गांवों में लगने वाली चौपालों में कभी एक कप चाय पर बड़ी-बड़ी समस्याएं सुलझ जाती थीं, ज्यादातर विवादों का समाधान आपसी सहमति और संवाद से हो जाता था। आज भी देखा जाता है कि कोर्ट में सालों से लटके मामले भी आपसी राजीनामे पर ही समाप्त होते हैं। विवाद यदि आपसी सहमति से निपटेंगे, तभी रिश्ते अपनी मधुरता के साथ आगे बढ़ेंगे। विवाद यदि प्रशासन और न्यायालय से निपटेगा तो विवाद भले ही निपट जाय, आपस का प्रेम भी सिमट जायेगा।
जीवन के तीस बसंत पार कर चुका हूं, जब कभी एकांत में बैठ कर बीते हुए वर्षों का अवलोकन करता हूं तो लगता हैं कि समय ने दीवार पर टंगा कैलेंडर ही नहीं बदला, अपितु रिश्तों-नातों, संबंधों की परिभाषा भी बदल डाली है।
मेरा बचपन उस गांव में बीता हैं, जहां बचपन से ही हमें सिखाया जाता रहा है कि अमुक इंसान, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म से आता हो, रिश्ते में सब तुम्हारे भाई-बहन, चाचा-चाची या दादा-दादी लगेंगे। हमारी संस्कृति ने हमें कभी उम्र में अपने से बड़ों को उनके नाम से संबोधित करना नहीं सिखाया, बल्कि रिश्तों की डोर में बंधे रहना सिखाया। बचपन में हमें शरारत या कुछ गलत करते हुए यदि हमारा कोई पड़ोसी देख लेता, तो वह हमें येन केन प्रकारेण वहीं रोक देता था। जब इस पर सोचता हूं, तो लगता है कि उस समय लोगों की यह मानसिकता नहीं थी कि ये बच्चा तो अमुक के घर का है, मेरा क्या जायेगा इसके बिगड़ने पर? अपितु उन्हें ये लगता था यह किसी का भी बच्चा हो, मेरे गांव का भविष्य है। आज कुम्हार भांति थोड़ा गढ़ दिया, तो कल पूरे विश्व को शीतलता प्रदान करेगा।
आज जब उसी गांव में अपनी छुट्टियां बिताने जाता हूं और बड़ों को युवाओं के साथ अनैतिक गतिविधियों (नशा, चोरी, गलत शिक्षा आदि) में लिप्त देखता हूं तो असह्य पीड़ा होती है, पर चाहकर भी वहां मौन रखना पड़ता है। इसका एक कारण यह भी है कि समय ने रिश्तों का अर्थ बदल दिया है। बचपन में हमारे गलतियों पर पड़ोसी तो हमें समझाते ही, जब वह बात हमारे घर, हमारे अभिभावक को पता चलती। तो वे भी हमें दंडित करते। आज के परिवेश का युवा सुनना तो दूर, हठ (बहस) कर जाता है, क्योंकि गांव का हर व्यक्ति उनका चाचा, भैया या दादा है, यह सिखावन अब शायद बचपन में नहीं दी जाती। आज अभिभावकों को यदि पता चले कि किसी ने उनके बच्चे को डांटा है, तो इसे अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। शायद अभिभावक यह भूल जाते हैं कि चेतना का विकास समाज में ही होता है और चेतना परिवेश के अनुसार ही निर्मित होती है। यदि बात ज्यादा बढ़ गई तो अभिभावक इसे अपनी शान पर लेकर मामले को मानवाधिकार, प्रशासन इत्यादि तक ले जाते हैं। शायद इसीलिए कुछ लोग चाहते हुए भी अपने पास-पड़ोस के बच्चों को उनकी गलतियों का अहसास नहीं करा पाते और न चाहते हुए भी आंख बंद करके वहां से निकल लेते हैं।
मैने ग्रामीण जीवन का वह दौर भी देखा है, जब चौपालें लगती थीं, जाड़े के दिनों में जलते अलाव के पास लोग इकट्ठा बैठते थे, एक कप चाय पर बड़ी से बड़ी समस्याएं सुलझ जाती थीं। आजकल तो अधिकांश लोग अधिकतर मामलों को आपसी संवाद से न निपटाकर, शासन या न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पसंद करते है। जबकि वे यह भूल जाते है कि आपस के विवाद के चक्कर में अदालत में उनका ही समय बर्बाद होगा और उनके पास अपने विकास के लिए सोचने, करने का समय नहीं बचेगा। यह सच है कि ज्यादातर समस्याओं का समाधान आपसी सहमति, संवाद से ही हो जाता है। कई बार देखा है कि कोर्ट में सालों से लटके मामले भी आपसी राजीनामे पर ही समाप्त होते हैं। विवाद यदि आपसी सहमति से निपटेंगे, तभी रिश्ते अपनी मधुरता के साथ आगे बढ़ेंगे। विवाद यदि प्रशासन और न्यायालय से निपटेगा तो विवाद भले ही निपट जाय, उन परिवारों का आपसी प्रेम सिमट जायेगा।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी जैसे वाक्यांशों का अर्थ अब समाज से विलुप्त होता जा रहा है। माना कि भौतिकवादी युग में हमें जीविकोपार्जन और अपने विकास के लिए देश-विदेश, अलग-अलग स्थानों पर आना-जाना, रहना पड़ता है, पर अपनी मातृभूमि से जुड़े रहने के साथ-साथ हमें अपने स्तर पर अपनी मातृभूमि की उन्नति के लिए अपने गांव पर भी ध्यान देना चाहिए, यह नहीं भूलना चाहिए कि कोरोना जैसी वैश्विक महामारी में हमारे गाँवों ने ही हमें शरण दी।
महात्मा गांधी ने कहा था की भारत की आत्मा गांवों में बसती है। मेरा सुझाव है कि छठवीं कक्षा के बाद हरेक के लिए यह नियम ही बना देना चाहिए कि साल के कुछ निर्धारित दिन गांव में बिताने पर ही अगली कक्षा में प्रवेश की अनुमति दी जाएगी। इस बहाने देश के नौनिहालों में बचपन से ही गांव के संस्कार अंकुरित होंगे और हम सब जानते है कि बचपन के संस्कार जल्दी नहीं भूलते।
गांव की सीमा तो वहीं की वहीं रहेगी, पर लोग आपस तक ही सिमटकर न रह जाएँ, इसके लिए ग्रामीण संस्कृति के लोकगीतों, त्योहारों, परंपराओं, रिवाजों और भाषा आदि के संरक्षण के लिए हम सबको साथ आना चाहिए, क्योंकि यहीं एक माध्यम है, जो हमें एक धागे में पिरो कर रख सकता है। आपने भी अनुभव तो किया ही होगा, परदेस में यदि अपनी भाषा बोलते हुए कोई मिल जाए, तो ऐसा लगता है, जैसे रेगिस्तान में जलाशय मिल गया हो और फिर हम उससे इस कदर जुड़ने की कोशिश करते हैं, जैसे उसे वर्षों से जानते हों।
-अंकुर सिंह