सेवाग्राम-साबरमती संदेश यात्रा एक शुरुआत है। गांधीजी की कर्मस्थली को पर्यटक स्थल में बदलने की कुटिल योजना के पीछे छिपी मंशा का पर्दाफाश करने के लिए यह जन-जागरण अभियान है। अहिंसक क्रांतिकारी, गांधी के सच्चे क्रांतिकारी स्वरूप को लोक स्मृति से मिटाने की साजिश को बेनकाब करने की शुरूआत है। इस यात्रा का उद्देश्य केवल साबरमती आश्रम के वास्तविक स्वरूप को बचाये रखना मात्र नहीं है, बल्कि गांधी के द्वारा प्रस्तुत विकल्पों द्वारा विश्व को बचाने का भी अभियान है।
सरकार द्वारा साबरमती आश्रम के स्वरूप को बदलने तथा उसे एक पर्यटक स्थल में तब्दील करने की कवायद ने दुनिया भर के गांधी प्रेमियों को आक्रोशित कर दिया है। ये मूलत: दो िवचारधाराओं के बीच के संघर्ष का परिणाम है। पिछले कई वर्षों से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्थक समूहों द्वारा गांधीजी एवं आजादी के लिए उनके आंदोलनों को कमतर दिखाने की निरंतर कोशिश होती रही है। जब अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार थी, तब भी गांधी वांगमय में परिवर्तन की कोशिश की गयी थी।
सन् 1925 से सन् 1947 के बीच आरएसएस एवं हिन्दू महासभा का आजादी के लिए संघर्ष में क्या योगदान था, यह बताने के लिए उनके पास कुछ नहीं है। आजादी के संघर्ष में शामिल होने की तो बात ही छोड़ दीजिए, ये शक्तियां रजवाड़ों की समर्थक (यानी लोकतंत्र विरोधी), जमींदारों की समर्थक (यानी सामंतवाद समर्थक) एवं पूंजीवादी साम्राज्यवादी उपनिवेशवाद की समर्थक होने के कारण अंग्रेजी शासन के खिलाफ आंदोलन से सदैव अलग रहीं। इसी प्रकार मुस्लिम साम्प्रदायिकता का प्रतिनिधि संगठन मुस्लिम लीग भी रजवाड़ा-जमींदार समर्थक एवं अंग्रेजी शासन परस्त था। यही कारण है कि जब देश की जनता भारत छोड़ो आंदोलन में संघर्षरत थी, तब मुस्लिम लीग एवं हिन्दू महासभा ने मिलकर चार प्रांतों में अंग्रेज परस्त सरकार बनायी। जब सिंध प्रांत की एसेम्बली ने अलग पाकिस्तान राष्ट्र के प्रस्ताव को पास किया तो भी हिन्दू महासभा के मंत्री उस सरकार से अलग नहीं हुए।
दूसरी ओर आजादी के लिए संघर्षरत सभी धाराएं, चाहे वे भगत सिंह के नेतृत्व में हों, सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में हों या गांधीजी के नेतृत्व में हों, वे सभी पूंजीवादी और उपनिवेशवादी साम्राज्यवाद, राजशाही तथा सामंतवाद (जमींदारी व्यवस्था) के विरोधी थे तथा एक लोकतांत्रिक, समतामूलक लोक-सत्ता आधारित समाज निर्माण के पक्षधर थे। तरीके को लेकर इनमें आपसी मतभेद थे, किन्तु ये सभी एक दूसरे का सम्मान करते थे।
इन धाराओं की विरासत को आगे बढ़ाने वाले लोग, आजादी प्राप्ति के बाद भी, लोकतंत्र को व्यापक व गहरा बनाने के काम में लगे रहे; वैश्विक पूंजीवादी शक्तियों (जो कॉरपोरेटी नव-उपनिवेशवाद के रूप में गहरी जड़ें जमा रहा था), का विरोध करते रहे तथा देश के संसाधनों से देशज समुदायों (लोक समुदायों) की बेदखली के खिलाफ आंदोलन करते रहे।
दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व हिन्दू महासभा की विरासत को आगे बढ़ाने वाले लोग इन मुद्दों से ध्यान हटाने का काम करते रहे। समाज में साम्प्रदायिक नफरत की मानसिकता को बढ़ाकर राष्ट्र की एकता को खंडित करने का काम करते रहे। कॉरपोरेटी नव-उपनिवेशवाद की पालकी ढोने वाली अपनी भूमिका को छिपाने के लिए नफरत-मूलक छद्म धर्म का मुखौटा ओढ़ नकली राष्ट्रवाद के ढिंढोरची बन गये। आजादी की लड़ाई में कोई भूमिका न होने के कारण ये मुगलों के शासन काल को एवं ऐसे मुद्दों को सामने लाते रहे, जिससे आजादी की लड़ाई में भागीदारी न करने की इनकी भूमिका छिप जाये। इतना ही नहीं, रजवाड़ों एवं जमींदारी खत्म होने के बाद भी सामंती मानसिकता वाले अलोकतांत्रिक बने रहे और अब वे पूंजीवादी साम्राज्यवाद के नये संस्करण, कॉरपोरेटी उपनिवेशवाद के पूर्ण समर्थक बन कर खड़े हो गये हैं तथा सत्ता में आकर उसे जोर शोर से आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं।
गांधीजी की विचारधारा एवं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा के बीच संघर्ष जारी है। इस क्रम में आरएसएस की मानसिकता वाले लोग इतिहास को भी बदलना चाहते हैं। कई क्षेत्रों में ऐसे प्रयास जारी हैं। साबरमती आश्रम के मूलस्वरूप को बदलने की कवायद भी, उसका ही एक हिस्सा है।
सेवाग्राम-साबरमती संदेश यात्रा एक शुरूआत है। गांधीजी की कर्मस्थली को पर्यटक स्थल में बदलने की कुटिल योजना के पीछे छिपी मंशा का पर्दाफाश करने के लिए यह जन-जागरण अभियान है। अहिंसक क्रांतिकारी, गांधी के सच्चे क्रांतिकारी स्वरूप को लोक स्मृति से मिटाने की साजिश को बेनकाब करने की शुरूआत है। इस यात्रा का उद्देश्य केवल साबरमती आश्रम के वास्तविक स्वरूप को बचाये रखना मात्र नहीं है, बल्कि गांधी के द्वारा प्रस्तुत विकल्पों द्वारा विश्व को बचाने का भी अभियान है।
-बिमल कुमार