15 अगस्त 1947 को भारत ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से मुक्त हुआ। यह स्वतंत्रता अपने 75वें वर्ष में प्रवेश कर रही है। ब्रिटिश औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त होकर हमें तय करना था कि अब हम किसी भी प्रकार की नव-उपनिवेशिवादी व्यवस्था में नहीं फंसेंगे। हमें व्यक्ति के स्वराज्य, लोक के स्वराज्य एवं राष्ट्र के स्वराज्य की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करना था। इस बहुमुखी स्वराज्य यात्रा में सरकार की (राजसत्ता की) भूमिका एक गारंटर की होनी थी। अर्थात् राजसत्ता को यह सुनिश्चित करना था कि नव-उपनिवेशवादी शक्तियां पुन: कभी भी अपना जाल नहीं बिछा सकेंगी। इसी प्रकार राजसत्ता को उस परिवेश का निर्माण करना था, जिसमें व्यक्ति के स्वराज्य का, लोक समुदाय के स्वराज्य का एवं राष्ट्र के स्वराज्य का हनन या हरण नहीं होगा।
इस गारंटर के रूप में सरकार ने कुछ अधिकार एवं कुछ सत्ता का प्रभाव ग्रहण किया। कल्पना थी कि जैसे-जैसे व्यक्ति का स्वराज्य, लोक समुदाय का स्वराज्य एवं राष्ट्र का स्वराज्य मजबूत होता जायेगा, वैसे-वैसे सरकार (राजसत्ता) का दायरा घटता जायेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। नागरिक अधिकारों तथा लोकतंत्र का एक ढांचा तो बना, किन्तु विभिन्न स्तरों पर स्वराज्य की स्थापना का स्वप्न दूर से दूर होता चला गया। औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के संघर्ष के दौरान गांधीजी अहिंसक क्रांति की धारा का भी निर्माण करते जा रहे थे। वे समझते थे कि राजसत्ता की शक्ति का स्रोत तथा उसकी चालक शक्ति दोनों हिंसा की संगठित शक्ति एवं दंडशक्ति पर आधारित हैं। इसीलिए उन्होंने अहिंसक क्रांति के लिए जिस पद्धति का विकास किया, उसमें व्यवस्था परिवर्तन, मूल्य परिवर्तन तथा नये नैतिक मनुष्य के निर्माण का कार्य करने के लिए राजसत्ता के माध्यम को विचारपूर्वक छोड़ दिया।
गांधीजी ने इसी कारण स्वराज्य के आदर्श की ओर बढ़ने के लिए अहिंसक मार्ग का इजाद किया। इसके अंतर्गत सभी स्तरों पर स्वराज्य लाने का रास्ता, व्यक्ति की आत्मिक व नैतिक शक्ति केन्द्रित लोकसत्ता के निर्माण एवं लोकसत्ता के द्वारा प्रशस्त होता। इस प्रकार स्वराज्य के लिए आंदोलन, परिवर्तन की प्रक्रिया को दो स्तरों पर एक साथ चलाता है। पहला, बाह्य समाज की व्यवस्था एवं मूल्यों को अहिंसा के मूल्यों के अनुरूप बनाने का आंदोलन खड़ा करना। दूसरे व्यक्ति की अंतरात्मा की शक्ति यानि आत्मबल को जागृत कर उसे सामाजिक परिवर्तन की ऊर्जा के रूप में प्रयुक्त करना।
व्यक्तिगत अहिंसा की साधना, व्यक्ति को उच्च से उच्चतर चेतना की ओर ले जाती है। यानि स्वराज्य के लिए अहिंसक क्रांति के प्रथम पंक्ति के कार्यकर्ता उच्चतर चेतना से निर्मित आत्मबल से आंदोलन को अपना योगदान करेंगे। इसके साथ ही अहिंसक आंदोलन सामूहिक अहिंसा की साधना का भी माध्यम बनेगा। अहिंसा की सामूहिक साधना से सामूहिक स्तर पर समाज उच्च से उच्चतर स्तर की ओर जायेगा। संकीर्ण स्वार्थ आधारित प्रेरणा का विकल्प इस मार्ग से निकलेगा।
जिस प्रकार राजसत्ता के माध्यम से अहिंसक स्वराज्य का निर्माण संभव नहीं है, उसी प्रकार शोषणकारी, दोहनकारी एवं अन्याय आधारित अर्थव्यवस्था को समाप्त किये बगैर सच्चे स्वराज्य का निर्माण संभव नहीं है। औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के दौरान वैश्विक स्तर पर शोषण एवं दोहन की व्यवस्था तभी बन सकी, जब ग्राम समुदायों एवं लोक समुदायों को खत्म किया गया। लोक समुदायों को पुन: प्रतिष्ठित किये बिना स्वराज्य यानि अहिंसक समाज का निर्माण संभव नहीं है। ऐसे लोक समुदायों में श्रमिक उत्पादन के साधनों से बेदखल नहीं होगा तथा श्रमिक के श्रम का, न तो पूंजीवादी बाजार द्वारा, न ही सामंती व्यवस्था द्वारा शोषण हो सकेगा।
आजादी के तुरंत बाद स्वराज्य की दिशा में हम आगे नहीं बढ़े। हां, यह जरूर हुआ कि पूंजीवादी-नव औपनिवेशिक शोषण से बचने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार हुआ तथा सामंती शोषण से बचने के लिए आधे-अधूरे मन से भूमि सुधार कानून लागू हुए। किन्तु लोक समुदाय नियंत्रित क्षेत्र, जो स्वराज्य की दिशा में ले जाते, उनका निर्माण नहीं हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि जब विश्वबैंक के दबाव में (1970 के बाद) एवं विश्व व्यापार संगठन के दबाव में (1996 के बाद) राजसत्ता ने अपने को सिकोड़ना शुरू किया, तो उस स्थान पर कारपोरेट जगत का नियंत्रण बढ़ता गया। अत: आज लोक स्वराज्य के लिए राजसत्ता से भी और कारपोरेट जगत से भी संघर्ष की रणनीति बनानी होगी।
-बिमल कुमार