किताब
हिंदी में छपी यह पुस्तक मराठी से अनूदित है। मूलतः मराठी में लिखी इस पुस्तक का नाम है ‘गांधी का मरत नाही’। इसके लेखक हैं चंद्रकांत वानखेडे। इनका रिश्ता जितना लेखन से है, उतना ही पत्रकारिता से और विशेष बात यह कि ये गांधी विचार पर आधारित संगठनों और आंदोलनों की उपज हैं।
पुस्तक को पढ़ने से दो बातें साफ समझ में आती हैं । एक तो यह कि संगठनों और आंदोलनों से जुड़ाव ने इन्हें गांधी विचार ही नहीं, गांधी के व्यक्तित्व की भी गहरी समझ दी है। दूसरी बात यह कि पत्रकारिता जगत में इन्होंने जो अहम भूमिका निभाई, उसने इन्हें आम लोगों विशेषकर नौजवानों की भाषा पर पूरी पकड़ दी। जो पुस्तक विचार पर आधारित हो और आम जनों की पकड़ में आने वाली प्रवाही भाषा में हो, उसका अनुवाद करना कोई आसान काम नहीं है। अनुवाद में पुस्तक के विचार तो प्रकट हों ही, भाषा का प्रवाह और प्रभाव भी खंडित न हो, ऐसा करना बहुत कठिन होता है। लेकिन डॉ कल्पना शास्त्री ने यह अनुवाद अत्यंत कुशलता से किया है। इसका एक कारण यह है कि इनका मराठी और हिंदी दोनों भाषाओं पर समान रूप से प्रभुत्व है। मराठी तो इनकी मातृभाषा ही है, इनकी पूरी माध्यमिक शिक्षा संस्कृत प्रवण हिंदी में हुई है। लेकिन खास बात यह कि ये पिछले 40 वर्षों से बिहार के मिथिला क्षेत्र की दलित महिलाओं के बीच काम कर रही हैं। इससे इनका परिचय हिंदी की लोक भाषाओं से भी अच्छी तरह हुआ है। बोलियां हमेशा अपनी मुख्य भाषा को धारदार बनाती हैं। इस कारण आम लोगों की समझ में आने लायक प्रवाही हिंदी में ये प्रवाही मराठी का अनुवाद कर सकीं। लेकिन इतने से ही इतना अच्छा काम नहीं होता, यदि लेखक और अनुवादक दोनों ही गांधी को समझने वाले और गांधी के प्रशंसक नहीं होते।
गांधी के सेवाग्राम आश्रम से 8 किलोमीटर दूर वर्धा शहर में रहने वाली कल्पना शास्त्री अपनी किशोर वय से ही गांधी को जानने- समझने लगीं। लेखक का रिश्ता भी वर्धा शहर और सेवाग्राम आश्रम से लगभग बचपन से ही रहा। इस कारण दोनों की गांधी के बारे में समझ में अच्छा भावनात्मक ताल मेल बैठा। मूल मराठी भाषा में लिखी यह पुस्तक काफी लोकप्रिय सिद्ध हुई है। दो-तीन वर्षों में ही इसके कई संस्करण छप गए, परंतु इसका दायरा सीमित रहा। इसके हिंदी अनुवाद ने इस पुस्तक को एक व्यापक दायरा प्रदान किया है।
आशा है हिंदी पाठक भी इसे हाथों-हाथ खरीदेंगे। यह पुस्तक जानकारी की दृष्टि से आम लोगों, विशेषकर आज की युवा पीढ़ी के लिए विद्वत्तापूर्ण और विद्वानों के लिए महत्वपूर्ण है। आज की युवा पीढ़ी के लिए यह पुस्तक गांधी के बारे में अनजानी जानकारियों से भरी हुई है और विद्वानों के लिए उन जानकारियों के बारे में यह एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। गांधी विचार के प्रायः हर महत्वपूर्ण पहलू को लेखक ने पर्याप्त रूप से स्पष्ट किया है और कुछ इस तरह से कि गांधी का जीता जागता चित्र खड़ा हो जाता है। उस विचार के पीछे की ऐतिहासिकता स्पष्ट होती है और लोग गांधी की मनोभूमिका भी समझ पाते हैं। “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है “गांधी के इस प्रसिद्ध वाक्य की शैली में ही लेखक ने यह पूरी पुस्तक लिख डाली है। लेखक महाराष्ट्र के हैं और महात्मा गांधी का भी महाराष्ट्र से गहरा संबंध रहा है।
1930 में नमक सत्याग्रह के लिए जब गांधी ने अपना साबरमती का सत्याग्रह आश्रम छोड़ा और दांडी यात्रा शुरू की, तो घोषणा की कि यहां अब मेरी वापसी स्वतंत्रता पाने के बाद ही होगी। साबरमती आश्रम छोड़ने के बाद गांधी जी ने नागपुर शहर से कोई 80 किलोमीटर दूर और वर्धा शहर से कोई 7 किलोमीटर की दूरी पर सेवाग्राम आश्रम की स्थापना की। यही आश्रम उनके आगे के जीवन का स्थाई पता रहा। उनके गुरु तुल्य गोपाल कृष्ण गोखले और उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी आचार्य विनोबा भावे भी महाराष्ट्र के ही थे। उनकी विचारधारा के विरोधी और उनसे नफरत करने वाले विनायक दामोदर सावरकर और उनकी हत्या करने वाला नाथूराम गोडसे, जो सावरकर का ही शिष्य था, भी महाराष्ट्र के ही थे। गांधी विरोधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा का केंद्र भी नागपुर और महाराष्ट्र के ही उच्च वर्णीय लोग रहे हैं।
ऐसे में महात्मा गांधी के कार्यों और उनके व्यक्तित्व को समझने-देखने का एक महाराष्ट्रीय दृष्टिकोण भी बनता है, जो दूसरे प्रांतों की समझ से कुछ भिन्न है। लेखक ने विचारों और घटनाओं को जिस प्रकार से रखा है, उसका पैनापन इसी महाराष्ट्रीय दृष्टिकोण और अवलोकन की देन है। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर भी महाराष्ट्र के थे जिन्हें गांधी का घोर विरोधी माना जाता है। लेकिन जिन्होंने अंबेडकर का अध्ययन किया है, वे अवश्य समझते हैं कि उनका लगाव गांधी के साथ “लव एंड हेट” का रहा।
लेखक जो स्वयं दलित समाज का है, इस बात से दुखी है कि अंबेडकरवादियों ने गांधी के प्रति अंबेडकर के “हेट” को तो पकड़ लिया, लेकिन गांधी के प्रति उनके “लव” को समझा ही नहीं। लेखक यह भी लिखता है कि दलित आंदोलनों के नेताओं की इस एकतरफा और अधूरी समझ के कारण दलित आंदोलन का बड़ा नुकसान हो रहा है। दलित नेतृत्व अपनी समझ को जितनी जल्दी सुधार पाएगा उतना ही दलित आंदोलन के लिए अच्छा होगा। इसी तरह लेखक ने गांधी के प्रति किए जा रहे दुष्प्रचार का भी अत्यंत सफलतापूर्वक खंडन किया है। वास्तविकता को, गांधी की ऊंचाई को स्पष्टता और मजबूती के साथ रखा है।
अंत में यह लिखना भी प्रासंगिक रहेगा कि गांधी और गांधीवादियों के फर्क और उनके बीच की दूरी की और भी लेखक ने इशारा किया है। गांधीवादियो ने गांधी को गूढ़ बनाया है और आश्रमों व किताबों में बंद रखा है, जबकि आवश्यकता है गांधी की गूढ़ता में जो सरलता और सहजता है, उसे लोगों के बीच रखा जाए। यह पुस्तक विशेषकर नई पीढ़ी के लिए, जिसका व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी कुशिक्षण कर रही है, आंखें खोलने वाली है और उन्हें सुशिक्षित बनाती है। इस पुस्तक, इसके लेखक और अनुवादक के प्रति सर्वोदय जगत की तरफ़ से हार्दिक शुभकामनाएं।
– कुमार शुभमूर्ति