसे-पिटे शब्दों को दोहराये जा रही है।


हमारे देश के बुद्धिजीवी भारत सरकार की तटस्थता की तारीफ करते नहीं थक रहे। वे भूल जाते हैं कि तथाकथित तटस्थता तात्कालिक रूप से तो अच्छी लगती है, लेकिन दीर्घकालिक दृष्टि से इसका कोई महत्व नहीं रह जाता। अन्याय की स्थिति में न्याय का पक्षपोषण नहीं करना, अन्याय में शामिल होना माना जाता है और भारत की तो यह घोषित नीति रही है. अमरीकी संसद को संबोधित करते हुए भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘दुनिया के किसी कोने में यदि मानवता पर हमला होगा, न्याय का गला घोंटा जाएगा, तो हम तटस्थ नहीं रह सकते। हर अन्याय, हर जोर-जुल्म के खिलाफ, मानवता के पक्ष में हम अपनी आवाज बुलंद करेंगे, क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में हमारी तटस्थता हमारे उन मूल्यों के साथ धोखेबाजी होगी, जिनके विरुद्ध हम संघर्ष करते रहे हैं।‘

इस पृष्ठभूमि में भारत की सर्वोत्तम भूमिका यही हो सकती थी कि वह उत्पीड़ित देशों की आवाज बनकर खड़ा होता और साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का केंद्र बनता। हमारे देश के बुद्धिजीवियों की यह सोच कि रूस और अमरीका जैसे साम्राज्यवादी देशों को यह हक प्राप्त है कि वे जब चाहें किसी भी देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर सैनिक कार्रवाई कर सकते हैं,उनके बौद्धिक दिवालियेपन का सबसे बड़ा सबूत है। रूसी और अमेरिकी साम्राज्यवादियों द्वारा दुनिया के देशों में की गई सैन्य कार्रवाई और तख्तापलट के औचित्य को साबित करने वाले हमारे बुद्धिजीवी मानवता के विरुद्ध अपराध में शामिल हैं। युद्ध का औचित्य साबित करने की किसी भी कोशिश का अर्थ है कि ताकतवर देश छोटे देशों की स्वतंत्र अस्मिता को, उनके जिंदा रहने के अधिकार को स्वीकार नहीं करते।


जो लोग एक विश्वसनीय मित्र के रूप में रूस द्वारा भारत की मदद किए जाने की दुहाई देते हुए पुतिन को समर्थन दिए जाने की हिमायत कर रहे हैं, उन्हें इस सवाल का उत्तर खोजने की कोशिश करनी चाहिए कि भारत ने कब किसी पर अकारण हमला किया, जिसका रूस ने बचाव किया हो? क्या कश्मीर और पाकिस्तान से हुए युद्धों पर समर्थन के बदले में हमें नंगे निरंकुशवाद का भी समर्थन करना पड़ेगा?

यह भी याद रखा जाना चाहिए कि रूस ने हमारा जो समर्थन किया, वह भारत के वैध मामलों में किया, चाहे बांग्लादेश में बंगाली नरसंहार रोकने की लड़ाई हो या कश्मीर में पाकिस्तान के अवैध कब्ज़े और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई हो। रूस ने हमें जो हथियार दिए, उन्हें भारत के अलावा कौन इतनी बड़ी तादाद में खरीदता। ये हथियार हमें रूबल व्यापार में मिले, जो रूस के अलावा कहीं और नहीं चलता।

पुतिन की करतूतों से रूबल आज रुपये से भी नीचे गिर गया है और भारत का कर्ज़ बढ़कर 95 लाख करोड़ पार कर गया है, जिसमें बड़ा हाथ रूसी व्यापार का है। फिर यह भी है कि रूस ने हमेशा हमारा साथ नहीं दिया है। 1962 के चीन के हमले के समय उसे चीन की ज़रूरत थी, इसलिए वह साथ देने नहीं आया और अमरीका ने माओ को रोका।

फिर भी हम यूक्रेन पर रूसी हमले पर चुप हैं, जिसका चीन भी खुला समर्थन नहीं कर पा रहा है। क्या हमें अपनी छवि और भविष्य की चिंता नहीं होनी चाहिए? क्या इस तरह हम सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता हासिल कर पाएंगे? क्या अमरीका और यूरोप के बिना हम आर्थिक विकास कर लेंगे? रूस के साथ हमारी ऐसी दोस्ती किसी गुलामी से कम नहीं है।

दुनिया की मूल समस्याओं की जड़ में किसी न किसी रूप में साम्राज्यवादी देशों की दखलंदाजी है। ये देश छोटे देशों को अपनी जागीर समझते हैं। कोरिया, फिलीपींस, वियतनाम, ताईवान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सऊदी अरब, यमन, ईरान, इराक, जोर्डन, सीरिया, लेबनान, मिश्र, लीबिया, घाना, सूडान, यूगांडा, जांबिया, वेनेजुएला, क्यूबा, निकारागुआ और ब्राजील से लेकर चिली तक इन साम्राज्यवादी देशों ने खुल्लमखुल्ला हस्तक्षेप किया है।

ये देश एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों की संपदा और प्राकृतिक संसाधनों का शोषण और दोहन करना अपना हक समझते हैं। दुनिया में लड़े गए सारे युद्धों में किसी न किसी रूप में इनकी भागीदारी रही है। रूस क्रीमिया को हड़प चुका है और जॉर्जिया के दो प्रांतों को अलग कर चुका है। अब वही काम वह यूक्रेन में करना चाहता है। यूक्रेन एक स्वतंत्र देश है। नाटो में शामिल होना उसका निजी मामला है। इसमें रूस की धौंस क्यों चले? मित्रता के नाम पर साम्राज्यवादी जंगबाज पुतिन द्वारा छेड़े गए युद्ध का समर्थन नहीं किया जा सकता!

यूक्रेन में दर्जन भर से ज़्यादा परमाणु बिजली घर हैं। रूस की सीमा पर डॉनबास प्रान्त का परमाणु बिजली घर यूरोप का दूसरा सबसे बड़ा परमाणु बिजली घर है, जो यूक्रेन की एक चौथाई बिजली पैदा करता है। इतिहास को इतिहास के चश्मे से देखना चाहिए, भावात्मक और विचारधारात्मक चश्मे से नहीं। यदि यूक्रेन अमरीका का मोहरा बनना चाहता है, तो इससे ऐतराज क्यों होना चाहिए? यूक्रेन एक स्वतंत्र देश है, उसे किसका मोहरा बनना है, यह तय करना उसका अधिकार है।

यूरोप में दो ही देशों ने दूसरे देशों को हड़पने और मोहरा बनाने की कोशिशें की थीं। हिटलर के जर्मनी ने और स्तालिन के रूस ने। हिटलर से सारे देशों को आज़ाद कराने के बाद अमरीका ने रूस को रोकने के लिए 1949 में नाटो बनाया था। इसके बावजूद रूस पूर्वी यूरोप के देशों पर क़ब्ज़े करता रहा। जब रूस ने अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा किया, तब अमरीका ओसामा बिन लादेन को मोहरा बनाकर मैदाने जंग में कूद पड़ा और अब जाकर बड़े बेआबरू होकर उसे अपने अफगानी कूचे से बाहर निकलने को मजबूर होना पड़ा।

-सच्चिदानन्द पाण्डेय

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