रांची में एक जुलाई को स्टेन स्वामी मेमोरियल व्याख्यानमाला में बोले फैज़ान मुस्तफ़ा
कानून और संविधान के जानकार फैज़ान मुस्तफ़ा गत एक जुलाई को रांची में स्टेन स्वामी मेमोरियल व्याख्यानमाला में बोल रहे थे. आयोजन पीयूसीएल का था. मानवाधिकार से जुड़े कानूनी पहलुओं के अलावा देश के मौजूदा धार्मिक उन्माद के माहौल और मुद्दों पर भी वे खुल कर बोले. उन्होंने कहा कि मानवाधिकार का सवाल और संघर्ष किसी एक दल या सरकार से जुड़ा नहीं है. हर दौर में यह मुद्दा रहता है और हर सरकार मानवाधिकार का सवाल उठाने को अपने खिलाफ मानती है. मानवाधिकार इंसान का नैसर्गिक अधिकार है, इसे छीनने का अधिकार किसी को नहीं है. हमारा संविधान भी यही कहता है और सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों में भी यही बात कही गयी है. यह अधिकार हर मनुष्य को जन्म के साथ ही मिल जाता है. यह किसी राज्य या संविधान ने नहीं दिया है.
राज्य की उत्पत्ति व्यक्ति और समाज के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए हुई थी, मगर आगे चलकर ‘राज्य’ ही सर्वोपरि हो गया. फिर मानवाधिकार उसे अपने खिलाफ अंकुश जैसा लगने लगा. राजाओं ने तो खुद को ईश्वर का प्रतिनिधि ही घोषित कर दिया. इसका मतलब राजा या बादशाह के खिलाफ बोलने का अर्थ ईश्वर के खिलाफ बोलना हो गया, राजद्रोह हो गया. इसी तरह सरकार के खिलाफ बोलना देश के खिलाफ बोलना, यानी देशद्रोह मान लिया जाता है, जो सही नहीं है.
अपने अधिकारों के लिए लड़ना जरूरी है, लेकिन जो दूसरों के अधिकारों के लिए लड़ते हैं, वे ख़ास लोग होते हैं. महान होते हैं वे लोग, जो दूसरों के हक़ के लिए लड़ते हुए अपनी जान तक दे देते हैं. स्टेन स्वामी ऐसे ही लोगों में से एक थे और ऐसे लोग हर युग और दौर में कष्ट पाते रहे हैं.
फैज़ान मुस्तफ़ा ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ईश निंदा या ब्लासफेमी का कानून गलत है. किसी आधुनिक और सभ्य समाज या देश में ऐसा क़ानून नहीं होना चाहिए. धार्मिक आजादी का अर्थ कोई धर्म न मानने की, नास्तिक होने की आजादी भी है. समाज और देश क़ानून से चलता है, चलना चाहिए. आपका या किसी का धर्म कुछ भी कहता हो. आप अपनी आस्था दूसरों पर थोप नहीं सकते, न दूसरों से अपेक्षा रख सकते हैं कि वह आपकी मान्यताओं को स्वीकार करे और उस पर अमल करे.
जो इस्लाम को नहीं मानता, उससे यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह हजरत मोहम्मद को आख़िरी पैगाम्बर या नबी और कुरआन को आसमानी किताब माने! आपको अपने धर्म पर आस्था है, आप रोजा रखना फर्ज मानते हैं, तो एक महीने क्यों, पूरे साल भर रोजा रखिये. आपको भगवान जगन्नाथ में आस्था है, तो आप पुरी में जाकर ही बस जाइए. वहां हमेशा रथयात्रा निकालिए, पर अपनी आस्था के लिए अन्य लोगों के सामने परेशानी मत खड़ी कीजिये.
अफीम का सेवन करने वाला सुस्त हो जाता है, किसी की हत्या नहीं करता. जिन लोगों ने (संदर्भ उदयपुर) एक दर्जी को धोखे से मार डाला, वे तो धार्मिक भी नहीं हो सकते. ऐसे लोगों ने न कुरआन पढ़ी होगी, न वे पैगम्बर मोहम्मद ने क्या कहा, यह जानते हैं. किसी को भी किसी धर्म के सिद्धांतों पर सवाल करने का अधिकार होना चाहिए. लेकिन दो समुदायों के बीच नफरत बढ़ाने वाली हेट स्पीच पर रोक जरूरी है.
पहले से स्थापित बातों पर सवाल करने से ही ज्ञान बढ़ता है. कोई भी नया धर्म, पिछले धर्म को चुनौती देकर ही अस्तित्व में आता है. विज्ञान का विकास भी इसी तरह हुआ है, इसी तरह होता है. इसलिए असहमति जताने का अधिकार बहुत अहम है. बोलने के अधिकार में असहमति जताना भी निहित है. जो लोग धर्म के नाम पर देश बनाने की बात करते हैं, उनको उन इस्लामिक देशों को देख लेना चाहिए. साथ ही उन देशों को भी जो धर्म को पीछे छोड़कर आगे बढ़ गये.
इसी संदर्भ में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट द्वारा गर्भपात के खिलाफ दिए गए फैसले का जिक्र करते हुए फैज़ान मुस्तफ़ा ने कहा कि पिछली रिपब्लिकन सरकार में बड़ी तादाद में दक्षिणपंथी सोच के जजों की नियुक्ति कर दी गयी थी, यह उसी का नतीजा है. उन्होंने कहा कि दो दिन पहले ही फिलीपींस में वहां के बदनाम तानाशाह मार्कोस के बेटे ने सत्ता संभाल ली है. परिवारवाद सिर्फ अपने देश का रोग नहीं है.
भारत के संविधान और कानूनों में कोई कमी नहीं है, लेकिन उसको लागू करने वालों की नीयत ही ख़राब हो, तो वे कानून की मनमानी व्याख्या करके उन्हीं कानूनों का इस्तेमाल आम आदमी को परेशान करने के लिए भी कर सकते हैं. यह चुनौती हमेशा ही रहेगी. जिन लोगों ने दूसरों के हित में काम करने का संकल्प लिया है, वे ऐसी चुनौतियों को झेलने की तैयारी रखते हैं. स्टेन स्वामी का उदहारण सामने है.
संदेह होने पर पुलिस को किसी को भी गिरफ्तार करने का अधिकार है, लेकिन किसी को प्रताड़ित करने का, बिना उचित ट्रायल के लंबे समय तक जेल में रखने का अधिकार नहीं है. गंभीर से गंभीर अपराधियों को भी तय प्रक्रिया के बाद ही सजा दी जा सकती है. जैसे कसाब को दी गयी, जिसे पूरी दुनिया ने देखा. लेकिन कितनी दुखद और शर्मनाक बात है कि अस्सी बरस के फादर स्टेन स्वामी को जेल में एक स्ट्रा पाने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ी.
समारोह का संचालन भारत भूषण चौधरी ने किया. स्टेन स्वामी के नजदीकी रहे फिल्मकार व समाजकर्मी मेघनाद ने उनके व्यक्तित्व और संघर्षशील जीवन का परिचय दिया. बताया कि कैसे उनके लिए वंचितों के पक्ष में खड़ा होना, उनके अधिकारों और उनकी गरिमा के लिए लड़ना ही सबसे बड़ा लक्ष्य था.
-श्रीनिवास