भारत की आजादी के पहले ही नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने मोहनदास करमचंद गांधी को राष्ट्रपिता की संज्ञा दे दी थी। इसका आधार महात्मा गांधी का ‘सत्य और मानवता के प्रति प्रेम’ ही था। दिल्ली में यमुना नदी के तट पर जहां गांधी की अंत्येष्टि की गई, वह स्थान राजघाट कहलाता है। भारत के विभिन्न भागों से दिल्ली की दूरी राजघाट से ही नापी जाती है। हर बरस देश-विदेश के विभिन्न धर्मों और भाषा के लाखों लोग महात्मा गांधी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने राजघाट जाते हैं।
सभी राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष भारत की राजकीय यात्रा पर दिल्ली पहुँचने के बाद राजघाट जरूर जाते हैं। हर सियासी दल के नेता, गांधी जयंती के दिन उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देने दो अक्टूबर को राजघाट जाते हैं। उस दिन पूरे भारत में अनिवार्य सार्वजनिक अवकाश रहता है. भारत की मुद्रा रुपये पर गांधी का चित्र होता है। दुनिया के लगभग सभी देशों में गांधी जयंती मनायी जाती है। संयुक्त राष्ट्र ने दो अक्टूबर का दिन अरसे से अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस घोषित कर रखा है। ये सब क्यों होता है?
गांधी जी कभी भी भारत की सरकार में किसी पद पर विराजमान नहीं रहे। लेकिन वह एक सौ बरस से ज्यादा समय से जन-जन के दिल में हैं। इसका कारण अगर एक पंक्ति में पूछा जाए तो कोई स्कूली बच्चा भी यह कह सकता है कि गांधी जी ने भारत को औपनिवेशिक दासता से सत्य और अहिंसा के बल पर राजनीतिक स्वतंत्रता दिलायी। वे सत्य के पुजारी थे। वे मानवता-प्रेम के विश्व भर में अप्रतिम उदाहरण हैं।
गांधी के ‘सत्य के प्रयोग’ की खिल्ली उड़ाने वाले भी ऐसे कुछ लोग हैं, जो असत्य के प्रयोग की सियासत करते हैं। इन लोगों का बरसों से प्रचारित असत्य यह है कि गांधी जी के कारण ही अविभाजित भारत का विभाजन कर मुस्लिम बहुल पाकिस्तान का गठन संभव हो सका था। ये बोगस दावा, घृणा की राजनीति करने वाले गांधी हत्या के पहले से करते रहे हैं। तथ्य यह है कि 7 मई 1947 को कांग्रेस ने तय किया कि हिंदुस्तान के बंटवारे की मुस्लिम लीग की मांग मान ली जाये। उसी शाम गांधी जी ने जो कहा, वह इतिहास में दर्ज है। उन्होंने कहा था कि जिन्ना पाकिस्तान चाहते हैं। कांग्रेस भी तैयार हो गई है। लेकिन मुझे मंजूर नहीं है। मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता। मैं इसमें शरीक नहीं हो सकता। महात्मा गांधी ने यह भी कहा था कि मैं हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सबका ट्रस्टी हूं। मैं पाकिस्तान बनने में हाथ नहीं बंटा सकता। गांधी जी का तर्क था कि महाभारत युद्ध में पांडवों को जीतकर भी कुछ नहीं मिला। उनको अंततः स्वर्गारोहण करना पड़ा। भाइयों की लड़ाई में कोई नहीं जीतता है।
कांग्रेस ने भारत विभाजन की मुस्लिम लीग की मांग औपचारिक रूप से 3 जून 1947 को एक प्रस्ताव पारित कर स्वीकार की थी। कांग्रेस ने यह प्रस्ताव गांधी जी की घोर असहमति के बावजूद पारित कर दिया था। तथ्य है कि गांधी कहते रहे, ‘देश का बंटवारा मेरी लाश पर होगा।’ भारत विभाजन की मांग पर कांग्रेस की मंजूरी मिल जाने के अगले ही दिन गांधी जी ने कहा, ‘मैं इस फैसले को गलत मानता हूं। और लोग भी इसे गलत मानें तो इसे सुधारा जा सकता है।’ उन्होंने कहा कि मैंने बहुत समझाया पर लीग वालों को कुछ और समझ में ही नहीं आ रहा है। वे कहते हैं कि हम वहां रह ही नहीं सकते, जहां ज्यादा हिंदू हों। इसमें नुकसान है। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वह देश को इस नुकसान से बचा ले।
गांधी ने ये सत्य इंगित किया था। बंटवारा लीग ने मांगा। कांग्रेस ने तो मांगा नहीं था। लेकिन हिंदू भी और खालसा भी, यही चाहते हैं। गांधी बोले कि मेरी बात न हिंदू सुन रहे हैं, न मुसलमान सुन रहे हैं। मैं कांग्रेस से भी अपनी बात नहीं मनवा सकता। जब बहुमत मुझे नहीं सुन रहा है तो भलाई इसी में है कि सब शांति से हो और दोनों एक दूसरे के दुश्मन न बन जाएं। जब गांधी जी बंटवारा नहीं रोक पाये, तब वह भारत और पाकिस्तान के बीच शांति बहाली के प्रयास में यह कहते हुए जुट गए कि लड़ो मत, वरना मिट जाओगे। सुख से रहो।
शांति बहाली की गांधी जी की कोशिश पर कट्टर हिंदू कहने लगे कि गांधी मुसलमानों का पक्ष ले रहे हैं। ऐसे लोगों के दिमाग में आज भी जहर की तरह यह बात भरी हुई है कि भारत के बंटवारे के लिए गांधी दोषी हैं। सत्य यह है कि गांधी जी अंतिम दम तक हिंदुस्तान के बंटवारे के विरोध में थे। गांधी जी का तर्क था कि आपस मे लड़ोगे तो जिन्ना की यह बात सही साबित हो जाएगी कि हिंदू और मुस्लिम दो राष्ट्र हैं और वे एक साथ नहीं रहे सकते। हिंदू राष्ट्र के पक्षधर लोगों की मूल समस्या थी कि वे खुद द्विराष्ट्र का सिद्धांत मानते रहे। उनकी शिकायत जिन्ना की नफरत की सियासत से नहीं थी, बल्कि गांधी के सांप्रदायिक सद्भाव और मानवता प्रेम से थी।
महात्मा गांधी दोनों धर्मों के कट्टरपंथी लोगों की इस मिथ्या धारणा को असत्य सिद्ध करने में लगातार जुटे रहे कि द्विराष्ट्रवाद ही भारत की समस्या का समाधान है। इसलिए दोनों तरफ के कट्टरपंथी गांधी के विरोध में थे। जब बंटवारे के साथ देश आजाद हो गया और जश्न मनाया जाने लगा तब गांधी ने कहा कि मैं खुशी नहीं मना सकता। वह देश में सांप्रदायिक दंगा शुरू कर चुके सनकी हिंदू और मुसलमानों को समझाने बंगाल के नोआखाली चले गए।
बीबीसी : हिंदुस्तान टाइम्स ने गांधी से भारत की आजादी पर प्रतिक्रिया मांगी तो उन्होंने कहा कि वह अंदर से खालीपन महसूस कर रहे हैं। बीबीसी ने प्रतिक्रिया मांगी तो गांधी जी ने कुछ भी कहने से मना कर दिया। बीबीसी के पत्रकार ने जब गांधी जी की प्रतिक्रिया यह कहकर लेने की जिद की कि उनकी बात अनूदित होकर पूरी दुनिया में प्रसारित होगी तो गांधी जी ने कहा कि दुनिया वालों से कह दो, ‘गांधी अंग्रेजी नहीं जानता है।’
भारत और पाकिस्तान के हुक्मरान जश्न मना रहे थे, लेकिन गांधी जी सत्ता सुख को लात मारकर लोगों को मानवता के गुण सिखा रहे थे। गांधी जी को मारने वालों की यही समस्या थी। गांधी जी ने खुद बार-बार कहा कि यह प्रेम और नफरत की लड़ाई है। गांधी जी के प्रेम ने कभी अपशब्द का इस्तेमाल नहीं किया। लेकिन उनसे नफरत करने वालों ने उनकी हत्या कर दी। घृणा की सियासत करने वाले ये लोग आज भी गांधी का नाम सुनते ही बौखला उठते हैं। ये नफरती लोग आज भी अफवाहों के जरिए गांधी जी के अप्रतिम सत्य के प्रयोग को अपने असत्य के प्रयोग से मारते रहते हैं।
गांधी जी की हत्या से भी पहले उनको रावण की तरह ‘दशानन’ दर्शाकर मारने के लिए निशाना साधने का रेखाचित्र एक मराठी पत्रिका में छपा था। जाहिर है कि एक तरफ गांधी जी के सत्य और मानव प्रेम का विशव्यापी गुणगान चल रहा है तो दूसरी तरफ भारत में संकुचित मानसिकता से सियासत करने वाले लोगों द्वारा उनके खिलाफ घृणा फैलाने का अभियान अभी तक रुका नहीं है। जगजाहिर बात यह है कि सत्य बल से बड़ा कोई भी बल नहीं होता। भारत ही नहीं, दुनिया भर के लोगों के बीच जो बात पहले से मान्य थी, उसको और बल मिला कि बाहुबल, धनबल और सत्ताबल से कहीं अधिक बड़ा सत्य बल, अहिंसा बल और नैतिक बल है। गांधीजी ने १९४२ में कहा था कि अगर आपको लगता है कि यह माहौल जैसा होना चाहिए, वैसा नहीं है तो उस माहौल को छोड़ कर भागिये मत, बल्कि उस माहौल में संघर्ष कीजिये। निर्भय बनकर संघर्ष कीजिये. सिविल नाफरमानी के लिए तैयार होइये।
सत्य के मेटाफर : गांधी भारत के संविधान में प्रयुक्त पदबंध ‘हम भारत के लोग’ के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के वास्ते सत्य के मेटाफर बन चुके हैं। मेटाफर को हिंदी भाषा में सर्वनाम या फिर पर्यायवाची शब्द कह सकते हैं। हमने ही नहीं, भारत के बहुत सारे लोगों ने हाड़-मांस के ऐसे इंसान, गांधी को कभी नहीं देखा। फिर भी हम उन्हें रोज देखते हैं।
2 अक्टूबर 2021 को महात्मा गांधी की जयंती के अवसर पर हम भारत के लोगों को मौजूदा व्यवस्था द्वारा बनाए भय के माहौल में निर्भय बनकर अडिग खड़े रहने की और भी ज्यादा दरकार है।
-चंद्र प्रकाश झा