भूदान आंदोलन की मांग दीन होकर नहीं, बल्कि प्रेम के बल पर की जाती है। क्योंकि प्रेम की शक्ति काफी है। धमकाकर जमीन नहीं ली जा सकती है।
बाबा का मानना था कि भूदान आंदोलन कुल मनुष्यों के लिए होना चाहिए। अगर लोगों की सोच समाजसेवा में भी समाज के दो टुकड़े करके करने की है तो कैसे चलेगा! मध्यप्रदेश में एक भाई ने ऐसा कहा कि मैं जमीन तो 20 एकड़ देना चाहता हूं, लेकिन मेरी शर्त है कि यह जमीन अमुक धर्म के लोगों को न दी जाए। बाबा ने कहा, हमें यह शर्त मंजूर नहीं। इस तरह का भेद करना अत्यंत अधर्म है। दुःख निवारण के कार्य में धर्म का भेद नहीं चल सकता। यह बात आर्य संस्कृति के ही पूर्ण रूप से खिलाफ है। उस आदमी ने बाबा से फिर कहा कि मेरी जमीन बहुत अच्छी है, आप किसी गरीब हिंदू भाई को दे दीजिए। हमें बहुत खुशी होगी। बाबा ने कहा कि तुम्हारे मन में जो दुर्बुद्धि घर किए हुए है, पहले तो उसे छोड़ दो। मुझे ऐसी जमीन का लोभ नहीं। बाबा ने एक विशेष प्रकार का आंदोलन ‘दानपत्र वापसी आंदोलन’ चलाया। अगर 50 बीघे जमीन का मालिक आधा बीघा जमीन देने की बात कहता तो बाबा पीछे लिख देते थे, यह नाकाफी दान है। कई जगह ऐसे लोग शाम को प्रायश्चित करने पड़ाव पर आए और छठा हिस्सा दिया। यह आंदोलन मुज्जफरपुर, बिहार में चलाया गया। बाबा ने छठे हिस्से की अपनी जिद बनाए रखी। कई जगह हरिजनों को न दी जाय, ऐसी बात भी आई। बाबा ने ऐसी सारी जमीनें वापस कर दीं।
बाबा मिलने वाली जमीनों की कीमत नहीं करते, बल्कि प्रेम की कीमत करते हैं। प्रेम का प्रतिफल मीठा ही होता है।
भूदान आंदोलन की मांग दीन होकर नहीं, बल्कि प्रेम के बल पर की जाती है। क्योंकि प्रेम की शक्ति काफी है। धमकाकर जमीन नहीं ली जा सकती है। अगर कोई लेता भी है तो हम उसे नाजायज समझेंगे। इस प्रथा से भूदान यज्ञ के मूल पर ही प्रहार होगा, इसलिए डराना, धमकाना, बेजा वजन डालना यह सब गलत है। प्रेम की शक्ति पर बाबा का बहुत विश्वास था। बाबा के पास लोगों से उनकी कुल जमीन का छठा हिस्सा लेने का कोई सरकार का दिया हुआ अधिकार तो नहीं था। वह अधिकार प्रेम और सद्विचार का ही था। इसकी ताकत सभी को कबूल करनी पड़ती है। इसके सामने और कोई ताकत टिकती नहीं है। वैसे भी सद्विचार के सामने कोई गलत विचार टिक नहीं सकता। जैसे प्रेम के आगे स्वार्थ टिक नहीं सकता। सद्विचार मनुष्य के दिमाग में गलत विचार से युद्ध करता है और जीतता है। सद्विचार की हार तो हो ही नहीं सकती, गलत विचार भी सद्विचार के ही वश हो जाता है। तब दोनों की जीत ही होती है। अहिंसा की लड़ाई में जीत दोनों की ही होगी। दोनों का सौहार्द भी बढ़ेगा। इस प्रेम-शक्ति के कारण ही हजारों लोग जुड़े हैं। बाबा मिलने वाली जमीनों की कीमत नहीं करते, बल्कि प्रेम की कीमत करते हैं। प्रेम का प्रतिफल मीठा ही होता है। – रमेश भइया