पुस्तक
‘ओपेन वेन्स ऑफ लैटिन अमेरिका’ उन दस करोड़ लातिन अमेरिकियों का गुस्सा है, जो इतिहास की शापित कब्रों में दफन हैं। ‘ओपेन वेन्स ऑफ लैटिन अमेरिका’, पूंजीवादी जुल्म का वह खूनी दस्तावेज है, जिसे पढ़कर धर्म, व्यापार और सत्ता के कॉकटेल का असली रूप सामने आता है।
क्या कोई ऐसी सभ्यता हो सकती है, जिसके बच्चों, जवानों, बूढ़ों और औरतों को इंसान मानने से ही इंकार कर दिया गया हो? ये मान लिया गया हो कि अगर इनके पेट में धारदार चाकू घोंप दिया जाये, तो इनको दर्द नहीं होगा, इनके अंदर संवेदना नहीं होगी और अहसास तो बिल्कुल भी नहीं होगा? आमतौर पर आज के वक्त में हमें कोई इस तरह का किस्सा सुनाये तो हम उसे खारिज़ कर देंगे।
लेकिन ऐसा था और यह सभ्यता कोई सैकड़ों, लाखों की नहीं, बल्कि लगभग दस करोड़ लातिन अमरीकियों की थी। एदुआर्दो गालियानों की किताब ‘ओपेन वेन्स ऑफ लैटिन अमेरिका’ का हिन्दी अनुवाद ‘लातिन अमरीका के रिसते जख्म’ आया है। ‘ओपेन वेन्स ऑफ लैटिन अमेरिका’ के हर पन्ने को पढ़ने के बाद बेचैनी इतनी बढ़ जाती है कि कुछ देर किताब को बंद करना मजबूरी-सी हो जाती है। एदुआर्दो की यह किताब, एक किताब भर नहीं है, एक जीवंत आरोप है, उस पूंजीवादी समाज पर जिसने लातिन अमेरिका की लगभग दस करोड़ जनता का इस कदर खून चूसा, कि चार सदियों में यह आबादी पचास लाख से भी कम हो गई।
14 वीं शताब्दी तक इन लातिन अमरीकी देशों की अपनी खुशहाल सभ्यताएं और अपने देवता थे। लातिन अमेरिकावासी इसलिए भी खुश थे, क्योंकि उनके पास प्रकृति का दिया हुआ सब कुछ था। जो नहीं था, वे थीं महत्वकांक्षाएं। लेकिन एक अगस्त, 1492 को किसी दिशा से भटकता हुआ एक जहाज लातिन अमेरिकी महाद्वीप पहुंचा। इस जहाज को स्पेन से जाना तो जापान था, लेकिन ये तूफान में दिशा भटककर बिल्कुल विपरीत इधर आ गया।
इस जहाज में था स्पेनिश सम्राज्य की शाही सेना का उप कमांडर और कैथोलिक चर्च का एजेंट क्रिस्टोफर कोलंबस। समुद्र किनारे जहाज से उतरते ही कोलबंस ने वहां की महिलाओं के कानों और हाथों में सोने-चांदी के अभूषण देखे, तो भौंचक्का रह गया। वह अपने व्यापर के सिलसिले में जापान की यात्रा पर था, लेकिन नियति को शायद कुछ और ही मंजूर था। उसने यह सम्पन्नता देखी और चुपचाप स्पेन लौट गया। कुछ ही समय बाद लातिन अमेरिका में स्पेनिश शाही सेनाएं उतार दी गयीं।
एक सभ्यता कितनी मासूम हो सकती है, यह इस बात से भी पता चलता है कि जब स्पेनिश सेना समुद्री किनारों पर पहुंची, तो उनके बड़े-बड़े जहाजों को देखकर लातिन राजा को लगा कि जैसे धरती पर साक्षात देवता उतर आये हैं। स्पेनिश जवान इतने गोरे और उनके बाल इतने सुनहरे थे कि लातिन लोगों ने उन्हें स्वर्ग से उतरे देवता समझा। स्पेनिश जवानों ने इन लोगों के पेट पर अपनी बारूद भरी बंदूकों से फायर शुरू कर दिया, तब भी इन्हें समझ नहीं आया कि ये हो क्या रहा है।
बहरहाल, उसके बाद शुरू हुआ लातिन अमेरिका में सोने और चांदी की लूट का चार सदी का काला अध्याय। लातिन अमेरिका के ही करोड़ों लोगों से पहले खानें खुदवाई गयीं। इस दौरान जहरीली गैस निकालने से लाखों लोग मारे गये। जब लोग खदानों के अंदर जाने से डरने लगे तो बंदूक के बल पर उन्हें अंदर भेजा गया। हालत इस कदर बुरे हो गये थे कि मांएं अपनी औलादों को खुद ही मार देती थीं।
सैकड़ों फीट नीचे नंगे बदन मजदूर चट्टान तोड़ने जाता था और अपनी नंगी पीठ पर मोमबत्ती जलाकर वापस ऊपर आता था। इस दौरान कई दब कर मर जाते थे। कोई भागकर ऊपर आने की कोशिश करता, तो उसे गर्म तेल डालकर मार दिया जाता था। जो बच गये, वे मलेरिया, हैजा और प्लेग से मर गये। जब चांदी और सोना खत्म हो गया तो फिर इन लोगों से कोको, रबर, गन्ना और कॉफी की खेती करवाई गई। यह वही वक्त था, जब यूरोप के कैथोलिक चर्च के जुल्म अपने चर्म पर थे। स्पेनिश सेना के बाद यूरोप के तमाम सम्राज्यवादी देश यहां लूट के लिए पहुंचे। इन देशों के साथ कैथोलिक चर्च के पोप भी पहुंचे। जिन्होंने यहां पर धर्म परिवर्तन के नाम पर हत्याओं का नंगा नाच किया।
एक दूसरे के धर्म को ज्यादा हिंसात्मक ठहराने वाले भी इस किताब को पढ़कर जान सकते हैं कि क्यों आखिरकार सैकड़ों साल बाद फ्रांस की क्रांति की जरूरत पड़ी, जिसने धर्म और सत्ता को पहली बार अलग किया और एक आदर्श समाज की परिकल्पना के बीज बोये, जिसका फल आज यूरोप खा रहा है। बहरहाल, एदुआर्दो गालियानों का गुस्सा वाजिब है। असल में ‘ओपेन वेन्स ऑफ लैटिन अमेरिका’ उन दस करोड़ लातिन अमेरिकियों का गुस्सा भी है, जो इतिहास की शापित कब्रों में दफन हैं। ‘ओपेन वेन्स ऑफ लैटिन अमेरिका’, पूंजीवादी जुल्म का वह खूनी दस्तावेज है, जिसे पढ़कर धर्म, व्यापार और सत्ता के कॉकटेल का असली रूप सामने आता है। गार्गी प्रकाशन इस किताब का हिंदी अनुवाद प्रकाशित कर रहा है। स्पेनिश से इसका हिंदी अनुवाद दिनेश पोसवाल ने किया है।
-मनमीत