अहोम साम्राज्य और आसमान से उतरे शेर की कहानी

मौंग माओ से नामरूप, असम पहुंचने में चुकाफा़ को तेरह साल लगे। आज गोहाटी से थाइलैंड का रास्ता सड़क मार्ग से केवल पैंतालीस घंटे में तय किया जा सकता है. असम तब आज का असम तो नहीं था, पर बिना जन जीवन का निरा जंगल भी नहीं था। पढ़ें, असम के इतिहास का एक रोचक और अपठित पन्ना।

एक था राजकुमार! राजकुमार क्या युवराज, क्राउन प्रिंस था वह! और पूरे उन्नीस वर्ष तक रहा, जब तक राज्य के राजा; उसके मामा को एक पुत्र नहीं प्राप्त हो गया। उस राज्य का नाम था मौंग माओ, यूं तो इस नाम की जगह आज भी चीन के यूनान/हूनान प्रांत में है, पर तब यह जगह संभवतः थोड़ा म्यांमार, थोड़ा चीन, थोड़ी ताई या थाई भूमि /स्याम देश से मिलकर बनी थी।

उसकी नानी ने कहा कि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं, न ही एक इलाके में दो शेर रह सकते हैं। राजकुमार चाओलंग चुकाफा जरा-सा विचलित हुआ, जिसके नाम के पहले ही शब्द का अर्थ था महान राजा और दूसरे शब्द का अर्थ था आसमान से उतरा हुआ शेर! न जाने उसने क्या सोचा होगा या कौन जाने, उसे अपनी जान का खतरा ही महसूस हुआ हो! वह निकल पड़ा अपनी तीन रानियों, दो बेटों, एक बेटी, कुल नौ हजार सहयोगी हथियार बंद सिपाहियों और तीन सौ घोड़ों तथा दो हाथियों के साथ अपने लिए एक नया राज्य बनाने।

चाओलांग चुकाफा : प्रथम अहोम सम्राट

मित्क्यिंग मोगांग से होते हुए नदियां, झीलें और हाथी-घोड़ों के सहारे पहाड़ पार करते हुए पहले तो यह कारवां पहुंचा बर्मा की इरावथी नदी की घाटी में। फिर कई जगह रुकते-ठहरते, आगे बढ़ते खतरनाक नामग्यांग झील को पार करके वह बर्मा-भारत सीमा पर आ पहुंचा। यहां नागाओं का शासन था, जहां उसे पहले विरोध का सामना करना पड़ा, जिसे अपनी ताकत से कुचलकर वह आगे बढ़ा. पटकई की पहाड़ियां पार करने के बाद वह उस जगह पहुंचा, जहां के लोग खुशदिल और मित्रवत थे। यह वह जगह थी, जहाँ उसके वंशजों को छह सौ साल तक राज करना था। मौंग माओ से नामरूप, असम पहुंचने में चुकाफा़ को तेरह साल लगे। आज गोहाटी से थाइलैंड का रास्ता सड़क मार्ग से केवल पैंतालीस घंटे में तय किया जा सकता है।

असम तब आज का असम तो नहीं था, पर बिना जन जीवन का निरा जंगल भी नहीं था। सबसे पुराने उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार आज का असम, तब कामरूप का हिस्सा था, एक प्रदेश था, जिसकी राजधानी थी प्रागज्योतिषपुर, जो गोहाटी का ही प्राचीन नाम है। प्राचीन कामरूप, ब्रह्मपुत्र घाटी के साथ-साथ भूटान, रंगपुर जो अब बांग्लादेश में है और कूचविहार (बंगाल) तक फैला था। महाभारत काल में भी इस प्रदेश के संदर्भ पाये जाते हैं। घुमक्कड़ चीनी इतिहासकार ज़ुआनज़ांग ने, सातवीं शताब्दी में कामरूप का विस्तृत वर्णन किया है। सातवीं से तेरहवीं शताब्दी तक कामरूप में तांबे के बर्तनों, गहनों और शहरी बसावट के सबूत मिलते हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि कामरूप खासा समृद्ध और विकसित राज्य रहा होगा, लेकिन तेरहवीं शताब्दी के बाद इसने अपना महत्व खो दिया होगा, क्योंकि इसके बाद इसके बारे में इतिहास में कुछ नहीं मिलता।

चाओलंग चुकाफा अपने लाव-लश्कर के साथ पटकई पहाड़ियों के पार भारत की ओर वाली तलहटी में जिस जगह सबसे पहले रुका, वह दिहिंग नदी की घाटी में, डिब्रूगढ़ के पास वर्षा-वनों के बीच की दलदली भूमि थी, जहां कई जनजातियों के कबीले थे। चुकाफा ने इस इलाके को नामरूप नाम दिया, नामरूप हिंदी या असमी का शब्द नहीं, शान या ताई भाषा का शब्द है। इस भाषा में नाम का अर्थ है पानी और रूप का अर्थ है पांच, यह आज का अपर आसाम था; एक दूसरे को काटती हुई किसी जाल की तरह बिछी सौ से अधिक नदियों और वर्षा-वनों के बीच यत्र-तत्र बसी छुटपुट आबादियों का प्रांत। इसके कई दावेदार वंश थे, पाल, कोंच, कछारी, शुटिया आदि, जिनमें इस प्रान्त पर कब्जे के लिए सतत युद्ध चलता रहता था। चुकाफा को बहुत विरोध नहीं झेलना पड़ा, क्योंकि यहाँ आते हुए रास्ते में शक्तिशाली नागाओं को परास्त करने की कहानियां चुकाफा के आगे-आगे चलतीं थीं। आपस में लड़ने वाले सभी कबीले चुकाफा से दोस्ती को उत्सुक हो उठे। उसे सबसे ज्यादा सहयोग मिला मोरान और बोराई समुदायों से। मित्रता ही नहीं, उनकी आपस में शादियां भी हुईं।

चुकाफा के साथियों ने स्थानीय लोगों के साथ गीला धान उगाने की विधि साझा की। बदले में स्थानीय संपदा और कलाएं प्राप्त कीं। उसने सुबनसिरी नदी के तट से सोना निकालने वाले सोनोवाल कछारी समुदाय को अपने संरक्षण में ले लिया, जिसके बदले में उसे ढेर सारा सोना मिला। बाद के वर्षों में सोनोवाल समुदाय केवल राजा के लिए ही सोना निकालता था. कहते हैं कि बाद के अहोम राजाओं के युग में सोनोवाल समुदाय चार से पांच हजार तोला सोना प्रतिवर्ष राजकोष में जमा करता था. बोरा, शुटिया, सोनोवाल आदि ये सभी समुदाय आज भले ही अपने पूर्वजों के काम और जीवन यापन की शैली को छोड़ चुके हैं, पर ये जनजातीय उपनाम अभी भी प्रयोग में हैं।

चुकाफा ऐसी जगहें चुनता था, जहां जनसंख्या कम हो और उसे अपनी पैठ बढ़ाने का अधिक मौका मिले। वह नदियों की घाटियों के रास्ते आगे बढ़ता था, दिहिंग की घाटी से होकर तो वह आया ही था। यहाँ सस्सी और दिहिंग नदियों के किनारों पर उसने धान की खेती शुरू की, लेकिन इस क्षेत्र में बार-बार बाढ़ आने के कारण उसे आगे बढ़ना पड़ा। दीपम और अभयपुर आदि जगहों तथा ब्रह्मपुत्र के तटों से होते हुए 1232 में वह दिखों नदी की घाटी में स्थित शिबसागर पहुंचा। इसी के पास चराईदिओ नाम की जगह पर उसने बसने का इरादा कर लिया। अब तक कहीं प्रभाव से, तो कहीं दबाव से चुकाफा के राज्य, उसकी संपदा और सैन्यबल का विस्तार हो चुका था और अहोम साम्राज्य की नीव पड़ चुकी थी। उसने चराईदिओ को ही अहोम साम्राज्य की पहली राजधानी बनाया. 1268 में चुकफा के निधन के बाद उसका बेटा सुत्युफा गद्दी पर बैठा।

अहोम साम्राज्य में आगे के राजाओं ने कई राजधानियां बदलीं। राज्य के धर्म-कर्म के मामलों में अहोम राजा बहुत सहिष्णु और नया कुछ जानने के लिए उत्सुक रहा करते थे, हांलांकि चुकाफा और बाकी अहोम, देवताओं चुंग-फा और शेंग-मुंग की उपासना करते थे, पर चुकाफा ने असम की सभ्यता का अनादर नहीं किया. उसके राज्य में शैव, शाक्त, वैष्णव, बौद्ध सभी विद्वानों का सम्मान होता था।

नव वैष्णववाद के प्रवर्तक शंकरदेव को भी चुकाफा ने अपने राज्य में प्रश्रय दिया। उस समय राजकाज के लिए धार्मिक मंत्रणा भी आवश्यक होती थी। अपनी प्रजा की भावनाओं और समझ के सम्मान के लिए चुकाफा ने उन पर अपनी आस्थाएं न थोपकर, मध्य और उत्तर भारत से ब्राह्मणों को बुलाया। उस समय ब्रह्मपुत्र के इतने विशाल पाट को पार करके मैथिल और कान्यकुब्ज ब्राह्मण वहां गये थे। अहोम राजाओं की मेधा और इच्छाशक्ति की परिचायक थी यह घटना। वे ब्राह्मण वहीं की माटी में रच-बस गये पर विवाह आपस में ही करने की वजह से उन लोगों के नैन नक्श काफी हद तक उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों के निवासियों जैसे अब भी मिल जाते हैं।

लचित बोर फूकन

मूल थाई विश्वास के अनुसार चुकाफा आसमान से उतरा ईश्वर खुंनलंग का उत्तराधिकारी था, इसलिए ब्राह्मणों ने चुकाफा को स्वर्गदेव यानी देवता घोषित कर दिया और संभवतः इन्हीं ब्राह्मणों ने नृप को प्रसन्न करने के लिए उसे इंद्रवंशी क्षत्रिय ठहरा दिया, जबकि तब तक उस भूमि पर जाति-उपजाति का कोई विधान नहीं था।
असमिया जनमानस में चुकाफा की पैठ का अंदाजा लगाइए कि लोक गाथाओं के अनुसार वह इंद्र और एक निम्न वर्ण की स्त्री स्यामा (संभवतः स्याम से उद्भव हुआ इस चरित्र का) की संतान और ईश्वर का अवतार माना जाता है. इसकी तुलना कम्बोडिया, इंडोनेशिया आदि दक्षिण एशियाई देशों के प्राचीन इतिहास में प्रचलित देवराजा परम्परा से कर सकते हैं, जिसमें रजा को ईश्वर के समकक्ष समझा जाता था. चुकाफा के वंशजों का अहोम राज्य बिना रोक-टोक के छह सौ साल तक चलता रहा। बाद के राजाओं ने अपना मूल धर्म छोड़कर हिन्दू धर्म अपना लिया और हिंदी तथा असमिया नाम रखने शुरू कर दिये।

इस श्रेणी में सुहंगमुंग पहला राजा था, जिसने हिन्दू धर्म अपनाया, वह पंद्रहवीं शताब्दी में हुआ, उसे दिहिंगिया राजा भी कहते थे। स्वर्ग नारायन उसका हिंदू रिवाज़ का नाम था। हिंदू पौराणिक पद्धति के चलते भगवान के रूप में पूजा जाना इन राजाओं की सामाजिक, राजनयिक आवश्यकता थी या आस्था, यह विचार का विषय है। बाद में इस वंश में कई प्रखर योद्धा और राजनायक हुए। इन राजाओं की सामरिक क्षमता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि निकटवर्ती बंगाल में अपना गढ़ बनाने वाले मुगल कभी भी असम पर काबू नहीं पा सके। सत्रहवीं शताब्दी में जब भीतरी लड़ाइयां साम्राज्य को कमजोर करने लगीं थीं, तब भी 1661 में सराई घाट के भीषण युद्ध में रामसिंह के नेतृत्व वाली मुगल सेना को मुंह की खानी पड़ी थी।

तत्कालीन अहोम राजा चक्रवर्ती सिंघा के सेनापति लचित बोर फूकन का उल्लेख यहां अनिवार्य है। अद्वितीय योद्धा लचित बोर फूकन असम का लोकनायक है कितने ही लोकगीत और लोकनाटक उसके जीवन से प्रेरित हैं। कहते हैं कि गोहाटी छोड़ने के लिए उसे मुगलों की ओर से उस समय एक लाख रुपए का लालच दिया गया था, जो उसने ठुकरा दिया और स्वयं बीमार होने के बावजूद हतोत्साहित हो चुके सैनिकों के साथ अद्भुत वीरता से लड़ा और जीता. लचित बोर फूकन जैसे शूरों के चलते अहोम साम्राज्य का झंडा कई सदी तक लहराता रहा।

नामफेक गांव में 1850 में बना बौद्ध मंदिर

अहोम साम्राज्य के राजा जिस हद तक लोकमानस, लोकगीतों और लोकगाथाओं में मौजूद हैं, उसके मुकाबले देखा जाए तो इमारतों या स्मारकों के तौर पर उनकी स्मृति में ज्यादा कुछ नहीं दीखता। कुछ तो इसलिए कि बाढ़ और भूकंप की भूमि असम में पहले इमारतें लकड़ी और बांस की ही बनती थीं, जिनका जीवन बहुत लंबा नहीं होता और कुछ इसलिए कि मुगलों और अन्य शत्रुओं के साथ अनवरत संघर्ष में वास्तुकला के विकास के लिए संभवतः समय ही न मिला हो।

मुगलों के साथ अंतिम और निर्णायक लड़ाई के बाद राजा गदाधर सिंघा के युग में कुछ इमारतों का निर्माण हुआ। गोहाटी में ब्रह्मपुत्र के एक छोटे द्वीप पर उमानंदा मंदिर का निर्माण का श्रेय इन्हीं गदाधर सिंघा को जाता है। अहोम की अंतिम राजधानी जोरहट में तो बर्मी आक्रमणकारियों ने कोई अवशेष भी नहीं छोड़ा, लेकिन शिबसागर में आज भी कुछ इमारतें हैं। राजा का महल जो वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है, जिसे तलातल घर यानि कई मंजिला घर कहते हैं। आम चर्चा है कि यह इमारत सात मंजिला है, जिसकी तीन मंजिलें ऊपर और चार मंजिलें तथा दो लंबी सुरंगें भूमि के अंदर हैं. हालांकि पुरातत्व वेत्ता इससे सहमत नहीं हैं। भूल-भुलैया की तरह अचरच में डाल देने वाला इसका वास्तु शिल्प, बिना सभी मंजिलों के साक्ष्य के भी प्रभावित करता है। यहीं भारत का अपना कोलोसियम; रंगघर भी है, जहां बैलों की लड़ाई और अन्य खेलों का आनंद राजा-रानी ऊंचे पैवेलियन से लिया करते थे।1734 में अहोम राजा स्वर्गादेव शिवा सिंघा की रानी अंबिका का बनवाया भगवान शिव का एक मंदिर शिवा डोल भी देखा जा सकता है।

छह सौ वर्षों का शानदार राजपाट चलाने वाले और असम को अरुणांचल की घाटी से फैलाते हुए सिल्हट (वर्तमान बांग्लादेश) तक ले जाने वाले अहोम राजा अंततः इतिहास बन गये। अठारहवीं सदी में बागी विद्रोह से कमजोर पड़े बर्मा राज्य को आक्रमणकारियों ने तहस-नहस कर दिया। इसके बाद आये अंग्रेज़ बर्मी सेना से लड़े और 1826 में यानडाबो ट्रीटी के तहत असम, ईस्ट इंडिया कंपनी के कब्जे में आ गया।

बूढ़ी दिहिंग नदी

शान राजकुमार द्वारा बसाये शानदार असम का थाई कनेक्शन अभी भी बना हुआ है. यूं तो ताई लोग असम में कई जगह फैले हैं, पर हम उनसे डिब्रूगढ़ के ताई गांव नामफेके में मिले। नामफेके; बूढ़ी दिहिंग नदी के तट पर बसा हुआ एक स्वच्छ और सुंदर, छोटा-सा गांव! यहाँ के लोग खूबसूरत हैं, इनकी भाषा ताई है, पर अधिकांश ग्रामीण आम बातचीत में असमिया का प्रयोग करते हैं. करीब पांच सौ की जनसंख्या वाले इस गांव का मुख्य धर्म बौद्ध है।

फरवरी-2009 में मैग्सेसे अवार्डी थाईलैंड की राजकुमारी महाचक्री श्रीधरन नाम्फेके गाँव की यात्रा पर आई थीं. इस घटना का यहाँ के लोग बड़े गर्व से उल्लेख करते हैं.

कितना कुछ है असम के इतिहास में! कितना संघर्ष! कितना अध्यात्म! कितनी कथाएं! और कितने गीत! अद्भुत है यह असम देश! न जाने इसका यह असम नाम, संस्कृत के असमान से बना या अहोम से या अ-स्याम से! तेरहहवीं शताब्दी में पटकई पहाड़ियों को पार करके आये युवराज चुकाफा का पहला क़दम असम की भूमि पर वर्ष 1228 में 2 दिसंबर को पड़ा था, यह बात इतिहासकारों ने कैसे जानी, ये तो वही जानते होंगे पर 1996 से असम ने, अपने स्वर्गादेव इंद्रवंशी राजा चुकाफा के आने की खुशी में असम दिवस या चुकाफा दिवस मनाना शुरू कर दिया। यह दिन असम में सार्वजनिक छुट्टी का होता है. इस दिन जगह-जगह लोकगायन और लोकनृत्य से सजे समारोह होते हैं।

असम के नजीरा नाम के स्थान पर चुकाफा की सौ फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित है। ताई लोगों की सरकार से गुजारिश है कि गोहाटी के किसी मुख्य चौक पर भी चुकाफा की प्रतिमा स्थापित की जाए। असम के चुकाफा दिवस पर असम को और हम सब भारतवासियों को असम दिवस की बधाई पहुंचे!

-डॉ. ज्योत्स्ना मिश्रा

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