अगर बुनियादी परिवर्तन के लिए काम करना हो, तो भारत के संविधान में ‘समाजवादी’ शब्द की जगह ‘सर्वोदय’ शब्द जोड़ने के बारे में सोचा जा सकता है.
चन्दन पाल
सर्वोदय बापू की नजर में एक ऐसा शक्तिशाली महामंत्र है, जो मनुष्य समाज को साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, साम्यवाद और समाजवाद से आगे एक नयी वैकल्पिक दिशा में ले जाता है. कोई पूछ सकता है कि इस सूची में समाजवाद क्यों? वास्तव में साम्यवाद और समाजवाद भी कभी हिंसा से इनकार नही करता. हिंसा के रास्ते कभी भी शांति की प्रतिष्ठा नहीं की जा सकती. कोई कह सकता है कि गांधीजी तो खुद को समाजवादी मानते थे. समाजवाद तो श्रमिक शोषण का विरोध करता है. गांधीजी ने भी श्रमिक शोषण के विरोध में दक्षिण अफ्रीका में आन्दोलन शुरू किया था और बाद में अपने देश में शोषण के विरोध में तत्पर रहे, लेकिन दोनों के आन्दोलन पथ में काफी अंतर है. इसीलिए गांधीजी समाजवादियों की तरह मात्र श्रमिक शोषण के विरोध तक ही सीमित नहीं थे, श्रमिकों के बीच जो पारस्परिक शोषण होता है, उसके भी विरोधी थे. अहिंसा के बारे में एक धारणा युगों से चलती आ रही है कि अहिंसा मात्र व्यक्ति का धर्म है और इसका प्रयोग भी व्यक्ति तक ही सीमित है. यह सही नहीं हैं. अहिंसा निश्चित रूप से समाज का भी धर्म है. उसका प्रयोग भी गांधीजी ने करके दिखाया है. यह बात भी सही हैं कि अहिंसा में दीक्षित व्यक्ति से ही सही समाजवाद शुरू होता है, जिसको गांधीजी के शब्दों में सर्वोदय कहते हैं.
युगों से भारतीय समाज सामंत्र तंत्र, राजतंत्र, साम्राज्य तंत्र आदि कई प्रकार के तंत्रों से गुजरते हुए आज इस संसदीय लोकतंत्र तक पहुंचा है, लेकिन आज भी हम लोकतांत्रिक मूल्यों से काफी दूर हैं. धनतंत्रवाद हो, सामंतवाद हो, साम्यवाद हो, समाजवाद हो या संसदीय लोकतंत्र हो, सभी के पीछे कहीं न कहीं हिंसा काम करती है. सही दृष्टि से एक अहिंसक समाज तथा सही लोकतंत्र का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ना हो तो हिंसा की बुनियाद को बदलकर अहिंसा के रास्ते चलना ही पड़ेगा. अगर इस बुनियादी परिवर्तन के लिए काम करना हो, तो भारत के संविधान में ‘समाजवादी’ शब्द की जगह ‘सर्वोदय’ शब्द जोड़ने के बारे में सोचा जा सकता है.
यह सम्मलेन एक महामिलन मेला है. अगर अब भी हम एक दूसरे के सहयोग में खड़े नहीं होंगे तो ऐसे सम्मेलन का कोई औचित्य नहीं रह जाता. बापू की हत्या के बाद आचार्य विनोबा के नेतृत्व में भूदान-ग्रामदान आन्दोलन, जेपी के नेतृत्व में सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन, सुन्दरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में चिपको आन्दोलन और विनोबा, जेपी तथा सुब्बाराव के नेतृत्व में चम्बल के बागियों का आत्मसमर्पण सर्वोदय के उज्ज्वल इतिहास का स्मरण कराता है. कोकराझार, असम में बोडो-मुस्लिम जातीय दंगों को रोकने और शांति स्थापना के काम में भी सर्वोदय का उल्लेखनीय योगदान रहा है, लेकिन सर्वोदय आन्दोलन से लोगों की जो अपेक्षा है, वह कहीं न कहीं पूरी नहीं हो पा रही है. इस पर हमें गंभीरता से सोचना पड़ेगा. इधर एक अपसंस्कृति का उदय हुआ है, सोशल मीडिया पर दूसरों के लिए असम्मानजनक और असभ्य भाषा का प्रयोग हो रहा है, झूठे इल्जाम लगाये जा रहे हैं. सर्वोदय समाज ऋषियों, मुनियों, संतों, सन्यासियों, तपस्वियों या वैरागियों की बिरादरी नहीं है, क्योंकि आज तो साधु संतों की भाषा में भी बदलाव आया हुआ है. कुछ साधु वेशधारियों ने पिछले दिनों में गांधीजी के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया है, यह उसका प्रमाण है.
आज मेरे मन में कभी-कभी यह सवाल उठता है कि क्या गांधी संगठनों में ग्रहण लग गया है? यह ग्रहण छुड़ाने का रास्ता क्या होगा? कौन छुड़ायेगा यह ग्रहण? छुड़ाने वाला कोई आसमान से टपककर तो नहीं आयेगा, हम लोगों को ही करना पड़ेगा. कार्यकर्ता तैयार करने की बात होती है. युवाओं को साथ में जोड़ने की बात होती है, लेकिन कार्यकर्ता तैयार नहीं हो पाते. युवा कर्मकांड से प्रभावित होते है, लेकिन हमारी कर्म-जड़ता, कर्म-शिथिलता या कर्म निष्क्रियता उन लोगों को अनुत्साहित करती है. लेकिन सवाल यह है कि युवा आगे नहीं बढ़ेगा तो कौन बढ़ेगा? शांति केवल युद्ध बंद करने से नहीं स्थापित होगी. यूक्रेन, रशिया के बीच युद्ध बंद होने से शांति नहीं होगी. समाज से आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक अन्याय, अविचार जब तक दूर नहीं होगा, असली शांति प्रतिष्ठा संभव नहीं होगी. एक ज़माने में नये कार्यकर्ता निर्माण करने के काम में गांधी आश्रमों की अहम भूमिका होती थी, किंतु आज वैसी परिस्थिति नहीं रही.
सर्वोदय समाज एक भाईचारा है. सर्वोदय के काम को आगे बढ़ाने के लिए कार्यकर्ताओं को सही तालीम मिलनी चाहिए. एक समय देश भर में सघन क्षेत्र के नाम से, ग्रामस्वराज की दृष्टि से काम का अनुभव लेकर कार्यकर्ता तैयार होता था, शांति सेना तैयार होती थी. वह अब करीब-करीब बंद हो गया है. कार्यकर्ताओं के बीच स्वाध्याय कम हो गया है. सक्रियता कम हो गयी है. आज सारा देश राजनैतिक कर्मकांड में ही बंधा हुआ है. एक चुनाव पूरा होते-होते नेता दूसरे चुनाव के बारे में सोचने लग जाते हैं. देश का विकास सेकेंडरी हो गया है. यह बीमारी दूसरे कई संगठनों में भी फैलती जा रही है.
बहुत सालों से सर्वोदय के लोगों के बीच राजनीति और लोकनीति को लेकर एक द्वन्द खड़ा है. लोकशक्ति और लोकनीति की मजबूती के लिए हमें काम करना ही चाहिए. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि राजनीति को अछूत मान लें. यह सही है कि राजनीति का मूल लक्ष्य सत्ता हासिल करके सरकारी ताकत हाथ में लेना हो गया है. राजनीति में जो बुराइयां, खराबियां, हिंसा और द्वेष हैं, हमें उनके खिलाफ लड़ना होगा.
सत्याग्रह हमारा ब्रह्मास्त्र है. सामाजिक व सरकारी बुराइयों के खिलाफ, अदालतों में भ्रष्टाचार के खिलाफ, देश की आम जनता और किसानों के समर्थन में क्या हम सत्याग्रह करने को तैयार हैं? देश में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक कैसे मिलजुलकर भाईचारे और मित्रता के साथ रहें, इसके लिए काम करने की जरूरत है. ऐसा नहीं है कि सर्वोदय समाज सम्मेलन में केवल सर्वोदय के लोग ही भाग लेंगे. ऐसा हुआ तो जिस उद्देश्य को लेकर सर्वोदय समाज की प्रतिष्ठा हुई थी, वह हमसे छूट जायेगा. इसलिए हमें अपना दरवाजा सभी के लिए खुला रखना चाहिए.