विमर्श के पीछे की भावना

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(दिल्ली विमर्श में सर्व सेवा संघ अध्यक्ष का संबोधन)

सर्व सेवा संघ तथा अन्य गांधीवादी संगठनों में यह चिन्तन चल रहा है कि सर्वोदय आंदोलन को कैसे सक्रिय व प्रभावी बनाया जाय? वर्तमान समय में हम लोगों के दायरे के अंदर व बाहर जो चुनौतियां हैं, उसको कैसे सुलझाया जाय? बाहर में जो विपरीत प्रवाह चल रहा है, उसको कैसे रोका जाय? इन सभी प्रश्नों के उत्तर गहराई में जाकर खोजने होंगे। यह स्वीकार कर लेना बुद्धिमानी की बात है कि सर्वोदय संगठन तथा उसका कामकाज धीरे-धीरे क्षीण होता गया है, विचारों में भी बहुत शिथिलता तथा ढीलापन दिख रहा है। एक के बाद एक हम लोग मकड़जाल में पंâसते जा रहे हैं। प्रदेशों के सर्वोदय मंडल निष्प्राण दिखायी दे रहे हैं। रचनात्मक कार्यक्रम जन-आंदोलन नहीं बन पा रहे हैं। कभी-कभी कुछ करने का प्रयास तो हो रहा है, लेकिन उसका असर दिखायी नहीं देता है। यह कोई निराशा की बात नहीं है, हकीकत है। निराशा को पकड़कर बैठने से तो हम कहीं खो जायेंगे। अब तक जो कुछ हुआ, उसकी खुलेपन से, सामूहिक रूप से समीक्षा करना बेहद जरूरी है।

मेरा जन्म अति साधारण छोटे किसान परिवार में हुआ है। बचपन से ही काफी संघर्षों से जूझते हुए अपनी पढ़ाई को आगे बढ़ाया। हाईस्वूâल में पढ़ते समय पहली बार सर्वोदय, विनोबा जी का नाम सुना। भूदान, ग्रामदान शब्द कान में गूंजे। शांति-पदयात्रा में भाग लेते समय नारे दोहराते थे—‘हमारा मंत्र – जयजगत, हमारा तंत्र – ग्रामस्वराज्य, हमारा लक्ष्य – विश्वशांति’। उन दिनों इन नारों को बिना समझे जोर-जोर से चिल्लाने में मजा आता था। धीरे-धीरे जब अर्थ समझने लगा, तब आवाज कमजोर पड़ने लगी और आज तो इन नारों में शामिल होते समय मेरा हृदय कांपने लगता है। अंदर ही अंदर सवाल पैदा होता है कि क्या सच में इसका अर्थ मैं समझ पाया? फिर सवाल उठता है समझ पाया तो किया क्या?

मैंने कभी सोचा नहीं था कि सभी साथी मिलकर सर्वोदय संगठन की इतनी बड़ी जिम्मेवारी मुझे सौंपेंगे। जिम्मेवारी स्वीकार करने के पहले मेरे मन में यह था कि सर्वानुमति नहीं, सर्वसम्मति से निर्णय होगा, तो हम उसे स्वीकार करेंगे। नहीं तो हम खुद को इस प्रक्रिया से अलग कर लेंगे। अब जब जिम्मेवारी ले ली है, तब इसको यथासंभव आगे बढ़ाने के लिए काम करना है। लेकिन जिम्मेवारी लेने के दिन से ही समस्याएं खड़ी हो रही हैं। मेरे कामकाज की आलोचना कोई करे, तो वह सहन हो सकता है, लेकिन कोई मुझे सत्ता, सम्पत्ति-लोलुप, कब्जाधारी कहकर अफवाह पैâलाने या चरित्रहनन करने का प्रयास करे, तो सहन नहीं होता। मन में दुख होता है, लेकिन बापू बचा लेते हैं। मुझे संतोष है कि ऐसे लोगों के बारे में आज तक एक भी गलत शब्द का प्रयोग मैंने नहीं किया है।

समस्याएं, संकट तो हैं ही, लेकिन संभावनाएं क्या हैं, हमें उनको तलाशना होगा। इसी कारण सामूहिक रूप से सोचने के लिए जनवरी २०२१ में सेवाग्राम में सम्पन्न हुई सर्व सेवा संघ की कार्यसमिति के सामने यह प्रस्ताव रखा गया और निर्णय भी हुआ। तय हुआ था कि अप्रैल २०२१ में दिल्ली में एक संगीति होगी। अब संगीति का नाम बदलकर विमर्श रखा गया है। संगीति में खुली चर्चा होती है, विमर्श में भी ऐसा ही होगा। फर्क बस इतना ही है कि संगीति में विचार या आदर्श की भिन्नता के बावजूद दो भिन्न समूह एक साथ बैठकर एक दिशा व लक्ष्य से सहमत होकर काम करने के लिए प्रेरित होते हैं। लेकिन विगत कई महीनों से सर्व सेवा संघ को लेकर सर्वोदय साथियों के बीच चले आ रहे तनाव के पीछे ऐसा कोई आदर्श नहीं रहा है, बल्कि नियम-कानून, पद्धति और तरीकों को लेकर विवाद है। इसलिए नियम-कानून को लेकर जो साथी मैदान में उतरे हैं और हमारे विरोध में काम कर रहे हैं, उन लोगों के प्रति अनुराग रखते हुए उन्हें नहीं बुलाया गया है।

सच कहूं तो संगीति, जो बौद्ध परंपरा का शब्द माना जाता है, के बारे में हमें बहुत कुछ मालूम नहीं है। इतना ही मालूम है कि जब कोई संकट पैदा होता है, तो उसमें से रास्ता निकालने के लिए आपस में बैठकर संगीति का आयोजन करते हैं। इस परंपरा को सर्वोदय समाज में भी अपनाया गया है, लेकिन इस बार विशेष परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए चुने हुए कुछ ही साथियों को बुलाया गया है। विमर्श में जो निष्कर्ष निकलेगा, उसे साथियों के बीच रखने की कोशिश होगी। तीन दिन के इस विमर्श के लिए देश भर के चुनिंदा साथियों को आमंत्रण भेजा गया था, लेकिन कोरोना महामारी के कारण और खराब स्वास्थ्य के चलते कई साथी नहीं आ पा रहे हैं, हालांकि उनकी सद्भावनाएं हमारे साथ हैं, विमर्श में जो साथी साहसपूर्वक शामिल हुए हैं, सर्व सेवा संघ की ओर से हम सभी का आभार मानते हुए स्वागत करते हैं।

गांधी, विनोबा, जेपी ने समाज, देश तथा दुनिया को जोड़ने की कोशिश की, लेकिन आज कई राजनेता धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, भाषा, संप्रदाय, संस्कृति के नाम पर समाज और देश को तोड़ने में लगे हैं। भारत की आजादी के संघर्ष में जिनकी भूमिका संदेह से परे नहीं है, उनको महान देशभक्त बताने की कोशिश चल रही है, दूसरी ओर जिन लोगों का नाम आना चाहिए था, ऐसे कई नाम हटाये जा रहे हैं। चुनाव आयोग, रिजर्व बैंक, ईडी, सीबीआई आदि संस्थाओं की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़ा हो गया है। लोकतांत्रिक संस्थाएं आज कठघरे में हैं।

हाल ही में न्यायमूर्ति डी. वाई. चन्द्रचूर्ण ने एक सेमिनार में आम जनता का आवाहन करते हुए कहा है कि किसी भी सरकार या राष्ट्र के प्रतिनिधि जो बोलते हैं, उसी को सच मानकर विश्वास नहीं करना चाहिए। जो सरकार स्वेच्छाचारी होती है, वह सारी सत्ता को अपनी मुट्ठी में रखने के लिए लगातार झूठी बातें तथा झूठे आश्वासन के बल पर आम जनता को गुमराह करती है। सत्य पर आस्था व आग्रह रखने वाले गांधीजनों की इस झूठ के जंजाल के प्रति क्या कोई भूमिका है? हमें सोचना चाहिए। सोचकर कदम उठाना जरूरी है, नहीं तो बड़ी-बड़ी इमारतें बनाने के चक्कर में साबरमती आश्रम की तरह आने वाले दिनों में सेवाग्राम आश्रम, साधना केन्द्र, वाराणसी सहित अन्य गांधी संस्थाओं पर भी सरकार का कब्जा हो सकता है। ये आश्रम व केन्द्र गांधी मूल्यों के प्रतीक हैं, हमारी धरोहर हैं।

अहिंसक समाज रचना के लिए जो संस्थाएं गठित हुई थीं, वह काम फीका पड़ गया है। लक्ष्य की ओर जाने में विफल रह गये तो इन सब संस्थाओं की जरूरत क्या है? यह सवाल बार-बार उठता है। काफी संस्थाएं गांधीजी का जीवन-दर्शन लेकर उच्च शिक्षा या मूलत: डिग्री देने का काम करती हैं। चलिए, वह काम भी चले, लेकिन अभी गांधियन एकेडेमीशियन से ज्यादा जरूरत है गांधियन एक्टिविस्ट की। गांधियन एकेडेमीशियन अगर एक्टिविस्ट बन जायें, तो यह और भी अच्छा है। यह बात मैं पिछले अनुभवों के आधार पर कह रहा हूं।

वर्ष 2012 में असम के कोकराझार तथा आसपास के जिलों में बोडो-मुस्लिम समुदायों के बीच दंगा हुआ। सर्वोदय की एक छोटी-सी टीम लेकर हम वहां पहुंचे और शांति स्थापना में लग गये। ५ वर्ष के दौरान आदरणीय राधा बहन, अमरनाथ भाई, रामजी बाबू, सुब्बाराव जी जैसे लोगों को छोड़कर इस अवधि में किसी से अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। इस अवधि में कई अन्य लोगों ने भी अपना योगदान दिया, लेकिन हमारे साथ जमकर बैठने वाला कोई नहीं मिला। सर्वोदय समाज को एक मौका मिला था, उसका उपयोग हम नहीं कर सके। शांति सैनिक का काम घर में बैठकर पुस्तक पढ़ना या सोशल मीडिया पर चर्चा करना ही नहीं है, उन्हें मैदान में उतरना भी है और चुनौती भी स्वीकार करनी है। युवा यही चाहते हैं। हम लोगों को आत्मदर्शन चाहिए। हम कहते हैं कि सबको साथ में लेकर चलना है, बोलने व सुनने में यह बहुत अच्छा लगता है, लेकिन वास्तविकता अलग है। क्या हम कभी सोचते हैं कि हमारे साथ कितने आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक, युवा, महिला या थर्ड जेन्डर हैं?

तीन दिन के इस विमर्श में यह भी कोशिश होनी चाहिए कि गांधी संस्थाओं से जुड़े विचारों के साथ हमारा संपर्वâ कमजोर क्यों हुआ? खादी, नई तालीम एवं महत्त्वपूर्ण रचनात्मक कार्यक्रमों में जुड़े समूहों के साथ मजबूत संबंध कैसे हों और एक साथ कैसे चल सवेंâ, इस पर भी विचार होगा।

इस संबंध में एक निवेदन और भी करना है कि कुछ संस्थाएं लोगों के बीच अच्छा काम कर रही हैं, लेकिन हम उन व्यक्तियों तथा संस्थाओं को एनजीओ के नाम पर दूर रखना चाहते हैं। जो लोग अच्छे काम कर रहे हैं, उनको भी साथ लेना है। ऐसे लोग एवं संस्थाएं वैकल्पिक शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, कृषि आदि विषयों को लेकर आदिवासी एवं दलितों के बीच काम कर रहे हैं। पानी, नदी, किसानों के अधिकार, मछुआरों की समस्याओं को लेकर भी काम हो रहा है, उनको भी जोड़ना चाहिए। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कोने-कोने में स्थानीय, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों के बारे में (खासकर हिंसा, नवपूंजीवाद, ग्लोबल वार्मिंग आदि) भी चर्चा हो। भारत की आजादी का अमृत महोत्सव मनाने के लिए जब हम लोग प्रस्तुत हैं, उसी समय कहीं न कहीं हमारे अस्तित्व पर भी संकट मंडरा रहा है। जिस प्रकार माक्र्सवादी, लेनिनवादी, माओवादी, समाजवादी, लोहियावादी, अम्बेडकरवादी के रूप में हमारा समाज बिखरा हुआ है, वैसे ही गांधीवादियों के बीच में भी कहीं न कहीं विनोबावादी तथा जयप्रकाशवादी की भावना काफी सक्रिय है। यह हमें कमजोर करती है। हमारे सामने सबसे बड़ा खतरा हिन्दुत्ववादी भावना है, जो समाज को टुकड़ों में बांट रही है। देश में निजीकरण, विनिवेशीकरण का महोत्सव चल रहा है। इसके पीछे गहरी साजिश है, इस बारे में कोई दो राय नहीं है। ये बात सही है कि इन कार्रवाइयों से कुछ राजनैतिक ताकतों को फायदा मिल सकता है, लेकिन आम जनता, ग्राम समाज, नगर समाज तथा देश के लिए यह अत्यंत अशुभ संकेत हैं।

इन परिस्थितियों को सामने रखते हुए सर्वोदय समाज को अपने प्रयोगों, अनुभवों, परिणामों, विफलताओं और सफलताओं पर विचार-विमर्श के बाद सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनैतिक कार्यक्रम क्या हो सकते हैं, इस पर भी सामूहिक रूप से विचार करना एवं निर्णय लेना पड़ेगा। हमें यह भी सोचना पड़ेगा कि अगले दस वर्षों में सर्वोदय जमात किस दिशा में आगे बढ़ेगी और उसकी रूपरेखा क्या होगी? ये सब हमारे दायित्व हैं, इसका निर्वाह हमें करना है। देश और दुनिया के लोगों को गांधीजनों और सर्वोदय जमात से बहुत उम्मीदें हैं। संकट कितना भी गंभीर क्यों न हो, हम सब मिल-जुलकर बढ़ेंगे, तो हमें सफलताएं भी जरूर मिलेंगी। इसी आशा और विश्वास के साथ विमर्श का आयोजन किया गया है। हमें यह सिद्ध करना है कि गांधी और समाज के सामने हम खरे हैं।


चंदन पाल

प्रस्ताव- एक
गांधीजनों का सामूहिक संकल्प

सर्व सेवा संघ एवं राष्ट्रीय गांधी स्मारक निधि द्वारा नई दिल्ली में आयोजित तीन दिवसीय विमर्श (१० से १२ सितंबर २०२१) में शामिल गांधीजन एवं गांधी परंपरा के संगठन तीव्रता से यह महसूस कर रहे हैं कि देश और दुनिया की वर्तमान चुनौतियों के सामने अहिंसक समाधान प्रस्तुत करना हम सबका साझा और अहम दायित्व है। हम सब यह मानते हैं कि सत्य, अहिंसा और सहअस्तित्व के मूल्यों के आधार पर संपूर्ण मानवीय सभ्यता का पुनर्गठन एवं पुनर्निर्माण संभव है। हमारा पूर्ण विश्वास है कि इस रास्ते पर चलकर ही विश्व में शांति, एकता व बंधुत्व के सूत्र मजबूत किए जा सकते हैं।

उपर्युक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए हम आपसी संवाद की धारावाहिकता बनाए रखते हुए एक समन्वित हस्तक्षेप की प्रक्रिया और मैकेनिज्म विकसित करने का इरादा रखते हैं। हम यह उम्मीद करते हैं कि इस दिशा में गांधी परंपरा के संगठनों का औपचारिक नेतृत्व और अनौपचारिक प्रयासों द्वारा ठोस पहल की जायेगी।

गांधी परंपरा के संगठनों का यह समन्वित प्रयास देश और दुनिया के ज्वलंत विषयों एवं महत्वपूर्ण घटनाओं पर नियमित रूप से साझा मंतव्य प्रकाशित एवं प्रसारित करेगा तथा आपसी समझ के आधार पर अन्य जरूरी भूमिकाएं अदा करेगा।

प्रस्ताव – दो
विरासत का संरक्षण

सत्य, अहिंसा, स्वदेशी, नैतिकता, स्वावलंबन और समता के पाठ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के आधारभूत मूल्य रहे हैं। इन्हीं आधारशिलाओं पर गांधीजी ने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष का ताना-बाना बुना और एक एक सफल तथा ऐतिहासिक लड़ाई जीतकर दुनिया को संदेश दिया। इस परिप्रेक्ष्य में गांधीजी की संस्थाएं तथा आश्रम हमारे मार्गदर्शक रहे हैं।

भोगवादी जीवनशैली तथा आधुनिक विकास से परे, हम सादगी और सत्य के मूल्यों पर आधारित सृजनशील जीवन जी सकते हैं, देश और दुनिया के करोड़ों लोग गांधी जी के आश्रमों से यह संदेश ग्रहण करते रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में साबरमती और सेवाग्राम आश्रम हमारी राष्ट्रीय धरोहर की तरह हैं। अहमदाबाद, गुजरात में साबरमती नदी के तट पर स्थित साबरमती आश्रम आज भी दुनिया को शांति का संदेश और प्रेरणा देता है। इसकी सादगी में स्थित दिव्यता ही इसका गौरव है। इसकी साधारणता ही इसे असाधारण बनाती है। चमक-दमक और चकाचौंध से भरी जिस सभ्यता का विरोध गांधी जी ने जीवन भर किया, अफसोस की बात है कि उसी तथाकथित भव्यता की आड़ में साबरमती आश्रम के मूल स्वरूप को नष्ट करने की कोशिश की जा रही है। जिनका अपना कोई इतिहास नहीं होता, वे दूसरों के इतिहास में दखल देने की कोशिश करते हैं। आश्रम परिसर में पंचसितारा सभ्यता का यह प्रयोग आहत करने वाला है।

भारतीय स्वतंत्रता के अमृत जयंती वर्ष में गांधी जी के आदर्शों और कार्यक्रमों का प्रसार करने के बजाय वर्तमान केन्द्र सरकार उनके स्मृतिशेष मिटाने हेतु आजादी के संघर्ष से जुड़े स्मृति स्थलों को तहस-नहस करने की कोशिश कर रही है। साबरमती आश्रम को विश्वस्तरीय पर्यटन स्थल में तब्दील करने की योजना उसी कोशिश का एक बड़ा हिस्सा है। जलियांवाला बाग बलिदान की जगह है, उसे उत्सव की जगह में तब्दील करने और उसका ऐतिहासिक स्वरूप नष्ट करने के बाद अब साबरमती आश्रम को विश्वस्तरीय पर्यटन स्थल बनाने के नाम पर लगभग १२०० करोड़ रुपये की योजना लायी जा रही है। उसमें नया संग्रहालय, एमफी थिएटर, वीआईपी लाउंज, खाने-पीने की दुकानें और मनोरंजन की व्यवस्था का निर्माण करने का प्रावधान है। इस पर्यटन स्थल का निर्माण भारत के प्रधानमंत्री तथा गुजरात के मुख्यमंत्री के नेतृत्व में किये जाने की योजना है। इस निर्माण के कारण साबरमती आश्रम का मूल स्वरूप समाप्त हो जायेगा, जो भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक धरोहर है। गांधी जी के निजी निवास हृदयकुंज पर इस आधुनिक निर्माण के कारण लुप्त हो जाने का खतरा मंडरा रहा है। हृदयकुंज एक ऐतिहासिक धरोहर है, जो समाप्त की जा रही है। गांधी जी की विचारधारा से जुड़ी आश्रम के कार्यकर्ताओं की जीवनशैली पर यह एक आघात की तरह है। सरकार का यह रवैया आहत करने वाला है। हम इसका पुरजोर प्रतिकार करते हैं और साबरमती आश्रम को बचाने का संकल्प लेते हैं।

देश के लिए बलिदान देने वाले शहीदों और महापुरुषों की स्मृतियों को नष्ट करके उन्हें पर्यटन स्थलों में परिवर्तित कर, व्यावसायिक स्वरूप देना, समाज में संभ्रम पैदा करने की कोशिश है। दिल्ली की राजघाट समाधि पर भी सरकार की कुदृष्टि की खबरें हैं। हमें इन कोशिशों के प्रतिकार में जनमत को संगठित करके इन राष्ट्रीय धरोहरों को बचाना होगा, हम इसके लिए संकल्पबद्ध हैं।

प्रस्ताव-तीन
अफगानिस्तान अंतर्राष्ट्रीय शर्म का विषय है

कभी भारत का हिस्सा रहे अफगानिस्तान को हमें किसी दूसरे चश्मे से नहीं, अफगानी नागरिकों के चश्मे से ही देखना चाहिए, उन नागरिकों के चश्मे से, जिनमें हम गांधीजनों की सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान की छवि दिखायी देती है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद तथाकथित मित्र राष्ट्रों ने पराजित राष्ट्रों के साथ जैसा व्रूâर व चालाक व्यवहार किया था, अफगानिस्तान के बहादुर व शांतिप्रिय नागरिकों के साथ खुद को महाशक्ति कहलाने वालों ने वैसा ही कायरतापूर्ण, बर्बर व्यवहार किया है। सबसे पहले ब्रितानी साम्राज्यवाद ने, फिर रूसी खेमे ने और फिर अमरीकी खेमे ने। यदि अंतर्राष्ट्रीय शर्म जैसी कोई संकल्पना बची है, तो आज का अफगानिस्तान दुनिया के हर लोकतांत्रिक नागरिक के लिए शर्म का विषय है।

बहादुर अफगानियों को गुलाम बनाये रखने की तमाम चालों के विफल होने के बाद अमरीकी उन्हें खोखला व बेहाल छोड़कर चले गये, लेकिन अफगानी नागरिकों का दुर्भाग्य ऐसा है कि अब उनके ही लोग, वैसी ही हैवानियत के साथ हथियारों के बल पर उनके सीने पर सवार हो गये हैं। हमारे लिए तालिबान किसी जमात का नहीं, उस मानसिकता का नाम है, जो मानती है कि आत्मसम्मान के साथ आजाद रहने के नागरिकों के अधिकार का दमन हिंसा के बल पर किया जा सकता है। लेकिन इतिहास गवाह है कि ऐसी ताकतें न कभी स्थाई रह सकी हैं, न रह सवेंâगी।

हमें वेदनापूर्वक यह भी कहना पड़ता है कि अफगानिस्तान की इस करुण गाथा में भारत की सरकारों की भूमिका किसी मजबूत व न्यायप्रिय पड़ोसी की नहीं रही है। राष्ट्रहित के नाम पर हम समय-समय पर अफगानिस्तान को लूटने वाली ताकतों का ही साथ देते रहे हैं। हम जोर देकर कहना चाहते हैं कि ऐसी कोई परिस्थिति नहीं हो सकती है, जिसमें किसी का अहित, हमारा राष्ट्रहित हो।

हमारा दृढ़ विश्वास है कि अफगानिस्तान की बहादुर जनता जल्दी ही अपने लोगों के इस वहशीपन पर काबू करेगी, अपनी स्त्रियों की स्वतंत्रता व समानता तथा बच्चों की सुरक्षा की पक्की व स्थायी व्यवस्था बहाल करेगी। हम अपने पड़ोस में स्वतंत्र, समतापूर्ण और खुशहाल अफगानिस्तान देखने के अभिलाषी भी हैं और उस दिशा में अपनी तरफ से हर संभव प्रयास भी करेंगे।

One thought on “विमर्श के पीछे की भावना

  1. राष्ट्रीय युवा शिविर का आयोजन समय की मांग है.
    अवश्य ही होना चाहिए. मैं भी शामिल होने की कोशिश करुंगा.

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