दो राष्ट्र के सिद्धांत के लिए अकसर दुर्भावना या अज्ञानतावश जिन्ना को श्रेय दे दिया जाता है, जबकि उन्होंने तो इसका केवल इस्तेमाल किया और वह भी बहुत बाद में। हिंदू और मुसलमान दो अलग क़ौम हैं और दोनों एक साथ नहीं रह सकते, इसे सैद्धांतिक तौर पर गढ़ने वाले और कोई नहीं सावरकर थे। हिंदुत्व शब्द भले ही 1892 में चंद्रनाथ बसु ने गढ़ा था, मगर उसे नस्ली आधार पर परिभाषित करने का काम सावरकर ने ही किया। उनके माफ़ीनामे बताते हैं कि क़ैद में रहने के दौरान ही सावरकर अंग्रेज़ों के सामने पूर्ण समर्पण कर चुके थे, इसलिए वे भारत को उनसे आज़ाद करवाने के लिए किसी भी लड़ाई में हिस्सेदार बनने का इरादा नहीं रखते थे।
भारत विभाजन के बाद से ही उसके लिए ज़िम्मेदार व्यक्तियों और संगठनों की फ़ेहरिस्त बनाए जाने का सिलसिला चल रहा है। इस काम में सबसे ज़्यादा सक्रियता नेहरू और कांग्रेस विरोध की राजनीति करने वालों ने किया है। यही वज़ह है कि विभाजन के गुनहगारों में भी इन्हीं दोनों का नाम सबसे ज़्यादा लिया जाता है। इसके बाद मोहम्मद अली जिन्ना और अंग्रेज़ी हुकूमत को भी निशाने पर लिया जाता है। हो सकता है कि इस भयानक हादसे में इन सबकी भूमिका भी रही हो, मगर इस क्रम में सबसे बड़े अपराधी बच निकलते हैं। इन सबसे बड़े अपराधियों में एक नाम विनायक दामोदर सावरकर का है। सावरकर के हिंदुत्ववाद के सिद्धांत और उनके नेतृत्व में हिंदू महासभा ने ऐसे हालात बनाने का काम किया, जिससे भारत का विभाजन वार्ताओं की मेज़ पर बैठने से पहले ही तय हो गया था।
दो राष्ट्र के सिद्धांत के लिए अकसर दुर्भावना या अज्ञानतावश जिन्ना को श्रेय दे दिया जाता है, जबकि उन्होंने तो इसका केवल इस्तेमाल किया और वह भी बहुत बाद में। हिंदू और मुसलमान दो अलग क़ौम हैं और दोनों एक साथ नहीं रह सकते, इसे सैद्धांतिक तौर पर गढ़ने वाले और कोई नहीं सावरकर थे। हिंदुत्व शब्द भले ही 1892 में चंद्रनाथ बसु ने गढ़ा था, मगर उसे नस्ली आधार पर परिभाषित करने का काम सावरकर ने ही किया।
अपनी पुस्तक हिंदुत्व (एसेंशियल ऑफ हिंदुइज़्म) में उन्होंने तय कर दिया था कि हिंदू ही भारत भूमि के वफ़ादार हो सकते हैं, क्योंकि उनकी पितृभूमि और पुण्यभूमि यही है। उन्होंने हिंदुओं के वर्चस्व वाले एक ऐसे हिंदू राष्ट्र की अवधारणा रखी, जिसमें मुसलमानों को दोयम दर्ज़े का नागरिक बनकर रहना था। ज़ाहिर है कि मुसलमानों के लिए ख़तरे की घंटी थी। हिंदुत्व के इस एजेंडे ने उन्हें डरा दिया।
हालांकि दूसरी तरफ़ मुस्लिम राष्ट्रवाद भी सिर उठा रहा था। सर सैयद पहले ही इस तरह के विचार और भय ज़ाहिर कर चुके थे। मगर जब बहुसंख्यक समुदाय के एक बड़े नेता की तरफ से ऐसी अवधारणाएं प्रस्तुत की जाने लगीं और उसकी गूंज चारों तरफ सुनाई पड़ने लगी तो मुसलमानों के अंदर असुरक्षाबोध एकदम से बढ़ने लगा, उन्हें हिंदुओं की ग़ुलामी की बात सच लगने लगी। 1940 आते-आते तक इसने मुस्लिम जनमानस में अपनी जड़ें जमा लीं और जब जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग की तो उन्हें समर्थन मिलने लगा।
सावरकर एक क़िताब लिखकर ही नहीं रुके। रत्नागिरि में रहने के प्रतिबंधों से मुक्त होने के बाद 1937 में जब उन्होंने हिंदू महासभा की कमान संभाली तो अपने विचारों को और भी ज़ोर-शोर से उठाना शुरू कर दिया। ध्यान रहे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संगठन की स्थापना 1925 में हो चुकी थी और वह लगातार वही प्रचारित कर रहा था, जो सावरकर चाहते थे। हेडगेवार मुस्लिम विरोध के ज़रिए दो राष्ट्रों के सिद्धांत के आधार पर ही संघ का विस्तार कर रहे थे।
यही नहीं, हिंदू राष्ट्रवाद का सैन्यीकरण भी हो रहा था। संघ शाखाओं में लाठी भांजने और दूसरे शस्त्रों के प्रशिक्षण का कार्यक्रम चला ही रहा था। सावरकर ही हिंदुओं के सैन्यीकरण के हिमायती थे। वे बार-बार कहते थे कि हिंदुओं को आक्रामक होने की ज़रूरत है। इस आक्रामकता का इस्तेमाल वे किसके विरुद्ध करना चाहते थे, यह भी स्पष्ट था।
उनके माफ़ीनामे बताते हैं कि क़ैद में रहने के दौरान ही सावरकर अंग्रेज़ों के सामने पूर्ण समर्पण कर चुके थे, इसलिए वे भारत को उनसे आज़ाद करवाने के लिए किसी भी लड़ाई में हिस्सेदार बनने का इरादा नहीं रखते थे। उल्टे क़ैद से छूटने के बाद वे तो अंग्रेज़ों की मदद करने में जुट गए थे। नेताजी सुभाष की आज़ाद हिंद फौज के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए उन्होंने अंग्रेज़ों के भरती अभियान में लाखों लोगों को शामिल होने के लिए प्रेरित किया था।
दरअसल, सावरकर ने भारत विभाजन के लिए कई तरह से काम किया। वे एक तरफ मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंदुओं को भड़काकर माहौल बना रहे थे। दूसरी तरफ अंग्रेज़ों के एजेंट की तरह काम कर रहे थे। हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेज़ों की नीति ‘बांटो और राज करो’ की थी। अंग्रेज़ हिंदू राष्ट्रवाद को भी हवा दे रहे थे और मुस्लिम राष्ट्रवाद को भी। दोनों के बीच एक प्रतिस्पर्धा भी उन्होंने पैदा कर दी थी। दोनों राष्ट्रवाद अंग्रेजी हुकूमत के हाथों में खेल रहे थे और विभाजन की ज़मीन तैयार कर रहे थे।
विभाजन के लिए तीसरा बड़ा काम जो सावरकर ने किया, वह था हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए काम करने वाली ताक़तों को कमज़ोर करना। इसीलिए वे कांग्रेस के ख़िलाफ़ थे, कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ थे और सबसे ज़्यादा तो गांधी के ख़िलाफ़ थे। गांधी के प्रति उनका विरोध और घृणा तो इस क़दर थी कि वे उनकी हत्या की साज़िश तक में शामिल पाए गए।
‘अग्रणी’ अख़बार में छपे उस कार्टून को याद कीजिए, जिसमें रावण के दस सिरों में से एक गांधी का था। उसमें नेहरू, पटेल, मौलाना आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस के सिर भी दिखाए गए थे और उन पर तीर चलाने वालों में कौन थे, यह बातें भी नोट करने वाली है। इस पर भी गौर किया जाना चाहिए कि गांधी पर जितने भी जानलेवा हमले हुए, सभी हिंदुत्ववादियों द्वारा ही किये गये। एक भी हमला न तो मुसलमानों की तरफ से हुआ और न ही अंग्रेज़ों की तरफ से।
भारतीय राष्ट्रवादियों पर सावरकरवादी हिंदुत्ववादियों के इन हमलों ने राष्ट्रीय एकता के विचार को भरपूर चोट पहुंचाई और उसे कमजोर किया। इससे मुसलमानों में कांग्रेस को लेकर भरोसा कम होता चला गया। उन्हें लगने लगा कि देश आज़ाद होने के बाद हिंदुत्ववादी उन्हें चैन से नहीं रहने देंगे। इसी का नतीजा था कि जिस मुस्लिम लीग़ को 1936 के चुनाव में मुंह की खानी पड़ी थी, वह मज़बूत होती चली गई।
यहां यह बात भी ग़ौर करने की है कि हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद दोनों एक दूसरे का सहयोग भी कर रहे थे। इसी का नतीजा था कि तीन राज्यों में दोनों ने मिलकर सरकारें भी बनाई थीं। यही नहीं, सिंध एसेंबली ने तो पाकिस्तान के पक्ष में प्रस्ताव भी पारित किया था। यानी दोनों राष्ट्रवाद भारत विभाजन पर एकमत थे और उसे आकार भी दे रहे थे।
सावरकर की हिंदू महासभा और गोलवलकर के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बढ़ती आक्रामकता का नतीजा था कि 1946 आते-आते तक सांप्रदायिक हिंसा का दौर शुरू हो गया। बेशक़ इसमें मुस्लिम लीग की भी भूमिका थी। ये हिंसा बड़े पैमाने पर फैलती चली गई, जिसकी वज़ह से कांग्रेस नेतृत्व के सामने विभाजन को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचा। ध्यान रहे कि लॉर्ड माउंटबेटन भी विभाजन की योजना को ही अंजाम देने पर तुले हुए थे।
यही वह हिंसा थी, जिसके सामने नेहरू-पटेल को समर्पण करना पड़ गया था। गांधी ये कहने के बावजूद कि बंटवारा उनकी लाश पर ही होगा, विभाजन नहीं रोक पाए तो इसकी वज़ह भी वही सांप्रदायिक हिंसा थी, जिसका मुख्य स्रोत हिंदुत्व और मुस्लिम राष्ट्रवाद की ताक़तें थीं। इनमें भी ज़्यादा दोष बहुसंख्यक समाज को भड़काने वालों को दिया जाना चाहिए।
इस हिंसा के पीछे कौन लोग थे, यह कहने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन यह स्पष्ट है कि इस हिंसा को रोकने के लिए जान पर खेल जाने वाले गांधीजी को मारने वाले कौन थे। इनमें से एक षड़यंत्रकारी के रूप में तो सावरकर ही थे। साफ़ है कि सावरकर गांधी की हत्या के ही नहीं, भारत विभाजन के पीछे के एक बड़े किरदार थे, जिसपर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया। यह लापरवाही भी आज देश को ऐसे मोड़ पर ले आई है, जिसके आगे नफ़रत और हिंसा के सिवाय कुछ नज़र नहीं आता।
-डॉ. मुकेश कुमार