भूदान से करुणा का एक छोटा सा प्रवाह निकला, लेकिन जब वह प्रवाह समुद्र में आया, तब उसे समुद्र का रूप मिला। ग्रामदान एक समुद्र और भूदान एक नदी है। बाबा का भूदान यज्ञ नदी के जरिए समुद्र में प्रवेश कर रहा था.
आज 23 मई का दिन बहुत पावन दिन है, क्योंकि आज से सात दशक पूर्व आज ही के दिन विनोबा को पहला ग्रामदान हमीरपुर जिले के मंगरोठ गांव में मिला था, जो इतिहास बन गया। बाबा की भूदान यात्रा की शुरुआत 1952 में उत्तरप्रदेश से हुई थी, इसलिए वर्ष 1952 उत्तर प्रदेश के लिए अत्यंत परिणामदायक तो रहा ही, लेकिन ग्रामदान जैसी अद्भुत उपलब्धि के कारण सारे भारतवर्ष बल्कि दुनिया भर में प्रख्यात हुआ। विनोबा की यात्रा जनवरी 1952 में बरेली जिले की तहसील बहेड़ी से पीलीभीत, बरेली शहर होते हुए बदायूं, उझानी, कासगंज, सोरों, एटा, मैनपुरी, फर्रूखाबाद, हरदोई से सर्वोदय दिवस 12 फरवरी को शाहजहांपुर नगर पहुंची। वहां उनका संबोधन अहिंसा पर केंद्रित रहा। इसके बाद यात्रा गोला गोकर्णनाथ, लखीमपुर, सीतापुर होते हुए बहराइच, गोंडा, बस्ती, बांसी, गोरखपुर के बाद देवरिया, आजमगढ़, बलिया, गाजीपुर होती हुई 11 अप्रैल को वाराणसी पहुंची। 12 से 19 अप्रैल के बीच सेवापुरी में बाबा का रुकना हुआ। यहीं 18 अप्रैल को सर्वोदय सम्मेलन का भव्य आयोजन हुआ। बाबा ने यहां पर एक लाख एकड़ भूदान प्राप्ति की घोषणा की। यहीं पर सर्व सेवा संघ द्वारा आगामी दो साल में 25 लाख एकड़ जमीन भूदान में प्राप्त करने का संकल्प लिया गया था।
वाराणसी से यात्रा, भदोही, जौनपुर, फैजाबाद, बाराबंकी होते हुए 8 मई को उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ पहुंची। बुद्ध पूर्णिमा के दिन बाबा ने वहां पर कहा कि भगवान बुद्ध का बोया हुआ बीज अंकुरित हो रहा है, यह भूमि की समस्या को शांति से हल करने का प्रयास है। देखा जाए तो यह धर्मचक्र प्रवर्तन का कार्य है। बाबा की भूदान-यात्रा उन्नाव, कानपुर, जालौन होती हुई 23 मई 1952 को हमीरपुर के इटैलिया पहुंची. वहां से राठ के रास्ते में ही राजपरिवार के दीवान शत्रुघ्न सिंह मंगरोठ गांव के अनेक ग्रामवासियों के साथ आकर बाबा से मिले और उन्होंने मंगरोठ गांव की सारी जमीन दान में देने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया, जिसे सुनकर सभी को पहले तो आश्चर्य हुआ, किंतु बाद में इसे ईश्वरीय संकेत मानकर बाबा ने उन सभी का अनुरोध स्वीकार कर मंगरोठ को भारत का पहला ग्रामदानी गाँव घोषित किया। उत्तरप्रदेश की पावन धरती पर यह एक ऐतिहासिक कार्य हुआ। अब बाबा की यात्रा में भूदान से एक कदम आगे बढ़कर ग्रामदान का कार्य भी शुरू हुआ। आगे चलकर देश में सैकड़ों ग्रामदान प्राप्त हुए।
मंगरोठ गांव में राजा साहब का किला, विशेष रूप से उस समय की याद दिलाता इंटर कालेज और गांधी स्मारक निधि द्वारा चलाया जा रहा खादी का कार्य था। गांव के बुजुर्गों की आंखों में ग्रामदान का वह सुंदर दृश्य आज भी मौजूद था।
भूदान स्वर्णजयंती के अवसर पर आयोजित राष्ट्रीय ग्रामस्वराज्य संदेश पदयात्रा में पहली बार मेरा भी मंगरोठ जाना हुआ। हमारी यात्रा राठ से सीधे पहले दीवान शत्रुघ्न सिंह के बेटे कर्नल प्रेम प्रताप सिंह के गांव पहुंची, जहां उनकी पत्नी रानी साहिबा गांव की प्रधान थी। वे बहुत सेवाभावी, अत्यंत मृदुभाषी और जनता की मददगार थीं। बरसात का समय था, फिर भी रानी साहिबा स्वयं पैदल मंगरोठ तक यात्रा टोली के साथ गयीं। मंगरोठ गांव में राजा साहब का किला, विशेष रूप से उस समय की याद दिलाता इंटर कालेज और गांधी स्मारक निधि द्वारा चलाया जा रहा खादी का कार्य था। गांव के बुजुर्गों की आंखों में ग्रामदान का वह सुंदर दृश्य आज भी मौजूद था। यात्रा का पड़ाव वहीं था, इसलिए प्रत्येक के घर जाना हुआ। मिलीजुली प्रतिक्रिया देखने को मिली। जहां बुजुर्ग लोग या उनके घर की माताएं कह रही थीं कि हमने बाबा विनोबा के दर्शन किए हैं, हमारे गांव में जयप्रकाश भी रुके थे, उनके भी दर्शन किए, वहीं दूसरी ओर युवक कुछ खिन्न दिखाई पड़े, क्योंकि उनको आय प्रमाण पत्र या खेती से संबंधित कोई कागज नहीं मिल पा रहा था, जिससे उन्हें नौकरी या बैंक ऋण में दिक्कत आ रही थी,क्योंकि मंगरोठ का ग्रामदान हो जाने के कारण सारी जमीन ग्रामसभा के नाम थी।
भूदान में छोटी-छोटी जमीनें मिलीं, बहुत बड़ी बात है, लेकिन ग्रामदान में सर्वस्व दान देने की प्रेरणा मिली। यहीं से भूमि क्रांति का आरंभ हुआ, क्योंकि जमीन की मालिकी गांव की बनती है, व्यक्ति की नहीं. जमीन गांव की है और उसका मालिक भगवान है।
अभी मंगरोठ में ग्रामदान का स्मरण दिलाने हेतु बहुत कुछ है, जिसे संजोने के लिए वहां के लोगों ने इसी वर्ष एक सम्मेलन किया था, जिसमें उत्तर प्रदेश सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष रामधीरज, सर्वसेवा संघ के मंत्री अरविंद कुशवाहा, लल्लू दादा के परिवार की सदस्य मीनाक्षी सिंह तथा इसमें रुचि रखने वाली संस्था के विनोद कुमार मल्ल व विनोद कुमार सिंह भी शामिल थे। इस पर काम करने की जिज्ञासा प्रोफेसर संजय कुमार, निदेशक: गांधी अध्ययन पीठ, काशी विद्यापीठ वाराणसी, ने भी व्यक्त की है। स्थानीय कालेज के प्राचार्य और शिक्षक भी इसमें खूब रुचि रखते हैं। प्रमुख रूप से दीवान साहब के परिवार की तीसरी और चौथी पीढ़ी अभी भी उसी तरह का स्नेह बनाए हुए है। यही स्नेह सर्वोदय जगत के लिए बहुत बड़ी पूंजी है। भूदान में भूतदया और करुणा की प्रेरणा थी, वहीं ग्रामदान में करुणा के अलावा साम्ययोग की प्रेरणा थी। साम्ययोग आएगा तो करुणा के रास्ते ही आएगा। अगर हृदय एक नहीं होता, तो भूमि को एक करने से क्या फायदा? ग्रामदान से हृदय की असली शक्ति प्रकट होगी। भूदान से करुणा का एक छोटा सा प्रवाह निकला, लेकिन जब वह प्रवाह समुद्र में आया, तब उसे समुद्र का रूप मिला। ग्रामदान एक समुद्र और भूदान एक नदी है। बाबा का भूदान यज्ञ नदी के जरिए समुद्र में प्रवेश कर रहा था. भूदान में प्रेम, करुणा इत्यादि गुण होते हुए भी प्रतिभा नहीं थी, लेकिन ग्रामदान में प्रतिभा भी है. भूदान में छोटी-छोटी जमीनें मिलीं, बहुत बड़ी बात है, लेकिन ग्रामदान में सर्वस्व दान देने की प्रेरणा मिली। यहीं से भूमि क्रांति का आरंभ हुआ, क्योंकि जमीन की मालिकी गांव की बनती है, व्यक्ति की नहीं. जमीन गांव की है और उसका मालिक भगवान है। – रमेश भइया