कल्प जीवन को अभिनव दिशा देते हैं। उनकी उपज अंतरात्मा से होती हैं। अस्तु, वो आत्म-संकल्प में परिणत हो जाते हैं।
आत्म-संकल्प, दृढ़ आत्म-विश्वास की बुनियाद है। आत्म संकल्पित व्यक्ति ही अपने अच्छे कार्यों से कालांतर में बड़े व्यक्तित्त्व बनते हैं। आत्म संकल्प से जुड़ी ये सारी बातें स्व. डॉक्टर एस.एन सुब्बाराव के जीवन चरित्र में परिलक्षित होती हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन हमें त्याग, समर्पण और सेवा का संदेश देता है। वे अपने जीवन के स्कूली दिनों से ही सिर्फ़ 10 वर्ष की आयु में देश भक्ति के गीत गाते हुए, 13 वर्ष की अल्पायु में स्कूल की दीवारों पर ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ के नारें लिखते हुए, सन् 1942 में महात्मा गांधी के आह्वान से प्रेरित हो इस आंदोलन से जुड़ गए। वे सन् 1942 से लेकर जीवन पर्यंत देश-सेवा के लिए समर्पित रहे। उनके साथ सन् 1976 से जुड़े और राष्ट्रीय सेवा परियोजना के कार्यकर्त्ता हनुमानसहाय शर्मा नायला उनके जीवन के संस्मरण बयां करते हैं कि वे कभी हार नहीं मानते थे। वे जिस मिशन को अपने हाथ में लेते, उनको पूरा करके ही दम लेते थे।
सुब्बाराव ने सन् 1954 में चंबल घाटी में अपना क़दम रखा और चंबल घाटी शांति मिशन की शुरुआत की। सन् 1964 में चंबल घाटी में उनके नेतृत्त्व में 10 माह तक ऐतिहासिक श्रम शिविर चला। उन्होंने हज़ारों युवाओं को अपने श्रम शिविरों से जोड़कर, उन्हें न केवल श्रम का महत्त्व समझाया, अपितु स्व रोज़गार, खादी उद्योग और शहद उत्पादन से जोड़ा। 14 अप्रैल, 1972 का दिन न केवल सुब्बाराव के लिए, अपितु हम सब के लिए अविस्मरणीय और ऐतिहासिक रहा है, क्योंकि इसी दिन सर्वाेदय नेता, आंदोलनकारी और विचारक जे.पी नारायण के नेतृत्त्व और सुब्बाराव की प्रेरणा से मध्यप्रदेश के मुरैना ज़िले में स्थित महात्मा गांधी सेवा आश्रम में चंबल घाटी में सक्रिय लगभग 450 डाकुओं ने महात्मा गांधी की प्रतिमा के समक्ष अहिंसात्मक तरीक़ों से हथियार डाले। जिसमें मोहरसिंह और माधोसिंह जैसे कुख्यात और बड़े इनामी दस्यु भी शामिल थे। मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, दिल्ली आदि राज्य भी इनके आतंक से प्रभावित थे। सुब्बाराव के चंबल शांति मिशन से प्रेरित होकर उत्तर-प्रदेश के बटेश्वर में 01 तथा धौलपुर के तालाबशाही में 100 दस्युओं ने भी महात्मा गांधी की प्रतिमा के समक्ष आत्म-समर्पण किया। इस प्रकार उनके संकल्पों से 654 बाग़ियों ने हिंसा का रास्ता छोड़ा और समाज की मुख्यधारा से जुड़े। सुब्बाराव ने सन् 1994 में जौरा में आत्म-समर्पित बाग़ियों का सम्मेलन आयोजित कर,उन्हें स्व-रोज़गार से जोड़ा। इनमें रूपासिंह, पूरनसिंह, तहसीलदारसिंह, मलखानसिंह आदि बाग़ी प्रमुख थे। सुब्बाराव का हमेशा मानना रहा है कि बाग़ी समाज और व्यवस्था की अन्यायपूर्ण नीतियों के प्रति असंतोष का नतीजा हैं। वे भाईचारा और सद्भाव की मज़बूती के लिए सर्व धर्म प्रार्थना सभाएं आयोजित करते रहे। उन्होंने आदिवासियों के मूल विकास के लिए उन्हें शिक्षा और रोज़गार से जोड़ा। वे सिर पर टोपी, खादी का हाफ़ पैंट और सफ़ेद शर्ट पहनते थे। उनका लिबास उनके जीवन की सादगी और सहजता की पहचान रहा।
वे पुरस्कारों और सरकारी सम्मान पाने में ज़्यादा विश्वास नहीं रखते थे। उनका साध्य हमेशा ही देश सेवा रहा। इसलिए उन्होंने कभी शादी नहीं की और जीवन पर्यंत राष्ट्र सेवा के लिए प्रतिबद्ध रहे। आज हमें राष्ट्रीय सेवा परियोजना के माध्यम से देश भक्तों की नई पौध तैयार कर, उनको पल्लवित और पुष्पित करने की ज़रूरत है। यह हम सब के साझा प्रयासों से ही सम्भव है। आज उनके विचारों से जुड़े साहित्य को शिक्षण-प्रशिक्षण व्यवस्था और स्कूली पाठ्यक्रम में पर्याप्त स्थान देने की दरक़ार है, ताकि आज की युवा पीढ़ी उनके विचारों को पढ़े, समझे और उन्हें आत्मसात् कर सके। ‘भाई जी’ के साथ सन् 1969 से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता और पूर्व महाधिवक्ता (एडवोकेट जनरल) गिरिधारी सिंह बाफ़ना उनके संस्मरण साझा करते हुए कहते हैं कि वे भेदभाव रहित समाज और सामाजिक समरसता में पूर्ण विश्वास रखते थे। ‘जोड़ो-जोड़ो भारत जोड़ो’ और ‘हमारा प्यारा हिंदुस्तान’ जैसे संकल्प गीत उनके जीवन के आजीवन अभिन्न हिस्सा रहे। बाफ़ना बताते हैं कि वे उनके चेतना शिविर स्वावलंबन, स्व-रोज़गार, देशभक्ति, सद्भाव आदि विचारों के संवाहक रहे हैं। वे उनके अचेतन मन में गांधीवादी चिन्तन के बीजारोपण का श्रेय ‘भाईजी’ को देते हुए, उन्हें सच्चा देशभक्त बतलाते हैं।
राष्ट्र-प्रेम और बंधुत्त्व के ताने-बाने को मज़बूती प्रदान करने में ‘भाईजी’ का योगदान अप्रतिम है। आज उनके विचारों को निरंतर आगे बढ़ाने की आवश्यकता है।
-बद्रीनारायण विश्नोई