बाबा जो बात जोर-जोर से चिल्लाकर कह रहा है कि जमीन तो ईश्वरीय देन है, यह विचार न तो चीन से लिया है, न रूस से, बल्कि ईश्वर से लिया है। बाबा का मकसद जमीन की मालिकी मिटाना है।
हमें राग द्वेष से मुक्त होकर सतत सेवा करनी चाहिए,यही सच्ची भक्ति है,इसी में भगवान का दर्शन है। जीवन धन्य हो जाता है। बाबा भूमिदान का काम मधुकर वृत्ति से कर रहां है। जैसे शहद की मक्खी पराग लेकर भी पुष्प को दुखी नहीं करती, वैसे ही बाबा भी भूमिदान यज्ञ का काम किसी का मन बिना दुखाए करता है। बाबा जो बात जोर-जोर से चिल्लाकर कह रहा है कि जमीन तो ईश्वरीय देन है, यह विचार न तो चीन से लिया है, न रूस से, बल्कि ईश्वर से लिया है। बाबा का मकसद जमीन की मालिकी मिटाना है।
बाबा गांधी जी के जाने के बाद अहिंसा के प्रवेश के लिए रास्ता ढूंढ ही रहे थे कि कोई तरीका हाथ आना चाहिए, जिसे अहिंसात्मक क्रांति या सर्वोदय का क्रियात्मक आरंभ कहा जा सके। खादी ग्रामोद्योग का कार्य आगे बढ़ता तो भी उस दिशा में प्रगति होती, लेकिन भूदान का कार्य मिलते ही लगा कि हमें जीवन-कार्य मिल गया। बाबा ने सोचा कि इतना ही काम करते-करते अगर जीवन पूर्ण भी हो जाए, तो भी जिंदगी की सफलता ही है। मानो बाबा के हाथ में एक रत्न चिंतामणि ही आ गई थी, जिसकी तलाश में बाबा तेलंगाना में घूम रहा था।
बाबा यात्रा में चलते हुए रवींद्रनाथ टैगोर का ‘एकला चलो रे.. ओ रे ओ अभागा…’ याद करते थे। बाबा ने इस पद में सुधार कर लिया था- ‘एकला चलो रे.. ओ रे भाग्यवान’ क्योंकि यह वेद में आया है।
भूदान के शुरू के दिनों में बाबा का साथी कौन था, उस वक्त तक तो सर्व सेवा संघ ने भी भूदान का काम नहीं उठाया था। बाबा के नये-नये साथी रोज़ यात्रा से ही बनते थे। एक संस्मरण इसी संदर्भ का है, बाबा की यात्रा उत्तर प्रदेश में चल रही थी। वहां प्रदेश में चुनाव थे। तब बाबा को एक साथी ने कहा कि आप चौदह दिन एक जगह रुक जाइए, हमें चुनाव के लिए जाना है, क्योंकि मैंने बहुत पहले वायदा किया हुआ है। बाबा ने उस साथी से कहा कि जब गंगा कभी नहीं ठहरती, तो हमें क्यों ठहरना चाहिए? बाबा से कोई उन दिनों पूछता था कि क्या आपने फलाने मंत्री का भाषण पढ़ा? तो बाबा सुंदर-सा जवाब देते थे कि उन्होंने मेरा भाषण पढ़ा? जब वे मेरा भाषण नहीं पढ़ते हैं, तो उनका भाषण पढ़ने की जिम्मेदारी मेरी तो नहीं बनती। बाबा कभी नहीं पढ़ते थे, बल्कि कुछ समय मिलता तो वेदाभ्यास करते थे। दिन में चलना, घर-घर जाना और समझाना यही चलता था। बाबा यात्रा में चलते हुए रवींद्रनाथ टैगोर का ‘एकला चलो रे.. ओ रे ओ अभागा…’ याद करते थे। बाबा ने इस पद में सुधार कर लिया था- ‘एकला चलो रे.. ओ रे भाग्यवान’ क्योंकि यह वेद में आया है। क्व: स्वित एकाकी चरति? सूर्य एकाकी चरति, यानी सूर्य अकेला चलता है। – रमेश भइया