हम सभी को हाथ में कुदाली, झाड़ू, खपरा और फावड़ा उठा लेना चाहिए। जब हम इन दिव्य आयुधों से सजेंगे तो हमें अच्छा कार्य करने की प्रेरणा होगी।
बाबा विनोबा का आवाहन था कि हम सभी को हाथ में कुदाली, झाड़ू, खपरा और फावड़ा उठा लेना चाहिए। जब हम इन दिव्य आयुधों से सजेंगे तो हमें अच्छा कार्य करने की प्रेरणा होगी। जब भगवान कोई अच्छा काम करवाना चाहते हैं, तो इसी प्रकार के औजार लेकर वे अवतरित होते आए हैं। इन आयुधों के साथ काम शुरू करते ही भगवान हमको सफलता जरूर देगा, क्योंकि इस काम में असफलता ईश्वर को कभी अपेक्षित ही नहीं है। ईश्वर ही यह सब कहलवाता है और वही यह काम पूरा करनेवाला है, ऐसा विश्वास रखकर और प्रतिज्ञा लेकर हम काम करें। इस पुनीत कार्य की एक शर्त है कि हममें एक दूसरे के प्रति अपार प्रेम होना चाहिए। परायापन हरगिज न हो। मनुष्य को अपने निज से जो प्रेम होता है, वह निरुपचार होता है, यानी उस प्रेम में कहीं उपचार नहीं होता, उसमें कहीं भी दिखावटीपन नहीं होता। वह बिल्कुल भीतर पैठा हुआ प्रेम होता है। हम दूसरों से वैसा ही प्रेम करें। यह बात अगर हमने संभाल ली तो बाकी सब ईश्वर संभालेगा। बाबा का कहना था कि मैं एक मार्ग का प्रयोगी हूं। अहिंसा की खोज करना बहुत वर्षों से मेरे जीवन का कार्य रहा है और मेरी शुरू की हुई प्रत्येक कृति, हाथ में लिया हुआ और छोड़ा हुआ प्रत्येक काम, सब उसी प्रयोग के लिए हुए और आगे हो रहे हैं। विभिन्न संस्थाओं की सदस्यता त्याग देने में भी मेरी दृष्टि अहिंसा की खोज करने की ही रही। अहिंसा का विकास करने के लिए मुक्त ही रहना चाहिए। मुक्त का मतलब कर्ममुक्त या कार्यमुक्त नहीं, विभिन्न संस्थाओं के कामकाज से मुक्त रहना है। बाबा तो यहां तक कहते थे कि अहिंसा के पूर्ण प्रयोग के लिए तो वास्तव में देहमुक्त ही होना चाहिए। जब तक यह स्थिति नहीं आती, तब तक जितना संभव हो देह से, संस्थाओं से और पैसे से अलग रहकर काम करने की योजना होनी चाहिए।
अहिंसा की खोज करना बहुत वर्षों से मेरे जीवन का कार्य रहा है और मेरी शुरू की हुई प्रत्येक कृति, हाथ में लिया हुआ और छोड़ा हुआ प्रत्येक काम, सब उसी प्रयोग के लिए हुए और आगे हो रहे हैं। विभिन्न संस्थाओं की सदस्यता त्याग देने में भी मेरी दृष्टि अहिंसा की खोज करने की ही रही। अहिंसा का विकास करने के लिए मुक्त ही रहना चाहिए। मुक्त का मतलब कर्ममुक्त या कार्यमुक्त नहीं, विभिन्न संस्थाओं के कामकाज से मुक्त रहना है।
भूदान के काम में केवल भूमिदान प्राप्त करने का बाबा का प्रयोग नहीं है। निस:देह भूमिदान बहुत बड़ी वस्तु है, पर बाबा की मुख्य कल्पना यही है कि समाज की सामाजिक और व्यक्तिगत सब प्रकार की कठिनाइयों का परिहार अहिंसा से कैसे होगा, इसकी खोज करूं। बाबा इसी मुख्य कार्य के लिए तेलंगाना गया था। वहां जाने पर बाबा की भूमिका एक शांतिसैनिक की ही थी। यदि बाबा वहां जाने का कार्यक्रम टालता तो इसका अर्थ यही होता कि बाबा ने अहिंसा और शांतिसेना का काम करने की अपनी प्रतिज्ञा ही तोड़ दी। – रमेश भइया