साबरमती आश्रम को बचाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण आदेश दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात हाईकोर्ट को आदेश दिया है कि वह इस मामले में महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी द्वारा दाखिल जनहित याचिका की सुनवाई करे और सभी संबंधित पक्षों को नोटिस जारी करे। इससे पहले गुजरात हाईकोर्ट ने तुषार गांधी की याचिका बिना सुनवाई ख़ारिज कर दी थी। पढ़ें तुषार गांधी का लेख ‘मैं सुप्रीम कोर्ट क्यों गया?’
साबरमती आश्रम केवल बापू और बा का स्मारक मात्र नहीं है। यह स्वतंत्रता के लिए लड़े गये हमारे अहिंसक जनसंघर्ष का एक अप्रतिम स्मारक भी है। सत्याग्रह की आत्मा आज भी साबरमती आश्रम में निवास करती है और दुनिया भर के लोगों को अपने अधिकार के लिए लड़ने और किसी भी ताकत के आगे न झुकने के लिए प्रेरित करती है।
बापू का जीवन, जीवन को नियंत्रित करने वाले दर्शन और विचारधारा से उत्पन्न सादगी, मितव्ययिता और न्यूनतम उपभोग के आदर्शों पर आधारित था। आज इन आदर्शों पर विश्वास करना ही बहुत मुश्किल है। जब कोई साबरमती आश्रम देखने जाता है, तो सादगी और मितव्ययिता का अर्थ साफ़ समझ में आता है। बा और बापू का निवास हृदय कुंज, सादगी और मितव्ययिता का जीवंत उदाहरण है। इस कुटी और इस परिसर को उसकी ऐतिहासिक मर्यादा के साथ उसके उसी स्वरूप में संरक्षित रखा जाना चाहिए
साबरमती आश्रम का इतिहास
1917 और 1926 के बीच बापू ने अहमदाबाद में साबरमती नदी के तट पर एक आश्रम स्थापित करने के इरादे से जमीन के कुछ टुकड़े खरीदे थे। वे शहर के शोर से दूर रहना चाहते थे. दक्षिण अफ्रीका में स्थापित किये गये अपने आश्रमों – फीनिक्स और टॉल्स्टॉय की तर्ज पर वे आश्रम निवासियों का एक आत्मनिर्भर समुदाय स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने लगभग 120 एकड़ जमीन खरीदी, कुछ अपने नाम पर और कुछ अपने भतीजे खुशालदास गांधी के नाम पर। फिर उन्होंने ‘साबरमती आश्रम ट्रस्ट’ नामक एक ट्रस्ट का गठन किया और 120 एकड़ जमीन सहित आश्रम की सारी संपत्ति ट्रस्ट को हस्तांतरित कर दी।
बापू यहां से चंपारण गए और वहां सताये जा रहे किसानों और गरीबों के हक की लड़ाई लड़ी। साबरमती आश्रम में रहते हुए ही बारडोली सत्याग्रह के लिए वे किसानों का नेतृत्व कर रहे सरदार पटेल के साथ शामिल हो गए। रॉलेट एक्ट का विरोध भी यहीं से शुरू हुआ, यहीं से असहयोग आंदोलन शुरू हुआ और साबरमती आश्रम आज़ादी की लड़ाई का मुख्य केंद्र बन गया। 1930 में बापू ने यहीं से दांडी कूच की शुरुआत की और भारत के आज़ाद हो जाने तक आश्रम नहीं लौटने का संकल्प लिया। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार, 1930 के बाद साबरमती आश्रम में वे एक रात भी नहीं रुके।
1933 में उन्होंने किसानों और सत्याग्रहियों के क्रूर उत्पीड़न के विरोध में आश्रम को औपनिवेशिक सरकार को सौंपने का फैसला किया। बापू ने फैसला किया कि अगर किसी को सत्याग्रही के रूप में सम्मान, अधिकार और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना पड़ता है, तो उसे अवश्य करना चाहिए, इसलिए उन्होंने आश्रम को आत्मसमर्पण करने का फैसला किया। लेकिन फिर अपने सहयोगियों के साथ लंबे विचार-विमर्श के बाद उन्होंने अपना विचार बदल दिया।
1933 में बापू ने निर्णय लिया कि आश्रम का उपयोग अछूतों के उत्थान के लिए किया जाना चाहिए। इसे ध्यान में रखते हुए उन्होंने पहले ही हरिजन सेवक संघ का गठन कर लिया था, इसलिए उन्होंने आश्रम को संघ के अध्यक्ष घनश्यामदास बिड़ला को इस निर्देश के साथ सौंप दिया कि अछूतों के पुनर्वास के लिए आश्रम परिसर का उपयोग करना चाहिए और इसमें सारी गतिविधियाँ हमेशा उनके उत्थान और कल्याण के लिए ही होनी चाहिए। इसके लिए उन्होंने एक चेतावनी दी कि जो अछूत नहीं भी हों, लेकिन आश्रम के नियमों और आदर्शों में यकीन रखते हों और वहां रहने की इच्छा रखते हों, सभी समुदायों और जातियों के लाभ के लिए उन्हें भी आश्रम और उसके परिसर में जब तक वे चाहें, रहने की अनुमति दी जानी चाहिए।
ये निर्देश हरिजन सेवक संघ के मार्गदर्शक सिद्धांत रहे हैं और अब तक साबरमती आश्रम का उपयोग बापू के अंतिम निर्देशों के अनुसार ही किया जाता रहा है। इसलिए, जहां तक साबरमती आश्रम का संबंध है, बिड़ला को लिखे बापू के पत्र को उनकी अंतिम इच्छा और वसीयतनामा माना जाना चाहिए और उसका अक्षरश: पालन किया जाना चाहिए।
जब बापू ने आश्रम को हरिजन सेवक संघ को सौंपा, तो पूरी 120 एकड़ जमीन सौंपी थी। यह बापू की वसीयत थी। आजादी और बापू की हत्या के बाद हरिजन सेवक संघ ने बापू की विरासत और आदर्शों के काम को जारी रखने के लिए कई संगठनों और ट्रस्टों का गठन किया और आश्रम की जमीन के टुकड़े उन्हें आवंटित कर दिए। आज स्थिति यह है कि आश्रम की अधिकांश संपत्ति लापरवाही के कारण नष्ट हो गई है और अब आश्रम के रूप में निरूपित भूमि लगभग 55 एकड़ में सिमट गई है। हाल ही में, गुजरात के महाधिवक्ता ने गुजरात उच्च न्यायालय में पेश होकर दावा किया कि आश्रम एक एकड़ के भूखंड पर स्थित है. उन्होंने मौखिक रूप से अदालत को यह आश्वासन दिया था कि यह जमीन पुनर्विकास परियोजना से प्रभावित नहीं होगी। यह अस्वीकार्य तर्क है। जब कोई बापू के आश्रम (इस मामले में साबरमती आश्रम) की बात करता है, तो उसे उसी महान उद्देश्य और पवित्रता के साथ 120 एकड़ की इकाई के रूप में उसी तरह पेश करना चाहिए, जिस रूप में वह बापू के समय में मौजूद था, भले आज वह उस रूप में मौजूद न हो.
पुनर्विकास योजना आश्रम के मूलभूत सिद्धांतों के विरुद्ध है
आज साबरमती आश्रम का महत्व केवल उस घर से कहीं अधिक है, जिसमें बा और बापू रहते थे। दुनिया मानती है कि यह वह जगह है, जहां महानता का फव्वारा बहता है और लोग वहां उसी भावना को आत्मसात करने और उसी भावना से प्रेरित होने के लिए आते हैं।
आश्रम के लिए सरकार की योजनाओं का विरोध करने के कई अन्य कारण भी हैं, जैसे भूमि के स्वामित्व का सवाल, जो तब व्यक्तिगत पहल के जरिये खरीदी गयी थी और आज एक पंजीकृत ट्रस्ट में निहित है, जो सरकार के स्वामित्व में नहीं है। इसलिए सरकार को इसे संभालने, इसे बदलने या इसकी शर्तों को निर्धारित करने का कोई अधिकार नहीं है। कानूनी रूप से गठित ट्रस्ट के सक्षम (कम से कम मुझे आशा है कि वे हैं) ट्रस्टियों को सरकार के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप और जबरदस्ती के बिना निर्णय लेने की अनुमति दी जानी चाहिए। उन्हें और गांधीजनों के विशाल समुदाय को किसी भी गांधी संस्था, संगठन या स्मारक के भाग्य का फैसला करना चाहिए, यह सरकार के अधिकार क्षेत्र का कम नहीं होना चाहिए।
बापू की हत्या के बाद, गांधी स्मारक निधि नामक संगठन का गठन किया गया था, जो एक राष्ट्रीय संगठन था जिसे गांधी की विरासत, उनकी विचारधारा, उनके जीवन और उनके काम से जुड़े सभी प्रतिष्ठानों की रक्षा, प्रशासन और प्रचार का दायित्व सौंपा गया था। गांधी स्मारक निधि का एक संस्थापक सिद्धांत यह था कि यह सभी गांधी संस्थानों, स्मारकों और आश्रमों को सरकारी नियंत्रण और हस्तक्षेप से दूर रखेगा। यहां तक कि गांधी स्मारक निधि की राशि भी, जनता से बड़े पैमाने पर एकत्र की गई थी और निजी व्यक्तियों से दान लिया गया था, न कि सरकार से।
साबरमती पुनर्विकास परियोजना और इसका अनुपातहीन रूप से बड़ा बजट भी इस लोकाचार के विपरीत है। बापू यदि आज होते तो उनसे जुड़ी किसी चीज पर 1200 करोड़, वह भी राजकोष से संबंधित रुपये खर्च करने की अनुमति कभी न देते। मुझे यकीन है कि वे लोगों के पैसे की इस तरह की अश्लील बर्बादी के खिलाफ आमरण अनशन पर चले गए होते।
जब भारत की अंतरिम सरकार की पहली कैबिनेट ने शपथ ली, तो मंत्रियों ने बापू से मुलाकात की और एक संदेश मांगा। बापू ने उन्हें जो संदेश दिया था, वह अब बापू की ताबीज़ के रूप में जाना जाता है- ‘मैं तुम्हें एक ताबीज दूंगा. जब भी तुम्हें संदेह हो तो निम्नलिखित परीक्षण को लागू करके देखना. सबसे गरीब और सबसे कमजोर व्यक्ति का चेहरा याद करना, जिसे कभी देखा हो और अपने आप से पूछना कि जो कदम उठाना चाहते हो, वह उसके किसी काम का होगा? क्या उसे इससे कुछ हासिल होगा? दूसरे शब्दों में, क्या यह भूखे और आध्यात्मिक रूप से भूखे लाखों लोगों को स्वराज की ओर ले जाएगा? तुम पाओगे कि तुम्हारी शंकाएं दूर हो रही हैं और तुम स्वयं पिघल रहे हो।‘
बापू का यह संदेश मानवता के लिए उनकी विरासत है। बापू ने हमेशा उन लोगों की सेवा और लाभ के लिए बात की और काम किया, जिन्हें वे ‘दरीद्रनारायण’ या दरिद्र देवता कहते थे। उनका मानना था कि समाज के सबसे गरीब और सबसे कमजोर वर्ग की सेवा करना ईश्वर की पूजा करने के समान है। बापू ने मानवता के इस वर्ग की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। आश्रम की उनकी वसीयत, जाहिरा तौर पर अछूतों की सेवा करने के लिए थी, जिसमें गरीब से गरीब आदमी का कल्याण शामिल था।
‘पुनर्विकास’ के नाम पर आगंतुकों के लिए सुविधाएं बनाने के बहाने, आश्रम से सड़क के उस पार झोपड़ियों में रहने वाले कई गरीब निवासियों को बेदखल कर दिया गया है, उन्हें बिना किसी मुआवजे या वैकल्पिक आवास के उनकी रिहाइशों से निकाल दिया गया है, उनके छोटे अपर्याप्त आवासों को ध्वस्त कर दिया गया है। उनमें से कई दो और तीन दशकों से अधिक समय से वहां रह रहे थे। अपने आश्रम को ‘विश्व स्तरीय’ बनाने के बहाने बापू ने कभी यह स्थिति स्वीकार न की होती, उनके नाम के बहाने तो हरगिज़ नहीं।
साबरमती आश्रम के भाग्य और बापू की विरासत का फैसला करते समय पर्यावरणीय चिंताओं सहित ये कई मुद्दे हैं। बापू की विरासत, उनकी विचारधारा और उनकी वसीयत को संरक्षित करने की तत्काल जरूरत है।
5 अप्रैल 1930 को बापू ने लिखा, ‘मैं शक्ति के खिलाफ अधिकार की इस लड़ाई में विश्व की सहानुभूति चाहता हूं।‘ यही भारत के सर्वोच्च न्यायालय से मेरी भी अपील है।
-तुषार गांधी