ग्राम स्वराज की विरासत
बनवासी सेवा आश्रम औपचारिक रूप से 1956 में पंजीकृत हुआ और गोविंद वल्लभ पंत की दूरदृष्टि को कठिन परिस्थियों में भी जमीनी स्तर पर उतारने में सफल रहा है। यहाँ साकार हो रहा है गाँधी जी के ग्राम स्वराज का सपना. आइये, आश्रम के इतिवृत्त पर एक नजर डालें.
ग्राम स्वराज का विचार समझाते हुए गाँधी जी समाज के आखिरी आदमी तक पहुँचने की बात करते थे। राष्ट्रपिता के इसी सपने को पिछले लगभग सात दशकों में सोनभद्र, उत्तरप्रदेश के बनवासी सेवा आश्रम ने एक जीवंत वास्तविकता में बदल दिया है। उत्तर प्रदेश के दक्षिण पूर्व में स्थित आदिवासी बहुल जिले सोनभद्र में बनवासी सेवा आश्रम ने शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, महिला सशक्तिकरण, खादी ग्रामोद्योग, पर्यावरण एवं अन्य कई क्षेत्रों में अपने प्रभावशाली काम से एक मिसाल पेश की है। तकरीबन 250 एकड़ क्षेत्र में फैले बनवासी सेवा आश्रम के परिसर में स्कूल, छात्रावास, स्वास्थ्य क्लिनिक, ग्रामोद्योग, व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र, प्रदर्शन फार्म, डाकघर, बैंक इत्यादि मौजूद हैं। वर्तमान में आश्रम इस ज़िले के 5 प्रखंडों के 445 गाँवों में कार्यरत है।
इतिहास
चार राज्यों की सीमा से सटा सोनभद्र 1989 तक मिर्ज़ापुर ज़िले का हिस्सा था। 1952 में विनाशकारी सूखे की चपेट में आने पर दक्षिण सोनभद्र ने राष्ट्रीय सुर्खियां बटोरी थीं। इस सूखे और अकाल के बीच स्वतंत्रता सेनानी और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने सोनभद्र का दौरा किया और गरीबों की दुर्दशा से बहुत परेशान हुए। यहाँ बड़े पैमाने पर निरक्षरता, स्वास्थ्य व्यवस्था की कमी, पीने के पानी का अभाव और विभिन्न सामाजिक कुरीतियां थीं। उन्होंने महसूस किया कि तत्काल राहत कार्य के अलावा, इस क्षेत्र के समग्र विकास के लिए स्वयंसेवी समूहों और संस्थाओं को जोड़ना समय की आवश्यकता है। उन्होंने गांधी स्मारक निधि, जो उस समय उत्तर प्रदेश में काम कर रही थी, से आदिवासी क्षेत्र दुद्धी में राहत कार्य करने का आग्रह किया। आश्रम को गोविंदपुर के निर्जन गाँव में 250 एकड़ वन भूमि प्रदान की गई।
आश्रम की गतिविधियां
बनवासी सेवा आश्रम औपचारिक रूप से 1956 में पंजीकृत हुआ और गोविंद वल्लभ पंत की दूरदृष्टि को कठिन परिस्थियों में भी जमीनी स्तर पर उतारने में सफल रहा है। आश्रम की प्रारंभिक गतिविधियाँ अकाल पीड़ितों को राहत प्रदान करने पर केंद्रित थीं। बाद में, आश्रम ने कुओं का निर्माण, गाँव की सफाई, स्कूलों और विभिन्न कुटीर उद्योगों की स्थापना तथा सूखा पीड़ितों को फिर से बसाने में मदद करने जैसे विकास के विभिन्न कार्यक्रम शुरू किये। 1968 में आश्रम से जुड़कर प्रेम भाई ने आश्रम के कामों को नई उच्चाई दी। डॉ रागिनी प्रेम का योगदान भी अनमोल है। प्रेम भाई एक जुनूनी कार्यकर्ता थे, तो डॉक्टर डॉ रागिनी एक सेवाभावी, समर्पित एवं सामाजिक प्रतिबद्धता से ओत-प्रोत चिकित्सक थीं। दोनों ने आश्रम के जरिये क्षेत्र में लोकहित के अनेक कार्यक्रम चलाये।
शिक्षा
मैं आश्रम से 20 किमी दूर मनबसा गाँव में चलाए जा रहे स्कूल में एक मीटिंग में शामिल होने के लिए पहुँचा। मनबसा के इस स्कूल के 5 टीचरों, अभिभावकों एवं अन्य गाँव वालों से मेरी घंटे भर बातचीत हुई। गाँव के एक बुजुर्ग बताते हैं कि 1970 की शुरुआत में यह स्कूल गाँव वालों ने खुद अपने श्रम से बनाया। यह आश्रम नहीं आता तो हमलोग बंधुआ मज़दूर ही रह जाते, यह कहते हुए वे आश्रम के गौरवशाली इतिहास को याद करते हैं।
साठ के दशक की शुरुआत में, जिस समय आश्रम ने दक्षिणी सोनभद्र क्षेत्र में अपनी गतिविधियां शुरू कीं, इस क्षेत्र में व्यापक अशिक्षा और गरीबी थी। अज्ञानता के कारण, स्थानीय लोगों का ज़मींदारों और साहूकारों द्वारा शोषण किया जाता था। वन अधिकारी, पुलिस, ठेकेदार आदि भी इसका फ़ायदा उठाते थे, क्योंकि उन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता था। अधिकांश सरकारी स्कूल बंद पड़े थे। आश्रम ने सबसे पहले अपनी शैक्षणिक गतिविधियों की शुरुआत वयस्क साक्षरता और मोबाइल साक्षरता कार्यक्रमों के साथ की। 1968 में, बनवासी सेवा आश्रम ने अपना वयस्क साक्षरता कार्यक्रम शुरू किया। गाँव में वयस्कों के लिए 2 घंटे रात्रि कक्षाएं चलाई गईं। बुनियादी साक्षरता के साथ-साथ वयस्कों को भी उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया गया। आश्रम ने मोबाइल लाइब्रेरी भी शुरू की, जो हज़ारों ग्रामीणों तक पढ़ने के लिए उपयोगी सामग्री पहुंचाती थी। 1977 में, आश्रम ने 5-14 वर्ष आयु वर्ग के कामकाजी बच्चों के लिए अनौपचारिक शिक्षा केंद्र शुरू किया। सुबह 5-8 वर्ष आयु वर्ग के लिए बाल मंदिर और शाम को 9-14 वर्ष आयु वर्ग के लिए आश्रम ग्रामीणशाला। 1990-1996 की अवधि के दौरान, यूनिसेफ और भारत सरकार के सहयोग से 212 गाँवों में संपूर्ण साक्षरता अभियान शुरू किया गया। यह साक्षरता अभियान, 5-14 आयु वर्ग के बच्चों के लिए अनौपचारिक केंद्रों और सरकारी स्कूलों के नियमितीकरण दोनों पर केंद्रित था।
आश्रम का शैक्षणिक कार्यक्रम गांधीवादी सिद्धांतों पर डिजाइन किया गया था। छात्रों को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाने के लिए कक्षा शिक्षा के साथ-साथ व्यावहारिक प्रशिक्षण भी दिया गया। शिक्षा पद्धति गांधीजी की नई तालीम की अवधारणा से प्रेरित थी, जिसका मानना था कि छात्रों को एक कौशल सीखना चाहिए, जो उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में सहायक हो। खेती, बुनाई, सिलाई, बढ़ईगीरी, मिट्टी के बर्तन बनाना और अन्य शिल्प आश्रम के स्कूली पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग थे। मनबसा केंद्र के एक अध्यापक मुझे बताते हैं कि आश्रम के इस स्कूल में साबुन व वाशिंग पाउडर निर्माण का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। वर्तमान में आश्रम द्वारा संचालित 7 विद्यालयों में लगभग 1000 विद्यार्थी नामांकित हैं। आश्रम 3 होस्टल भी चलाता है, ताकि दूरदराज के बच्चों को भी शिक्षा हासिल करने में दिक्कत न हो। आज आश्रम द्वारा 125 अनौपचारिक शिक्षा केंद्र भी चलाए जा रहे हैं।
इस इलाक़े में विभिन्न सरकारी योजनाओं के कारण सरकारी स्कूलों का फैलाव हुआ और आधारभूत संरचना बेहतर हुई है। इस कारण भी आश्रम को लगा कि स्कूली शिक्षा कार्यक्रम के समानांतर अब अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रम की आवश्यकता नहीं है। सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अभाव से नई समस्या ज़रूर उत्पन्न हुई है। मनबसा में कुछ टीचरों और अभिभावकों से बात करने पर वे बताते हैं कि जहाँ एक तरफ लड़कियों की शिक्षा में भागीदारी ज़्यादा देखी जा रही है, वहीं लड़कों में बढ़ता ड्रॉपआउट रेट चिंता का विषय है। लड़के कम उम्र में ही पैसे कमाने के लिए दूसरे राज्यों की ओर पलायन कर रहे हैं। ऐसे में आश्रम को उन्हें वोकेशनल कोर्सेज में भी जोड़ने की ज़रूरत दिखती है।
सामुदायिक संगठन निर्माण
पंचायती राज अधिनियम, 1993 के लागू होने से बहुत पहले, आश्रम ने 1968 में ही स्थानीय स्वशासन की त्रिस्तरीय विकेन्द्रीकृत प्रणाली शुरू की थी। गाँव स्तर पर ग्रामस्वराज्य सभाओं की स्थापना की गई। इनमें गाँव के सभी वयस्क या परिवार के कम से कम एक सदस्य होते हैं। ग्रामस्वराज्य सभा ग्राम स्तर पर विकास गतिविधियों की योजना बनाने, स्थानीय स्तर पर विवाद निपटाने तथा अनावश्यक अदालती लागत को कम करने में मदद करती है। ग्राम समूह स्तर पर क्षेत्रीय ग्रामस्वराज्य सभा है, जिसमें प्रत्येक ग्रामस्वराज्य सभा का प्रतिनिधित्व होता है। अध्यक्ष और सचिव इसके सदस्य होते हैं और यह एक ग्राम विकास केंद्र के अंतर्गत आती है। आमतौर पर 5 से 6 गाँव इसके दायरे में आते हैं। ये सूचना केंद्र के रूप में कार्य करते हैं और ग्रामीणों के बीच सूचनाओं का प्रसार करते हैं। केन्द्रीय ग्रामस्वराज्य सभा तीसरी श्रेणी है और इसमें क्षेत्रीय ग्रामस्वराज्य सभाओं का प्रतिनिधित्व होता है। यह आश्रम परिसर में स्थित है।
यह विकास कार्यों के हर पहलू के समन्वय और ग्रामस्वराज्य सभा को नैतिक मार्गदर्शन प्रदान करने में मदद करता है। पहले आश्रम ग्राम कोष में ग्राम स्वराज सभा के अंतर्गत आने वाले सभी परिवारों का योगदान होता था। परिवार अपनी क्षमता के अनुसार नगद या अनाज का योगदान करते थे। यह फंड सदस्यों को बीज, उर्वरक देने के अलावा व्यक्तिगत मदद भी करता था। ग्रामकोष द्वारा कर्ज में डूबे लोगों की मदद की गई, जिससे महाजनों द्वारा बंधक बनाई गई जमीनों को छुड़ाया गया. ग्राम कोष ने 200% तक ब्याज वसूलने वाले साहूकारों की रीढ़ तोड़ दी। बनवासी सेवा आश्रम ने गाँवों में श्रम बैंकों की स्थापना की, ताकि लोगों को इसमें भाग लेने और अपने स्वयं के विकास में योगदान करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। गरीब आदिवासी किसान और खेतिहर मज़दूर या तो किसी अन्य व्यक्ति के साथ श्रम का आदान-प्रदान करते थे या सिंचाई के जलाशय, धान के खेत और वृक्षारोपण के लिए कुएं, मिट्टी के बांध जैसी मूर्त संपत्ति का निर्माण करते थे। सामुदायिक संगठन की इस अनूठी विकेन्द्रीकृत प्रणाली के माध्यम से, आश्रम ने क्षेत्र के एकीकृत विकास में बड़ी भूमिका निभाई।
लोगों को अपनी विकास योजनाएँ बनाने का अधिकार दिया गया। विचार यह था कि लोगों को अपने मामलों का प्रबंधन करने के लिए आवश्यक आत्मविश्वास, कौशल और भागीदारी हासिल करनी चाहिए। आश्रम ने समाज के सबसे कमज़ोर वर्गों के अधिकार सुरक्षित करने के लिए संघर्ष किया। इन संस्थानों में सभी जातियों और समुदायों के लोगों को अच्छी तरह प्रतिनिधित्व दिया जाता है। वर्तमान में, दक्षिण सोनभद्र के 4 विकास खंडों के 236 राजस्व गाँवों में 445 ग्राम स्वराज समितियां कार्यरत हैं। 13 ग्राम निर्माण केंद्र हैं। पास के नगरों में भी आश्रम के 2 केंद्र हैं। इस व्यवस्था को कई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा। खेती आधारित जीवन और संयुक्त परिवार टूटने से समाज में बड़ा बदलाव आया। मजदूरी पर लोगों की निर्भरता बढ़ी है, युवाओं का पलायन काफी तेज़ी से बढ़ा है। इसके अलावा इस तरह की कई व्यवस्थाएं सरकार द्वारा भी लागू की गई हैं, अब लोग इन सरकारी योजनाओं पर ही आश्रित होने लगे हैं, खुद से करने की जरूरत भी कम महसूस होनी लगी है. इन बदलावों से आश्रम के कई जरूरी कार्यक्रम निष्क्रिय हुए, लेकिन आज भी कई जगहों पर इसके बीज संग्रहित हैं.
1993 में आई पंचायती राज व्यवस्था आज देश भर में कायम है। आश्रम की सेक्रेटरी शुभा बताती हैं कि आश्रम की यह विकेन्द्रीकृत प्रणाली, एक सामाजिक-राजनीतिक परिस्थिति की मांग थी, आज ग्राम पंचायत की व्यवस्था से आश्रम की वैकल्पिक व्यवस्था समांतर व्यवस्था हो गयी है। हमारी कई गतिविधियां कम हुई हैं। पहले चलने वाले आश्रम के कई काम आज पंचायती व्यवस्था में किये जाते हैं। लेकिन आश्रम तथा उससे जुड़ी संस्थाओं द्वारा आम लोगों के सशक्तिकरण ने इन्हें आज नेतृत्व की भूमिका में ला खड़ा किया है। शुभा बताती हैं कि आश्रम ने प्रशासन को ग्रामीणों की समस्या के बारे में न सिर्फ बताया, बल्कि समस्या के समाधान का मॉडल भी दिखाया कि इसे किस तरह दूर किया जा सकता है। आज सरकार भी आश्रम द्वारा किए गए कई रचनात्मक कामों को अपने कार्यक्रम में जोड़ रही है।
भूमि सुधार और कृषि
खेतों पर आश्रम के कृषि एक्सपर्ट बड़े चाव से काम करते दिखे। परिसर की 160 एकड़ जमीन में आज जैविक खेती का प्रयोग होता है। टमाटर, भिंडी, मकई, तिल, केले आदि की खेती में जैविक खाद का इस्तेमाल होता है, आश्रम अपने कीटनाशक भी खुद बनता है। खेती के प्रति उनके जुनून और ज्ञान से मैं विस्मित होता हूँ। लहलहाते खेतों के पीछे आश्रम की दशकों की मेहनत है, जिसने इस बंजर भूमि को भी उपजाऊ बनाने में सफलता प्राप्त की है।
जिस समय सोनभद्र में आश्रम ने काम करना शुरू किया, उस समय इस क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा का अभाव था और कृषि केवल वर्षा पर निर्भर थी। भूमि चट्टानी और परती थी। इस क्षेत्र में अक्सर सूखा पड़ता था और भूख से मौत असामान्य बात नहीं थी। इन परिस्थितियों में आश्रम को सरकार से 250 एकड़ पहाड़ी, अनुत्पादक भूमि प्राप्त हुई। प्रारंभ में आश्रम द्वारा आठ मिट्टी के बांध बनाए गए, बांध और कनाल का भी निर्माण हुआ। इन सब के कारण 50 प्रतिशत उत्पादकता में वृद्धि हुई। साठ के दशक में, भूमि विकास कार्य आश्रम के प्रमुख कृषि हस्तक्षेपों में से एक था। काम के बदले भोजन कार्यक्रम के तहत सबसे पहले ज़मीन को समतल करने और बांध बनाने का काम हाथ में लिया गया।1200 एकड़ पर भूमि सुधार का कार्यक्रम किया गया, जिससे 800 से अधिक किसानों को लाभ हुआ।1966-67 में आश्रम ने लगभग 200 कुएँ खोदे और 1991 तक यह संख्या बढ़कर 1800 हो गई। आश्रम द्वारा पहली बार 1976 में लिफ्ट सिंचाई तकनीक का प्रयोग किया गया। 2007 से आश्रम परिसर में 100 प्रतिशत जैविक खेती हो रही है।
भूमि सुधार और कृषि क्षेत्र की प्रमुख उपलब्धियां
जल संचयन के उद्देश्य से 1380 चेक डैम और 115 बावड़ियाँ बनायी गयीं। इन संरचनाओं के निर्माण के कारण 25,660 एकड़ से अधिक भूमि की सिंचाई की गई। 370 लिफ्ट सिंचाई टावर, 101 पंप, 82 रहट के निर्माण हुए, 16,000 एकड़ भूमि को खेती के लिए उपयुक्त बनाया गया, पेयजल संकट के समाधान के लिए 1860 कुएं और 160 हैंडपंप बनाए गए.
आश्रम की खेती
खादी एवं कुटीर उद्योग
आश्रम परिसर में स्थित खादी और ग्रामोद्योग शाखा में कुछ महिलाएं अगरबत्ती बनाने का प्रशिक्षण ले रही हैं। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर से एक प्रशिक्षक 10 दिनों की ट्रेनिंग वर्कशॉप के लिए पहुँचे हैं। करीब 10 महिलाएं, जिनमें उम्रदराज़ और युवा दोनों शामिल हैं, बड़े ध्यान से ट्रेनर की बातें सुन रही हैं। परिसर का भ्रमण करने पर यहाँ रेशम, खादी, अगरबत्ती, साबुन, मसाले, तेल इत्यादि बनाने के उद्योग दिखे। गांधी जी का मानना था कि खादी और अन्य कुटीर उद्योगों से गाँवों का पुनर्निर्माण संभव है, जो गाँवों को आत्मनिर्भर इकाइयों में बदल देगा। ग्रामीण उद्योग गैर-कृषि गतिविधि के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और ग्रामीणों को रोज़गार प्रदान करते हैं। बनवासी सेवा आश्रम ने अपनी यात्रा की शुरुआत में ही ग्रामोद्योग के महत्व को महसूस कर लिया था। 1960-1978 के दौरान, आश्रम ने बड़े स्तर पर खादी उत्पादन किया। आश्रम परिसर में चरखे लगाए गए और ग्रामीणों में वितरित किए गए।
आश्रम ने अंबर चरखे को बढ़ावा दिया और रेशम उत्पादन शुरू किया। रेशम के कीड़ों का पालन 1979 में अर्जुन और अंडी के पेड़ों पर शुरू हुआ। इसके अलावा चमड़ा, लोहा, लकड़ी, घर निर्माण, मिट्टी, रस्सी, बांस के कारीगरों को प्रशिक्षण दिया गया. साथ ही आश्रम द्वारा कारीगर पंचायत संगठन के नाम से कारीगर संघ का गठन और लगभग 1,000 कारीगरों को पहचान पत्र का वितरण किया गया। यह 2009 में शुरू हुआ।
यहाँ के संयोजक लाल बहादुर मौर्य बताते हैं कि बीते कुछ सालों में खादी उद्योग मुनाफे में रहा है, लेकिन इसके सामने चुनौतियां अनेक हैं। वे बताते हैं कि नई पीढ़ी में श्रम आधारित हुनर सीखने की ललक नहीं है। सरकार से भी प्रोत्साहन कम ही मिल पाता है। शुभा प्रेम बताती हैं कि सबसे बड़ी चुनौती ये है कि हथकरघा श्रमिकों की मजदूरी की दर अन्य क्षेत्रों में मजदूरी की दर से काफी कम है, इस कारण इच्छुक लोग भी इस क्षेत्र के प्रति आकर्षित नहीं हो पाते। इसके अलावा एक दूसरी बड़ी चुनौती है कि हथकरघा उद्योग में नए प्रयोग नहीं हो रहे हैं, तकनीकी नवाचार न के बराबर हैं, आज भी हम पुरानी तकनीक को ही अपना रहे हैं। पॉवरलूम में इस्तेमाल होने वाली मशीन को हथकरघा उद्योग में इस्तेमाल किया जा रहा है ।
नवउदारीकरण के दौर में गांधी दर्शन और आश्रम के लिए नई चुनैतियां
पिछले 70 सालों में औद्योगीकरण और शहरीकरण के विकास मॉडल ने गांधी के ग्रामस्वराज के मॉडल को पूरी तरह से नकारा है। यह प्रक्रिया नवउदारवाद से और तेज़ हुई है। गांधी 2 अक्टूबर और 30 जनवरी तक सिमट कर रह गए हैं। गांधी के विकास के मॉडल पर कोई बात करना नहीं चाहता। सरकारें भले बदल रही हैं, लेकिन शासकों की विचारधारा एक है। शहर केन्द्रित विकास और जॉबलेस ग्रोथ को हमने विकास का पैमाना बनाया है। गाँव के लोग आज शहरी स्लम्स में उपभोक्ता समाज के लिए सस्ते मज़दूर से ज़्यादा कुछ नही हैं। चाहे झारखंड हो या कोई भी हिस्सा, छोटे ग्रमीण उद्योगों द्वारा ग्रामीण विकास को बढ़ावा देने की ललक पालिसी मेकर्स की प्राथमिकता नहीं है। हर दिन 2 जीबी डेटा खत्म करने में व्यस्त युवाओं के सपने शहरों का रास्ता तलाश रहे हैं।
आज सोनभद्र की कहानी भी विस्थापन, पलायन, प्रदूषण के इर्द-गिर्द ही घूमती दिख रही है। नवउदारवाद और कॉर्पोरेटपरस्त अर्थनीति के कारण आश्रम के सामने भी दिक्कतें पेश आ रही हैं। फंडिंग के अभाव में कई कार्यक्रमों को रोकना पड़ा है। ऐसे में आश्रम को आत्मनिर्भर बनाने वाले इकनोमिक मॉडल बनाने की ज़रूरत दिखती है, ताकि बाहरी आर्थिक मदद के अभाव में कार्यक्रम की गतिविधियां न रुकें। युवा पीढ़ी को आश्रम से जोड़ना एक बड़ी चुनौती है। गांधी विचार को आधुनिक संदर्भों में प्रासंगिक बनाकर लोगों तक पहुचाना समय की ज़रूरत है। प्राकृतिक दोहन, क्लाइमेट चेंज, उपभोक्तावाद, बेरोज़गारी, हिंसा व सामाजिक तनाव के मौजूदा दौर में गांधी विचार की ज़रूरत पहले से कहीं ज़्यादा दिखती है।
-विकास कुमार