भारत में गोवंश के पतन का इतिहास

प्रकृति का चिरंतन चक्र घूमता रहता है, इसलिए लाभ हानि में संतुलन बना रहता है। प्रकृति के इस नियम को खंडित किया गया। अंग्रेजों की मिलिटरी के भोजन के लिए बछड़े और जवान गायें डेढ़ सौ साल कटती रहीं। डेयरी के लिए शहरों में गया गोवंश गांव में वापस नहीं आया। उनके बच्चे और वे बढ़िया-दुधारू गायें दो तीन ब्यात के बाद मौत के घाट उतारी गयीं। इस तरह भारत में समुन्नत की गयी हजारों साल की तपश्चर्या चंद सालों में मिट्टी में मिलायी गयी।

 

दुनिया में सबसे अच्छी नस्ल वाले भारतीय गोवंश के पतन की कहानी बड़ी दर्दनाक और आत्मविस्मृत नादानी की गाथा है। औरंगजेब के जमाने में इसकी शुरूआत हुई, अंग्रेजी राज में इसका भीषण और भारत की आजादी के बाद इसका भीषणतम स्वरूप सामने आया है।
भारत में अंग्रेजी राज कायम हुआ, तो दुनिया में औद्योगिक क्रांति का दौर चला। बड़े बड़े नगर बनने लगे, पुराने नगरों की भी आबादी बढ़ने लगी। इन नगरों में बढ़िया गोवंश का विनाश धीरे-धीरे बढ़ता गया।

प्रकृति का चिरंतन चक्र घूमता रहता है, इसलिए लाभ हानि में संतुलन बना रहता है। प्रकृति के इस नियम को खंडित किया गया। अंग्रेजों की मिलिटरी के भोजन के लिए बछड़े और जवान गायें डेढ़ सौ साल कटती रहीं। डेयरी के लिए शहरों में गया गोवंश गांव में वापस नहीं आया। उनके बच्चे और वे बढ़िया-दुधारू गायें दो तीन ब्यात के बाद मौत के घाट उतारी गयीं। इस तरह भारत में समुन्नत की गयी हजारों साल की तपश्चर्या चंद सालों में मिट्टी में मिलायी गयी।

देहातों में औसत दर्जे का जो गोवंश बचा, उसको भी चालाकी से मृतप्राय अवस्था में पहुंचाया गया। भारतवासियों की शारीरिक-मानसिक-बौद्धिक-आत्मिक शक्ति की रीढ़, समृद्धि और सम्पन्नता का चिरंतन स्रोत गोवंश बचा रहेगा, तब तक भारत को संपूर्णतया अपने कब्जे में दीर्घकाल तक रखना असंभव है, अंग्रेजों ने यह महसूस किया। गीता, गांव और गाय इन तीन स्तंभों पर भारतीय बलवती समाज व्यवस्था खड़ी है, उसे तोड़ने के अनेक तरीके उन्होंने अपनाये।

गोवंश से ध्यान हटाने के लिए अंग्रेज कलेक्टरों और अफसरों के घरों पर बढ़िया भैंसें रखी गयीं। उन्हें देखकर उनसे मिलने जुलने वाले बड़े अंग्रेजपरस्त घरानों में भी गाय की अनदेखी करके भैंस की सेवा शुरू हुई। दूध के बजाय चाय की महिमा बढ़ी और गाय के दूध वाली चाय की जगह भैंस के दूध वाली चाय ने ले ली।

पहले की पंचायत व्यवस्था तोड़कर अंग्रेज कलेक्टर संचालित नयी राज्य व्यवस्था थोपी जाने से गांवों में जंगल, चरागाह और सांड़ की पैदाइश की व्यवस्था में बाधा पहुंची, गोवंश और कमजोर हो गया। पशुखाद्य को निर्यात किया जाने लगा। ठिंगनी कद की फसलों को बढ़ाने से चारे का उत्पादन कम हुआ। जो भी पशु कमजोरी के कारण अनुपयुक्त महसूस हुआ, उसकी सतत उपेक्षा से वह निम्न स्तर पर पहुंच जाता है। निम्न स्तर पर पहुंचे गोवंश पर आखिरी प्रहार रासायनिक खादों और खेतों में आये ट्रैक्टर-पंप आदि ने किया। बैल बोझ बन गये। हरियाणा जैसे प्रदेश में दूध के लिए भैंस और खेती के लिए बेबी ट्रैक्टर का समीकरण बना और गोवंश, आवारा कुत्तों की माफिक घूमता दिखायी देने लगा।

गोवंश के पतन के इन ऐतिहासिक और आधुनिक कारणों की तह में जाकर उनका इलाज ढूंढ़ने के बजाय गोवंश के कत्ल की सलाह सरकारी सलाहकारों ने दी और स्थानीय गोवंश की जगह विदेशी गायों को पालने की सरकारी नीति बनी। मौज-ऐश में खर्च हो रहे पेट्रोल-डीजल के अरब राष्ट्रों से व्यापार के लिए एक पलड़े में डीजल की टंकी तो दूसरे पलड़े में गोमांस का सिलसिला आज भी जारी है। निरामिष आहार की साधना करने वाले, स्वराज के लिए अहिंसक लड़ाई लड़ने वाले इस देश में आजादी के बाद डेढ़ सौ गुना पशु हत्या की जा रही है। इसे और बढ़ाने के लिए स्वतंत्र मंत्रालय तक बनाया गया है।

विदेशी गायों से भारतीय गायें लाभकारी
कस्तूरबा राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट, कस्तूरबा ग्राम, इंदौर में और योगी अरविंदजी के ग्लोरिया फॉर्म पर दस साल तक गो-सेवा के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय नस्लें विदेशी नस्लों से अधिक लाभदायी हैं। विदेशी नस्लों की व्यवस्था में थोड़ी-सी कमी भी वे बर्दाश्त नहीं कर पाती हैं। बदलती ऋतुओं का उन पर जल्दी और विपरीत असर पड़ता है। बीमारियां अधिक आती हैं। बछड़ों का तुरंत इलाज नहीं हुआ, तो वे मर जाते हैं।


सर्व सेवा संघ के तत्कालीन अध्यक्ष नारायण देसाई को यूरोप में भारतीय नस्ल की गायें देखकर आश्चर्य हुआ था। उन्होंने वहां के अफसरों से सवाल किया था कि भारत में तो आप की गायें लायी जा रही हैं, उन्हीं का प्रचार-प्रसार हो रहा है और आप यहां भारतीय गायें पाल रहें हैं, यह कैसे? जवाब मिला, ‘हम जानते हैं कि हमारे देश की नस्लें भारत में चलने वाली नहीं हैं। चंद सालों में आप लोग इसे महसूस करेंगे। उन्हें अपनी भारतीय नस्ल की गायों की महत्ता महसूस होगी, लेकिन तब तक भारत में भारतीय गायों का सफाया हो चुका होगा। उन्हें अपने गोवंश को पुनर्जीवित करने के लिए हमारे देश में आकर भारतीय मूल की गायों को फिर से ले जाना पड़ेगा। इससे हमें खासा लाभ मिलेगा।

कितनी दूर की सोच है विदेशी व्यापारियों की, और कितनी नादानी हमारे पशु-विभाग की है, यह इसका ज्वलंत उदाहरण है। भारत के गोवंश को उन्नत करने के लिए विदेशी क्रॉस ब्रीड (संकर) की जरूरत नहीं है। हमारे ही देश में उन्नत गोवंश का उपयोग करके अपने गोवंश को ‘अपग्रेड’ करना चाहिए। इसके सफल उदाहरण वर्धा में देशी गायों पर देखने में आये हैं।

गाय के साथ खिलवाड़
कृत्रिम रेतन : हमारी ही अक्षमता के कारण गांवों में सांड़ों का अकाल पड़ा हुआ है। उन्हें हटाने और अधिक उन्नत नस्ल के बीज का लाभ लेने के लालच में कृत्रिम गर्भाधान की विधि प्रचलित की गयी है। ऊपरी सोच से यह अच्छा तरीका दीखता है, लेकिन सोचने की बात यह है कि गाय मात्र बछड़ा जनने का कारखाना है क्या?

क्या कृत्रिम गर्भाधान पद्धति हमारे परिवार में हम दाखिल करना चाहेंगे? सांड़-गाय का मिलन एक भावना से जुड़ी सांस्कृतिक विधि भी है। इसमें परस्पर संतोष मिलता है। रिश्ता भी बनता है। उसे हम तकनीकी स्तर पर ले आये हैं। गाय भावनाशील प्राणी है। अच्छा संगीत सुनने से उसका स्वास्थ्य अच्छा रहता है। दूध भी बढ़ता है। भगवान कृष्ण के मुरली वादन ने इस रहस्य का पहले ही उद्घाटन किया है। कृत्रिम रेतन हरगिज स्वस्थ पशु नहीं पैदा कर सकेगा। यह नर-मादा दोनों के प्राकृतिक हक पर आक्रमण है, उन पर अत्याचार है।

फूंका पद्धति : गाय को इंजेक्शन देकर अधिक दूध प्राप्त करने के लिए दो तीन ब्यात में ही उसके मांस, हड्डी, खून को निचोड़कर गाय को यंत्रणाएं देकर उसको शनै: शनै: मृत्यु की ओर धकेलना महापाप और जघन्य अपराध है। ‘उपभोग करो, चूसो और फेंक दो’ यह भौतिकवादी और संकुचित तथा स्वार्थपरायण मनोवृत्ति मनुष्य जाति के मानवीय-सांस्कृतिक मूल्यों पर भी विपरीत परिणाम ही देगी। यह अदूरदृष्टि की परिचायक है। पशुओं को भी पूरी जिन्दगी जीने का अधिकार है।

मांस प्रधान प्रजाति : पाश्चात्यों में दूध या बैल की दृष्टि से नहीं, मांसाहार की दृष्टि से विशिष्ट प्रकार के गोवंश का संवर्द्धन किया जाता है। वास्तव में मांसाहार मानवीय प्रकृति के लिए प्रतिकूल है, यह विज्ञान द्वारा प्रमाणित किया गया है। शाकाहार के बजाय मांसाहार का उपयोग करने में चार पांच गुना अधिक जमीन लगती है। यह आरोग्य दृष्टि, आर्थिक विकास और आध्यात्मिक दृष्टि से हानिकारक है।

गाय के आहार से छेड़छाड़ : मनुष्य की तरह गाय भी वनस्पत्याहारी है। उसको खुराक के माध्यम से मांसाहार देने के कारण इंग्लैंड में ‘मैडकाऊ’ का जन्म हुआ। यानी गाय स्वयं पागल नहीं थी, हमने उसे पागल बनाया। इस तरह हमने ही भस्मासुर पैदा किया। इन पागल गायों के मांस और दूध का उपयोग करने से बच्चों और बड़ों के स्वास्थ्य को भी खतरा उपस्थित हुआ है, इस कारण इंग्लैंड में मैड बनायी गयी गायों को काट दिया जाता है, जिसमें उनका कोई अपराध नहीं है।

(लेखक की पुस्तक ‘गो-विश्व माता’ सर्व सेवा संघ प्रकाशन द्वारा 1998 में प्रकाशित की गयी थी।)

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