जब लोग हक को भीख और भीख को हक समझने लगे

जन-वितरण प्रणाली, खाद्य सुरक्षा अधिनियम, मुफ्त अनाज का अधिकार आदि से जो सफर शुरू हुआ था, वह आज सरकार एवं सत्ताधारी दल के उपकार और अहसान में बदल गया है। इस तरह से किसी भी जीवंत लोकतंत्र में नागरिक बोध का हरण हो जाना एक खतरनाक मोड़ है और इस मोड़ पर आत्महीन जनता हक को भीख और भीख को हक समझने लगी है. यह वह मोड़ है, जहाँ पहुंचकर लोकतंत्र मृत नागरिकों का एक प्रहसन बनकर रह जाता है।

ईचागढ़, झारखंड प्रदेश का एक विधानसभा क्षेत्र है। इसी इलाके में सुवर्णरेखा नदी पर चांडिल बांध बना है, जिसके कारण 116 गांवों के 15 हज़ार परिवार उजड़कर विस्थापित हो चुके हैं। विगत 4 दशकों से इन विस्थापितों के समुचित पुनर्वास के लिए संघर्ष चल रहा है। हर चुनाव से पहले यह मसला राजनीतिक पटल पर उभर कर आता है, तरह-तरह के वायदे किए जाते हैं, हवा में प्रलोभन की बातें तैरने लगती हैं और विस्थापितों को कई प्रकार के हथकंडों से लुभाया जाता है।

इस तरह ईचागढ़ क्षेत्र किसी भी राजनैतिक किरदार के लिए काफी उर्वर है। बस उसे कुछ टोटके भर इस्तेमाल करने पड़ते हैं। जमशेदपुर शहर के एक दबंग व्यक्ति के मन में वर्षों पहले विधायक बनने की लालसा जाग गई। कई तरह के कार्यक्रम आयोजित होने लगे। फुटबॉल, ड्रामा, नृत्य आदि आयोजनों में पुरस्कारों तथा विस्थापितों के बीच राहत सामग्रियों का वितरण किया जाने लगा। इसी क्रम में एक ‘विशाल भोज’ का आयोजन किया गया। इस भोज की सूचना (निमंत्रण नहीं) पर ही झुंड के झुंड लोग उमड़ पड़े। भीड़ अप्रत्याशित थी। खाने की तो कमी नहीं थी, लेकिन अंत आते-आते पत्तल कम पड़ गये। लोग खाने के लिए बेताब और बेकाबू हो रहे थे। बाजार से पत्तल लाने में विलंब होता। अंततः परिस्थिति की नजाकत भांपकर दावेदार महोदय ने अपने रचनात्मक दिमाग का परिचय देते हुए उपाय सुझाया। उन्होंने अपने कारिंदों से कहा कि ऐसा करो जी, जमीन पर ही खाना परोस दो और लगे हाथ प्रजाजनों की ओर मुखातिब होकर कहा, तुम लोग ऊपर-ऊपर से खा लेना। महान आश्चर्य घट रहा था! कोई टीका-टिप्पणी नहीं, कोई हील-हवाला नहीं, कोई विरोध नहीं और जैसे किसी की कोई इज्जत ही नहीं। जमीन पर खिचड़ी परोसी गयी और लोगों ने ऊपर-ऊपर खा भी ली। इस तरह जनता का वह ‘महाभोज’ सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।


इस भोज में शामिल होने वाले लोग वही हैं, जो भतीजी-भतीजे के विवाह में भाई द्वारा खुद घर आकर निमंत्रण नहीं देने पर मुंह फुलाकर बैठते हैं, और कभी-कभी तो जाने से इनकार भी कर देते हैं। अगर समयाभाव के चलते किसी और के द्वारा निमंत्रण भिजवा दिया जाए, तो उसे ‘फेंका-निमंत्रण’ कहकर स्वीकार नहीं करते हैं। लेकिन यही लोग ‘फेकन्त-उड़न्त’ सूचना पर इकट्ठा हो गए और कुत्तों की तरह आहार ग्रहण किया। यहाँ यह जानना दिलचस्प होगा कि ऐसा करते वक्त उनका जमीर कांपा था या नहीं।

सुवर्णरेखा नदी के किनारे कुछ परिवार इसकी मिट्टी और बालू से छानकर सोने के कण इकट्ठा करते हैं। यह इनका पुश्तैनी काम है। फिर वे इन कणों को स्थानीय व्यापारियों को बेच देते हैं। सहदेव साव नाम के एक करोड़पति व्यवसाई हैं, जो इस सोने को खरीदते हैं। ये ईचागढ़ गांव के निवासी हैं, जो अब चांडिल जलाशय में पूर्ण रूप से डूबने वाला है। जब पहली बार सरकार ने चांडिल जलाशय में पानी का संचय शुरू किया, तो कई गांवों में पानी घुस गया। प्रशासन की ओर से प्रभावितों के बीच राहत पैकेट वितरित किया गया, जिसमें अनाज, चीनी, मोमबत्ती, माचिस इत्यादि थे। जब राहत वितरण चल रहा था तब सहदेव साव भी उस लाइन में लगे हुए थे। एक-दो लोगों ने तंज कसते हुए कहा, ‘क्या मोशाय! आप भी!’ सहदेव साव ने नि:संकोच तपाक से उत्तर दिया, ‘जब सरकार दे रही है, तो क्यों न लें?’ इसी दौर की एक और घटना है। चांडिल शहर के एवरग्रीन क्लब के कुछ युवा रोटी-सब्जी का पैकेट बनाकर प्रभावितों के बीच बांट रहे थे। बाबूचामदा गांव के पास किनारे पर पैकेट बांटने के लिए उतर ही रहे थे कि ग्रामीणों ने उनका सब कुछ लूट लिया। हालांकि उन्हें यह पता था कि ये सामग्री उन्हीं के बीच बांटी जाने वाली है, फिर भी ऐसा हुआ। वैसे आए दिन हम लोग सुनते ही रहते हैं कि किसी दुर्घटना के बाद वाहन में रखे गए सारे माल-असबाब अगल-बगल के लोगों द्वारा लूट लिए गए। दिन-प्रतिदिन इस प्रकार की घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं।


उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी दल की दमदार जीत की पड़ताल करते हुए एक नया कथानक उभरा है। यह कहा गया कि लाभार्थी वर्ग ने चुनाव परिणामों को सर्वाधिक प्रभावित किया है। हांलाकि यह गणित और कथा अपेक्षाकृत गरीब पूर्वांचल में सिद्ध नहीं होती है, लेकिन फिलहाल यह यहां का प्रसंग नहीं है। राज्य की कल्याणकारी योजनाओं से जिन्हें फायदा होता है, उसे लाभार्थी कहा जाता है। यह कहा गया कि हर व्यक्ति को 5 किलो मुफ्त अनाज उपलब्ध कराने की योजना ने सत्ताधारी दल की पकड़ को मजबूत बनाए रखा। सत्ताधारी दल ने चुनाव प्रचार में भी इस विषय को छेड़ा था। इतना ही नहीं, नमक वितरण को भी याद किया गया। जनता को यह बार-बार एहसास दिलाया गया कि उसे इस नमक का शुक्रिया अदा करना है।

पिछली यूपीए की सरकार ने गरीब एवं कमजोर वर्गों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक कानून बनाकर जनता को अधिकार सम्पन्न बनाया था। इसमें सरकार के प्रति एहसान फरामोशी का तत्व नहीं, बल्कि अधिकार बोध शामिल था। विगत सरकारों ने कमजोर वर्गों को मुफ्त या लगभग मुफ्त अनाज उपलब्ध कराने के लिए अंत्योदय एवं अन्नपूर्णा योजनाओं को लागू किया था। प्रति व्यक्ति 5 किलो अनाज देने की योजना कोरोना के दौर में शुरू हुई, जो चुनावों को ध्यान में रखते हुए अभी भी जारी है।

जन-वितरण प्रणाली, खाद्य सुरक्षा अधिनियम, मुफ्त अनाज का अधिकार आदि से जो सफर शुरू हुआ था, वह आज सरकार एवं सत्ताधारी दल के उपकार और अहसान में बदल गया है। इस तरह से किसी भी जीवंत लोकतंत्र में नागरिक बोध का हरण हो जाना एक खतरनाक मोड़ है और इस मोड़ पर आत्महीन जनता हक को भीख और भीख को हक समझने लगी है. यह वह मोड़ है, जहाँ पहुंचकर लोकतंत्र मृत नागरिकों का एक प्रहसन बनकर रह जाता है।

-अरविंद अंजुम

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